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    Saturday, 5 November 2016

    मीडिया पर प्रतिबंध: कितना सही, कितना ग़लत -अबुज़ैद अंसारी

    खींचो न कमानों को,  न तलवार निकालो

    जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो


    अकबर इलाहाबादी द्वारा लिखी गई यह पंक्तियाँ अपने आप में क़लम की ताकत को स्पष्ट करती हैं। इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सन्दर्भ से भी देखा जा सकता है। मगर वर्तमान समय में ऐसी परिस्थितियां बन चुकी हैं कि उसको ध्यान में रखते हुए तो यही लगता है कि अब लोगों की आवाज़ को दबाया जा रहा है। हाल ही में सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा एनडीटीवी  पर एक दिन के लिए लगाया गया प्रतिबंध इस बात को स्पष्ट करता है। एनडीटीवी पर आरोप है कि उसने पठानकोट हमले की रिपोर्टिंग में कुछ ऐसी गलतियां की जिसके कारण देश की सामरिक सूचना चैनल के माध्यम से लीक हो गई। मगर प्रश्न यह है कि एनडीटीवी के अलावा और भी टीवी चैनल ने पठानकोट में आतंकी हमले की रिपोर्टिंग की थी फिर सरकार ने उनके ख़िलाफ़ ऐसा कोई क़दम क्यों नहीं उठाया? एनडीटीवी ने स्पष्ट किया कि उसकी रिपोर्टिंग सामान्य और संतुलित थी। अगर ऐसा है तो फिर एनडीटीवी और दूसरे चैनल के मध्य रिपोर्टिंग में वो कौन से अंतर हैं जिसके आधार पर यह प्रतिबंध सिर्फ एनडीटीवी पर ही लगाया गया। अगर एनडीटीवी की दलील गलत है और सरकार का प्रतिबंध सही है तो सरकार को चाहिए कि वो अपना तर्क स्पष्ट करे ताकि इस प्रतिबंध पर उन लोगों को संतुष्टि हो सके जिन्हें इस पर आपत्ति है। अगर रक्षा संबंधी सूचना के लीक होने का मामला सही है तो सरकार का चैनल पर प्रतिबंध लगाना भी शत प्रतिशत सही है।

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    एक  बड़ा प्रश्न यह भी है कि एनडीटीवी ने ऐसी गलती की है तो सरकार को निर्णय लेने में इतनी देर क्यों लग गई? यह प्रतिबंध तो बहुत पहले ही लग जाना चाहिए था क्योंकि पठानकोट घटना तो जनवरी में हुई थी और उसे बीते हुए लगभग दस माह गुज़र चुके हैं।यहाँ बात सिर्फ एक टीवी चैनल का पक्ष लेने या उसके प्रति हमदर्दी और दूसरे चैनल के प्रति घृणा करने की भी नहीं है। बात संपूर्ण मीडिया जगत के लिए है। मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। अगर पत्रकारिता के प्रति देश की सरकार का ऐसा रवैय्या रहा तो वैश्विक स्तर पर भारत की छवि एक धुंधले लोकतांत्रिक देश जैसे हो जाएगी, या फिर कहीं ऐसा न हो कि भारतीय मीडिया को लोग उत्तर कोरिया, बर्मा, सीरिया और सऊदी अरब जैसे देशों की मीडिया में शुमार करने लगें, जहाँ मीडिया एक ज़िंदा लाश है। 

    मीडिया का कर्त्तव्य लोगों तक सूचना, शिक्षा, मनोरंजन पहुँचाने के साथ-साथ समाज की समस्याओं को उजागर करना और लोगों को उनके प्रति जागरूक करना है। मगर परिस्थितियों को देख कर ऐसा लगता है जैसे मीडिया अपने इस कर्त्तव्य को भूल चुका है। वर्तमान समय में भारतीय मीडिया दो पक्षों में विभाजित होता प्रतीत होता है। किसी बात पर एक पक्ष अगर हाँ कहता है तो दूसरा बदले में उस पर नहीं के संकेत देता है। एक चैनल अगर सरकार की किसी विशेष उपलब्धि को लेकर उसका गुणगान करता है तो दूसरा उसी विशेष बात को मुद्दा बना कर उसकी निंदा करे बिना नहीं रह सकता। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में पड़ी ये दरार उसे कमज़ोर बनाती है। अगर ऐसे ही ये दरार गहराती रही तो किसी दिन यह स्तंभ इसी दरार के कारण टूट कर बिखर जाएगा।

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    Abuzaid Ansari

    अबुज़ैद अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया (नई दिल्ली) में जनसंचार मीडिया / पत्रकारिता के छात्र हैं। आप जीवनमैग के सह -संपादक होने के साथ-साथ भारतीय विज्ञान कांग्रेस (कोलकाता), और  नेशनल एसोसिएशन ऑफ़ मीडिया लिटरेसी एंड एजुकेशन (न्यूयॉर्क) के सदस्य हैं। और नवाबों के शहर लखनऊ से ताल्लुक़ रखते हैं।




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