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कथा‍-कहानी

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अनमोल वचन

Saturday 31 May 2014

बिहार भ्रमण में विज्ञान दर्शन‍- विजय उपाध्याय




 विजय कुमार उपाध्याय  
उ.म.वि झखरा पूर्वी चम्पारण में स्नातक शिक्षक हैं। आप जीवनमैग.कॉम के प्रमुख सलाहकार भी हैं।

नेताजी सुभाष को भारत रत्न ना मिलने का कारण (RTI का उत्तर)

टीम जीवन मैग के सदस्य अमिनेष आर्यन ने गृह मंत्रालय में आर.टी.आई दायर कर सुभाष चन्द्र बोस को भारत रत्न देकर लौटाने का कारण पूछा तो ज़वाब कुछ यूं आया‍-


Excerpted from- Jeevan Mag Feb.- march 2014 issue



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Friday 30 May 2014

किस्सा कोताह‍...- अमितेष कुमार

- अमितेष कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रख्याता हैं तथा रंग-विमर्श नामक अपने ब्लॉग पर अतिसक्रिय हैं।

Excerpted from- Jeevan Mag Feb.- march 2014 issue



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Wednesday 28 May 2014

राघवेन्द्र त्रिपाठी की गज़ल

अपनी खुदाई का एहसास हो चला मुझको,
मुझे देख आँखों ने उसके वजू कर लिया ||
उसके इन्साफ के हम तो कायल हैं राघव,
मुझको गुलशन दिया,तो रंगो-बू ले लिया||
इक परिंदा था दिल,पर फडफडाता हुआ सा,
उसकी आँखों ने क्यूँ सब आरजू कह दिया||
उसने बचने की कोशिश लाखो की लेकिन,
इक नज़र ने अखारिश उसको छू ही लिया||


राघवेन्द्र त्रिपाठी 'राघव'  
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में बी.टेक/ बी.एस इन इनोवेशन विद मैथ्स एन्ड आइटी के छात्र हैं.)

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Sunday 25 May 2014

पंडित नेहरू के हमसफ़र महबूब- नंदलाल



इस वर्ष 27 और 28 मई को हिंदुस्तान के दो महान व्यक्तित्वों क्रमशः पंडित जवाहर लाल नेहरू और महबूब खान की 50वीं पुण्यतिथि है| उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए याद कर हैं- नंदलाल 


यह बात उस दौड़ की है जब फिल्म मदर इंडिया दुनिया भर में मक़बूल और मशहूर हो चुकी थी और भारतीय सिनेमा का गौरव बढा रहा थी| ऑस्कर की दौड़ में शामिल होनेवाली यह  पहली भारतीय सिनेमा थी| महबूब खान ने नारी जीवन पर केंद्रित यह फिल्म अपनी ही बहुत पुरानी सिनेमा औरत (1940) के रीमेक के तौर पर बनायी थी| वे इस फिल्म के बाल कलाकार बिरजू (साज़िद खान) से काफी मुतास्सिर हुए और उसे ही केंद्र में रख कर बनायी महत्वाकांक्षी फिल्म- सन ऑफ इंडिया|  वर्ष 1962 में प्रदर्शित यह फ़िल्म महबूब ख़ान के सिने करियर की अंतिम फ़िल्म साबित हुई। बड़े बजट से बनी यह फ़िल्म टिकट खिड़की की पर बुरी तरह नकार दी गई| हलाकि इसका एक गीत... नन्हा मुन्ना राही हूँ... हमेशा के लिए बच्चों के फौलादी जज़्बों की बयानगी बन गया| अब वे हब्बा खातून पर मबनी अपनी बेहद महत्वाकांक्षी फिल्म पर काम कर रहे थे| मर्मस्पर्शी गीत तथा पदावलियों की रचयिता हब्बा खातून 16वीं सदी की सुप्रसिद्ध लेखिका और कवयित्री थीं| वह कश्मीर  के शासक युसूफशाह की पत्नी थीं। अकबर  ने उन्हें बन्दी बनाकर अपने दरबार में स्थान दिया था।

27 मई 1964 की शाम महबूब अपने कमरे की टेबल पर इस सिनेमा की पट कथा लिख रहे थे| हमेशा की तरह उस दिन भी उनके टेबल पर रेडियो बज रहा था और वे अपना काम भी कर रहे थे| तभी आकाशवाणी से पंडित नेहरु के इंतकाल की खबर प्रसारित हुई| जैसे ही महबूब के कानों तक यह आवाज पहुँची कि उनके हाथ से कलम छूट गयी| आँखें नम हो गयी और दिल रो पड़ा| वे अपनी तनहाई में देर रात तक रोते रहे|  रोते-रोते उनका दिल बैठ गया| सुबह दिल का दौरा पड़ा और वे भी महज़ 57 की उम्र में इस फानी दुनिया से कूच कर गये|

 इस मतलबी दुनिया में इस तरह के वाकयों के नजीर बहुत कम मिले हैं जब एक शख्स ने दूसरे के जाने पर अपनी जान निसार कर दी हो और तब जब उसका खुद के चाहने वालों की तादाद का अंदाजा लगाना मुश्किल हो और उस इंसान से उसका कोई खूनी वास्ता भी न हो| जहाँ पंडित नेहरु विदेश से शिक्षा प्राप्त विद्वान एवं कुशल राजनीतिज्ञ थे वहीं महबूब प्रेम और अनुभव के कबीरी ज्ञान के पंडित थे| दोनों में एक समानता यह थी की वे दोनों ही लिखते थे| हलाकि दोनों का लेखन क्षेत्र अलग अलग जरूर था| एक ओर पंडित जी का लेखन सामाजिक एवं राजनीतिक परिदृश्यों पर केन्द्रित है वहीं महबूब का लेखन रचनात्मक सिनेमा के लिए था| तथापि दोनों ने अपनी अपनी जगह पर भारत की कथा व्यथा कही है जिसमें यथार्थ की जीवंतता भी है और आदर्शवादी व्यवस्था की आकांक्षा भी| वे दोनों ही प्रेम के पुजारी थे| नेहरू जी का तो बच्चों से प्रेम जगज़ाहिर है| एक बार एक सज्जन ने उनसे पूछा- "पंडित जी, आप सत्तर साल के हो गये हैं, लेकिन फिर भी हमेशा बच्चों की तरह तरोताज़ा दिखते हैं, इसका राज क्या है| उनका जवाब था- “पहली बात की मैं प्रकृति प्रेमी हूँ| दूसरी, मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूँ। उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूँ, इससे मैं अपने आपको उनको जैसा ही महसूस करता हूँ। और अधिकांश लोग सदैव छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं किंतु मुझ पर छोटी-छोटी बातों का कोई असर नहीं होता। यह कहकर नेहरू जी बच्चों की तरह खिलखिलाकर हंस पड़े। बकौल महान संगीतकार नौशाद, महबूब खान भी बिलकुल इसी मिजाज़ के आदमी थे| मन के सच्चे और दिल से बच्चे| मानवीय भावनाओं के प्रति अत्यंत संवेदनशील दोनों महापुरुष अपने अपने कार्यों के प्रति लगनशील, कर्मनिष्ठ एवं मेहनती थे| आज इन महान व्यक्तित्वों की स्मृतियों को नमन करते हुए हृदय मेँ एक खामोश प्रतिध्वनि गूंज रही है- ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना|


  



साभार‍जीवन मैग फ़रवरी मार्च २०१४ अंक
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Saturday 17 May 2014

मर्दानगीहरण- संतोष

यह लेख जनसत्ता के "समांतर" में जीवन मग के वेब पता के साथ छपा है...



‘’मर्द के सीने में दर्द नहीं होता’’ इस जुमले को सुना कर न जाने कितने रोते बच्चों को चुप करा दिया गया तो कितनों ने चुपचाप बेवफ़ाई का विष पी लिया|

क्लस्टर इनोवेशन सेंटर में चल रहे प्रोजेक्ट ‘’डीकंस्ट्रक्टिंग मैस्कुलैनिटी’’ के तहत सर्वे के दौरान छात्रों ने पाया की 70 पुरुषों फीसदी का मानना है की मर्द वही जो दूसरों को दर्द दे, जो रोये नहीं रुलाये, जो ताकतवर हो, , जो रूपये कमा कर लाये आदि| यह अत्यंत ही चिंता का विषय है की आधी मानव जाति को अपने होने का मतलब ही स्पष्ट नहीं है| उसके कर्तव्य तथा उसके दायित्य ओझल हो गए हैं|

अगर अपने अतीत में झांके तो आप पाएंगे कि किस तरह परिवार में ही मर्द बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है| छोटे लड़कों को खिलौने के रूप में मोटरसाईंकल, पिस्टल कार, घोडा आदि दिए जाते हैं| वहीँ लड़कियों को गुड़िया-गुड्डे का ब्याह रचाने का खेल सिखाया जाता है| लड़कों को बाहर खेलने जाने की अनुमति होती है परन्तु लड़की तो खेल ही नहीं सकती| गाँवों की स्थिति तो और भी बदतर है| एक ओर जहाँ पुरुष कम वस्त्र  पहन कर पूरे गाँव का चक्कर लगा आते हैं वहीँ महिलाओं के सिर पर पल्लू न होना अल्हड़ता का पर्याय माना जाता है| एक छोटे लड़के को अगर पेशाब आता है तो वह सब के सामने वहीँ खड़े हो कर शुरू हो जाता है वहीँ एक छोटी लड़की भी ऐसा नहीं कर पाती है| आखिर 4-5 साल के लड़के-लड़कियों में यह फर्क कैसे आ जाता है? क्योंकि 5 साल की एक लड़की को यह 5 हजार से अधिक बार कहा जा चुका होता है कि तुम एक लड़की हो तुम्हे ‘यह’ नहीं करना चाहिए, तुम्हे ‘वह’ नहीं करना चाहिए| तुम पैर फैला कर मत बैठो, तुम तुम इतनी आवाज में मत बोलो, इतनी जोर की हँसी एक लड़की को शोभा नहीं देती आदि आदि|


"सीमोन द बउआर’’ लिखती हैं "लड़की पैदा  नहीं होती, बना दी जाती है|’’  माँ-बाप को जब अपने बेटियों पर अधिक लाड आता है तो प्यार से उसे ‘’बेटा जी’’ कह कर पुकारते हैं | उस वक्त नन्ही लड़की के कोमल मन पर क्या गुजरता है वो तो एक लड़की ही समझ सकती है| ये हालात केवल हिन्दुस्तान में ही नहीं है दुनियां के रसूख देशों में भी मिले-जुले हालात हैं| अमेरिका में लड़की व लड़कों के लिए अलग स्टोर होते हैं| लड़कियों का कलर पिंक तथा लड़कों का ब्लू होता है| “मर्दानगी’’ एक असामाजिक तमगा है जो अधिक हिंसक, खूंखार व शासक होने पर दिया जाता है|


एक पुरुष सब कुछ बनना पसंद कर सकता है परन्तु ‘नामर्द’ बनना नहीं| उसके लिए नामर्द सबसे बड़ी गाली होती है| अमेरिका द्वारा बनाया गया इराकी बंधक अल-श्वेरी लिखते हैं - वो हमें बेईज्जत करने की कोशिश कर रहे थे, हमारी इज्जत हमसे छीनने की| हम आदमी हैं, वो चाहें तो हमें पीट ले| पीटने पर हम नहीं टूटते ....वो तो बस एक वार है .....लेकिन कोई भी आदमी अपनी मर्दानगी खोना पसंद नहीं कर सकता|


दुःख तो तब होता है जब मीडिया मर्दानगी को परिभाषित करने लगती है| उत्पाद को बेचने के लिए विज्ञापन के द्वारा दर्शकों को भ्रमित करती है| सेंट, शैम्पू और क्रीम के चमत्कारिक असर दिखाए जाते हैं| आज युवाओं को आत्ममंथन की जरुरत है| पार्टियों में दो पैग अधिक शराब पीना, सिगरेट पीना, ज्यादा से ज्यादा गर्लफ्रेंड बनाना मर्दानगी का सबब बनता जा रहा है| 



क्या महात्मा गाँधी मर्द नहीं थे? स्वामी विवेकानन्द मर्द नहीं थे? अगर मर्द बनना है तो इनकी राह पर चलना चाहिए| हर साल झगड़ा, बलात्कार तथा घरेलु हिंसा के हजारों मामले सामने आते हैं| इसका कारण कहीं न कहीं मर्दानगी से जुड़ा होता है जो हमें गलत तरीके से दिया गया है| हमें मर्दानगी के रुढ एवं गलत अवधारणाओं को मिटाना होगा तथा समाज को जागरूक करना होगा|अतः अब हमें 'मर्दानगी' को पुनः परिभाषित करना होगा|


---संतोष कुमार

'क्लस्टर इनोवेशन सेंटर’ 
दिल्ली विश्वविद्यालय |

(ये लेखक के अपने विचार हैं|)

Thursday 8 May 2014

पागल (लघुकथा)- नंदलाल

उस पागलख़ाने के उन दोनों पागलों का बस एक ही काम था - सुबह से 

शाम तक तकरीबन ढाई सौ गज़ की दूरी पर खड़े दो विशाल पेड़ों के बीच 

परस्पर हाथ में हाथ डाले संजीदे चेहरे से गहरी फिलोसोफ़िकल बातें करते 

हुए चहलकदमी करना| 


एक तीसरा पागल जो उतना गंभीर नहीं था चुपचाप उनका अनुसरण कर 

रहा था |

उस दिन मुझसे रहा ना गया और मैं उनकी गंभीरता को समझने हेतु 


उनदोनों की तरफ़ अनिमेष देखने लगा | तभी तीसरा 

मेरी तरफ इशारा करते हुए बोल पड़ा - क्या देखते हो उन्हें, वे पागल हैं 

पागल | 




नंदलाल मिश्रा

प्रबंध संपादक - जीवन मैग www.jeevanmag.com

कार्यक्रम समन्वयक, डीयू कम्युनिटी रेडियो 

बी.टेक मानविकी (द्वितीय वर्ष),


दिल्ली विश्वविद्यालय









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A series of skype group conversations beetween students from India & Pakistan

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