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Tuesday 1 April 2014

बदलते समाज में प्रेम- आशीष सुमन

 
समाज बदल रहा है, लोग बदल रहे हैं खाना-पीना से लेकर रहन-सहन में भी परिवर्तन साफ़ नज़र आ रहा है| कहीं ये बदलाव काफी तेज है तो कहीं क्रमिक, किन्तु देश बदल रहा है| देश अग्रसर है नयी  मंज़िल की ओर जहाँ रूढ़िवादी विचारों की कोई जगह नहीं होगी न ही जगह होगी ऊँच-नीच, छोटे-बड़े और महिला-पुरुष विभेदों की |
हमें अपनी परम्पराओं से सीख लेते हुए नए समाज के निर्माण में अपने विवेक का भी इस्तेमाल करना चाहिए | हम आये दिन देखते-सुनते हैं कि प्रेमी जोड़ों को आग में जला दिया जाता है, तो कभी पीटने से उनकी जान निकल जाती है| आखिर क्या कारण है कि समाज प्रेमिओं को साथ नहीं देखना चाहता| आखिर एक न एक दिन तो उसे शादी के बन्धनों में तो बंधना ही है फिर क्यों हम उन युवाओं की जान लेने पर उतारू हो जाते हैं? क्या उन्होंने कोई गलती की? मैं तो नहीं समझता और न ही हमारे देश का कानून ही इसे गलत समझता है (अगर लड़का 21 साल और लड़की 18 साल से ज्यादा की हो)| आखिर ज़िंदगी तो उन दोनों को ही गुजारनी है फिर हम कौन होते हैं उन्हें परेशान करने वाले, हाँ लोग सलाह दे सकते हैं लेकिन अंतिम फैसला तो उन्हें ही करना चाहिए | कभी हमारा समाज किसी लड़के या लड़की को ऐसे जीवन साथी चुन देता है जिसके साथ ज़िंदगी गुजारना नरक से भी बदतर होता है | हमारे समाज में बहुत सी खामियां हैं जिसे दूर करने की जरूरत है, इससे पहले भी सती प्रथा जैसी कुरीतियाँ थी, आज दहेज़ और जाति प्रथा जैसी चुनौतियां हमारे सामने हैं| ये हमारे समाज को दीमक की तरह खा रही हैं| कितने ही मासूम इनकी भेंट चढ़ जाते हैं| हम इसी देश में राधा-कृष्ण की पूजा करते हैं, नल-दमयंती की प्रेम-गाथा गाते हैं किन्तु कितने ही जोड़ी को तड़पाते भी हैं|
अगर हम प्रेमी जोड़ों के उत्पीडन की बात करते हैं तो खाप पंचायत के बिना बात अधुरी ही रह जायेगी| कभी उनके फरमान आते हैं कि अमुक जोड़े को 20 साल तक गाँव में घुसने की इज़ाज़त नहीं है तो कभी उनका हुक्का पानी बंद कर दिया जाता है| सुप्रीम कोर्ट का भी मानना है की प्रेम विवाह जैसी चीज़ें ही देश को टूटने से बचा रही हैं तथा जाति प्रथा और दहेज़ प्रथा को ख़त्म करने में अहम् भूमिका निभा रही हैं|
हम फिल्मों में तो दो प्रेमी के मिलन को बहुत खुशी से स्वीकार करते हैं किन्तु समाज में इसे होने से रोकते हैं| कोई  खास एक आदमी प्रेम विवाह को बुरा नहीं मानता है बल्कि वह जैसे ही समाज की दृष्टि से देखता है, इसे बुरा समझ बैठता है | प्रेम विवाह करने पर लड़के की जान पर बन आती है कि उसने अमुक गाँव की लड़की की इज्जत पर हाथ रखा है, अरे उसने तो उसके साथ इज्जत के साथ शादी की है, लड़की के मर्जी से शादी की है...आदि आदि| इन खाप पंचायतों को इन मासूमों को प्रतारित करने में तो बहुत मज़ा आता है लेकिन हमने तो अभी तक कभी ये नहीं सुना कि कभी इन्होंने किसी बलात्कारी के खिलाफ कोई फरमान निकाला हो, उसे समाज से बहिस्कृत किया हो| यह क्या समाज के लिए अच्छा है जो आपके मुंह से बोल भी नहीं फूटती| आखिर में मैं यही कहना चाहूँगा की जब पानी किसी जगह पर स्थिर हो जाता है तो बहुत सारी गंदगी भर जाती है और यही बात समाज के सन्दर्भ में भी लागू होता है | सो समाज को समय के हिसाब से सही और गलत में फर्क करते हुए बदलते रहना चाहिए |


--आशीष सुमन   (लेखक क्लस्टर इनोवेसन सेंटर, दिल्ली विश्वविद्यालय में  बी.टेक. मानविकी के छात्र हैं|) 






साभार‍- जीवन मैग फ़रवरी मार्च २०१४ अंक
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