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    Friday, 4 April 2014

    हिन्दी साहित्य के क्लासिक्स‍ २‍- नज़ीर अकबराबादी व सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला"

    देख बहारें होली की…..
    Happy+Holi जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
    और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
    परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
    ख़ूम शीश--जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
    महब़ूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की।

    हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे।
    कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़--अदा के ढंग भरे।
    दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे
    कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे
    कुछ घुंगरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की

    गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
    कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
    मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
    उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
    सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।

    और एक तरफ़ दिल लेने को, महब़ूब भवइयों के लड़के।
    हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के।
    कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के।
    कुछ लचके शोख कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के।
    कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।

    ये ध़ूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो
    उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक़्कड़ हो।
    माज़ून, रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो।
    लड़भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो।
    जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की।

    - नज़ीर अकबराबादी

    [चित्रांकन‍-आशीष सुमन, सह‍-संपादक, जीवन मैग 
    बी.टेक मानविकी(प्रथम वर्ष), संकुल नवप्रवर्तन केन्द्र, दिल्ली विश्वविद्यालय]
    __________________________________




    वर दे, वीणावादिनि वर दे।
     Jai+ma+sharde
    वर दे, वीणावादिनि वर दे!
    प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
    भारत में भर दे!

    काट अंध-उर के बंधन-स्तर
    बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
    कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
    जगमग जग कर दे !

    नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
    नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
    नव नभ के नव विहग-वृंद को
    नव पर, नव स्वर दे!
    वर दे, वीणावादिनि वर दे।
    - सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

    साभार‍- कविता कोश
    जीवन मैग फ़रवरी मार्च २०१४ अंक
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