आज सम्पूर्ण विश्व में जीवन-मूल्यों का ह्वास हो रहा है. सदियों से चली आ रही ग़ैर वाज़िब रुढियों के साथ-साथ स्वीकृत जीवन मूल्यों का भी क्षय हो रहा है. समष्टि हित की स्वहित के सामने अनदेखी की जा रही है. बच्चों में जीवन-मूल्यों की बाल्यकाल से अनदेखी कुसंस्कृत एवं इरादों के कमजोर नागरिक का निर्माण कर रही है जिसे देश की विघटनकारी शक्तियां कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं. आज आम से ख़ास तक में नैतिकता नहीं रह गयी है. अखबारों की सुर्खियाँ ही क्या, सारे के सारे पन्ने इसी बात की तस्दीक करते नज़र आते हैं. देश के शीर्ष स्तर तक इन कमियों से हम रोज दो-चार हो रहे हैं. इन कमियों की एक मुख्य वजह विद्यार्थी जीवन में दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली में इनका संस्कारित होना भी है.
नैतिक शिक्षा से हमारा अभिप्राय जीवन-मूल्यों से है, ऐसे आचरणों से जिन्हें हम अपने प्रति दूसरों के द्वारा किये जाने की कामना करते हैं और उचित समझते हैं. यह व्यक्ति, समष्टि या राष्ट्र की स्मिता एवं उन्नति का आधार होता है. अब तो हम इसे ज्यादा व्यापक रूप में वैश्विक परिदृश्य में देखते हैं.
अब विचार करते हैं की व्यक्ति व समाज में इन मूल्यों का पुनर्पल्लवन हो कैसे? कई साथी शिक्षकों की राय है कि पाठ्यक्रम में पूर्व कि भांति नैतिक शिक्षा को एक विषय के रूप में पढाया जाये. तो क्या एक और विषय बढाकर हम बच्चों के बस्ते का बोझ बढ़ाएं?
यदि हम इस बात में विश्वास करते हैं कि नैतिक कहानियां बच्चों में नैतिक मूल्यों का संवर्धन करेंगी, तो मेरा मानना है कि आर.आई.पी (रीडिंग इम्प्रूवमेंट प्रोग्राम) के तहत सहायक सामग्रियों के चयन (या शासकीय स्तर पर निर्माण) में हम इनका ख्याल रख सकते हैं. विषयों में वृद्धि की जरुरत नहीं है.
हकीक़त यह है कि पाठ्यपुस्तक की प्रत्येक विषयवस्तु में कोई न कोई मूल्य निहित रहता है. यह शिक्षक की सूझ पर निर्भर है कि वह उन मूल्यों के प्रति शिक्षार्थी को प्रसंग-दर-प्रसंग कैसे प्रेरित करता है. बेहतर हो हम बताएं नहीं, महसूस करने का माहौल बनायें. इसके लिए हमें पुस्तक में वर्णित स्थान-विशेष से संदर्भित बिन्दुओं(वांछित मूल्यों) की पहचान करनी होगी. तदुपरांत, पाठ -प्रस्तुति के क्रम में उन जीवनमूल्यों को उभारना होगा. इनके सुढ़ृढ़ीकरण के लिए उदाहरणों का चयन पूर्व की पाठ्यपुस्तकों, स्थानीय समाज या अखबारों में वर्णित समसामयिक घटनाओं से कर सकते हैं. यथा- निःशक्त बच्चों के प्रति दूसरों के दिल से उपेक्षा का भाव हटाने एवं निःशक्त बच्चों में जोश भरने के लिए पैरा-ओलंपिक २०१२ की चर्चा अनुकूल है. बालिकाओं की हौसला-आफज़ाई के लिए 'मैरी कौम' (ओलंपिक कांस्य पदक विजेता और पांच बार की विश्व मुक्केबाजी चैम्पियन) का जिक्र किया जा सकता है. जहाँ दशरथ माझी की गाथा अभिवंचित समूह के बच्चों में आत्मसमान का संचार करती है वहीँ अन्य बच्चों में यह जातीय भेद-भाव की भावना को निर्बल करती है. साथ ही श्रम की महत्ता और इरादों के बुलंदी के महत्व को महसूस कराती है. इसी प्रकार, देशभक्ति की भावना भरने के लिए अनेकानेक घटनाओं को सामाजिक शिक्षा के क्रम में रोमांचक ढंग से परोसने का प्रयास किया जा सकता है. उसे यह भी समझाना होगा कि देशभक्ति महज देश के लिए लड़ाई में शहीद होना नहीं अपितु सरकारी सामानों की सुरक्षा के लिए संवेदनशील होना, समर्थ, समर्पित, संस्कारी एवं स्वाभिमानी नागरिक होना भी है.
'बालकेंद्रित शिक्षा'- इस अल्फाज़ की जाप हमारे प्रशिक्षणों में खूब होती है. परन्तु, हमारे व्यवहार में यह परिलक्षित नहीं हो पा रहा है. विद्यालय में शिक्षण कार्य का आरम्भ चेतना-सत्र से होता है. चेतना-सत्र का सञ्चालन शिक्षार्थी द्वारा किया जाये- यह निर्णय शासन द्वारा वर्षों पूर्व लिया गया था. पर अब भी तक़रीबन सभी विद्यालयों में यह कार्य शिक्षकों द्वारा ही होता है (प्रार्थना गाने के अतिरिक्त). अमूमन आज भी चेतना सत्र सञ्चालन में हम शिक्षकों की मुख्य सहयोगी-संगिनी छड़ी, की भारी भूमिका होती है. हमारे जिले के अनेक विद्यालयों में संविधान की प्रस्तावना का पाठ होता है, कड़ी धुप में भी. इस स्थिति में, शिक्षक स्वयं पेड़, छत या छज्जे की छांव में छुपे होते हैं. कोमल त्वचा वाले नौनिहालों की यह मजाल नहीं की निकल दें अपनी जुबान से ये बात- 'हमें भी धुप लग रही है, सर'! उसे यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है; हाँ, उसे संविधान की प्रस्तावना में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार रटना ज़रूर है. बहुधा संविधान की प्रस्तावना समझाई गयी नहीं होती. यदि समझाई जाये और व्यवहृत न हो, तो ये ज्यादा बुरा है. क्योंकि,इससे हम बच्चों में दोहरे चरित्र की नींव डाल रहे होते हैं कि कथनी-करनी का फर्क हम शिक्षकों से सीखो.
यदि आज हम उसे अभिव्यक्ति कि आजादी दे देते हैं, उसकी भावनाओं का आदर करते हैं; तो यह उसके संस्कार में ढल जायेगा. निश्चित रूप से, वह बड़ा होकर ही नहीं, अभी से ही दूसरों की भावना का आदर करने लगेगा. हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता शिक्षण क्रम में आ रही कठिनाइयों से अवगत होने का अवसर देगी. साथ ही, उसमें रचनात्मकता के विकास की सम्भावना को भी बढ़ाएगी.
हमारे प्रत्येक पाठ्यपुस्तक के 'आमुख पृष्ठ' पर यह बात ढ़ृढ़ता से दर्ज की गयी है कि N.C.F 2005 एवं तदनुरूप B.C.F 2008 , छात्र द्वारा सीखने
का अर्थ रटना नहीं, समझना मानता है, समझे अनुरूप व्यवहार करना मानता है. पर, यह वांछित व्यवहार वह तभी कर सकेगा, जब विद्यालय परिसर में वह ऐसा अनुभूत कर सकेगा. हमें समझना होगा कि-
'शिक्षा का सरोकार, ख़ास कर मूल्य शिक्षा के मामले में स्वीकृत पाठ से अधिक शिक्षण प्रक्रिया से है!'
बच्चा विद्यालय से उम्र की उस अवधि में जुड़ता है जिसे सीखने के लिए सर्वोत्तम माना जाता है. बच्चों के लिए उसकी जिन्दगी में पारिवारिक सदस्यों के बाद बिलकुल अनजान व्यक्ति शिक्षक का प्रवेश होता है. आज भी शिक्षक बच्चों की नजरों में नायक ही होते हैं. परन्तु, जब उनका नायक उनके बीच तम्बाकू खायेगा, धुम्रपान करेगा, तब वे शिक्षक की नक़ल नहीं भी कर पायें, तो कम-से-कम उसकी आस तो पाल ही लेंगे. वह हमारे प्रत्येक व्यवहार को आदर्श मान लेंगे, न की उस आदर्श को जो हम रटाएंगे,पढ़ाएंगे. इस प्रकार, विद्यालय अवधि में जो व्यवहार हमारे द्वारा किया जायेगा, मूल्य शिक्षा के बीजारोपण की कामना हम उसी से करेंगे, न की बताई गयी बात या पठित पाठ से.
आज हमारे सामाजिक शिक्षा का प्रथम उद्देश्य बच्चों में प्रजातान्त्रिक मूल्यों का विकास माना जाता है. परन्तु, क्या प्रजातंत्र की सारी
परिभाषाएं, प्रकार और प्रजातान्त्रिक प्रक्रियाएं बताने व रटाने भर से कभी प्रजातान्त्रिक मूल्यों का विकास हो पायेगा? जबकि हमारे विद्यालय शिक्षा समिति की 'घर-घर घुमाव पंजी बैठकों' को वे जानते हैं. प्रजातान्त्रिक मूल्यों के विकास हेतु केवल प्रजातान्त्रिक प्रक्रिया बताते रहेंगे, तो वो यह याद रखेगा ज़रूर पर समझने व एतदर्थ संस्कार निर्माण की प्रक्रिया तभी प्रारंभ होगी जब हमें वे ऐसा करते देखेंगे. बाल संसद का विद्यालय में गठन हम शिक्षकों के स्वयं की इच्छा से नहीं, पूरी प्रजातान्त्रिक प्रक्रिया का पालन करते हुए करना होगा. प्रत्येक माह उसकी बैठक बच्चों को करने दें, उनमें बहस होने दें और नेतृत्व क्षमता के विकास का अवसर दें. आप बस, संसद के स्पीकर की भूमिका में हों! यदि हम स्वयं से बल-संसद के नेताओं (प्रधानमंत्री आदि) का चयन करेंगे, तो उनमे नेतृत्व क्षमता का विकास ही रूक जायेगा और प्रजातंत्र में चाटुकारिता के बल पर शीर्ष तक सरकने का संस्कार पनपेगा. येन-केन-प्रकरेण पद पर पहुँचने की प्रवृति बढती रहेगी. विचारनीय बिंदु है- 'दोषपूर्ण राजनेता दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति का परिणाम है.'
'झूठ बोलना पाप है'- यह रटाने से बच्चा झूठ बोलना बंद नहीं करेगा. पहले यह विचारें कि झूठ बोलना बच्चा सीखता कहाँ से है और वह क्यों झूठ बोलता है. निश्चय ही बच्चा यह सब अपने परिवार, समाज व विद्यालय परिवेश से सीखता है. बच्चा प्रताड़ना के डर से झूठ बोलता है. असुरक्षा की भावना न केवल उससे झूठ बोलवाती है अपितु उसे आक्रामक भी बनती है. वहीँ, प्रेम व सुरक्षा का माहौल न केवल बच्चे में झूठ बोलने की प्रवृति को दबाएगा, अपितु शिक्षक-शिक्षार्थी संबंधों में मधुरता भी लायेगा. एक-दुसरे में विश्वास बढेगा, सीखने-सिखाने का बेहतर माहौल बनेगा. विषयगत ज्ञान के अतिरिक्त अन्य नैतिक मूल्यों के विकास का बेहतर अवसर मिलेगा. एक बार विश्वास अर्जित कर लेने पर अन्य नैतिक मूल्यों के बीजारोपण हेतु सारे द्वार खुल जायेंगे.
हम हमेशा यह याद रखें की शिक्षक का व्यक्तित्व व व्यवहार बच्चों के लिए आज भी आदर्श है. वे आज भी हमारा अनुकरण करते हैं. अतः हमें अपने को परिवर्धित करते रहना चाहिए. सत्यनिष्ठा,सफाई,सद्भावना व उठने-बैठने के तौर तरीके हमारे व्यवहार से वे सीखते रहते हैं (सप्रयास कम, अनायास ज्यादा). एक मजेदार सच्चाई यह है कि जिस विद्यालय के एक शिक्षक किसी तकिया-कलाम का प्रयोग करते हैं, तो उनके वहां पदस्थापित रहने पर न केवल विद्यालय के बच्चे, बल्कि उस गाँव की बाद की पीढ़ी में भी वह तकिया-कलाम अनायास आजन्म चलता रहता है. सचमुच, शिक्षक संस्कार निर्माण का मुख्य श्रोत होता है.
आज नैतिक शिक्षा नहीं, मूल्य शिक्षा की बात की जाती है. मूल्य शिक्षा में सत्यनिष्ठा, शिष्टाचार के साथ-साथ प्रजातान्त्रिक मूल्यों की समझ, पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदना, देश की बहुरंगी संस्कृति व सांस्कृतिक विरासत के प्रति सम्मान, लैंगिक समानता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आदि कई बातें आती हैं. यदि शिक्षक विद्यालय में सहकर्मियों,ग्रामीणों या बच्चों के साथ बात-चीत में भूत-प्रेत की बातें करे, उसकी बातों में लैंगिक पूर्वाग्रह झलके या ऐसी बातों में अपनी सहमति या मौन-समर्थन प्रदान करे तो फिर उपर्युक्त मूल्य बच्चों में कैसे पनपेंगे? अतः हम अपनी बातों में भी सचेत रहें. स्वच्छ आदतों के लिए स्वयं यत्र-तत्र न थूकें, हमारे नाखून कटे और कपडे साफ़ हों. बातें बहुत हुई, पर यथा साध्य हम अंतर्मन से प्रयास करें, तो बहुतेरे मानवीय मूल्यों के विकास की ओर अग्रसर हो सकते हैं. निष्कर्षतः----
'शिक्षण याददाश्त नहीं व्यवहार का प्रतिफलन है.'
"बच्चों का शिक्षा सम्बन्धी अनुभव उनके मनोवैज्ञानिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है." - वायगाटस्की
आपको यह लेख कैसा लगा.… अपने विचार सीधा लेखक को ईमेल करें- upadhyay.motihari@rediffmail.com पर
|
विजय कुमार उपाध्याय
स्नातक शिक्षक, पूर्वी चंपारण (बिहार)
सलाहकार, जीवनमैग डॉट कॉम | |
| |
|