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कथा‍-कहानी

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अनमोल वचन

Monday, 29 April 2013

नारी- ममता किरण


वह नर पशु निरा समान,
करता नहीं जो सम्मान,
नारी को प्रताड़ित करता,
जग में करता उसका अपमान।
समय बदल गया,
संदर्भ बदल गया,
बदला इनका अभिमान।
अतिशयता की सीमा कर पार,
ये कर रहे हैं दुराचार।
मौन हैं जब तक, बचे हैं तब तक।
तन जायेंगी जिस दिन‍-
ये तन्वियाँ;       
नाश पाप का कर करेंगी,
दुष्ट प्रवृतियों का संहार।
रोक सकेगा इनको‍-
कोई बल,
छल सकेगा इनको-
कोई छल,
बदलेंगी जब ये हवाएँ,
बदलेंगी तब ये मानसिकताएँ।
मुस्कुरा उठेंगी‍-
ये जीवनदायिनी,
जो करती सृष्टि का निर्माण;
निर्माण की जो दुर्गा हैं,
जो इनको निर्मित करती हैं,
क्यों नहीं-
नर करते इनका सम्मान।
ममता किरण 
शोधार्थी (हिन्दी)
बिहार विवि, मुज॰

Monday, 1 April 2013

मुर्ख दिवस का औचित्य- नंदलाल मिश्रा



प्रस्तुति- नंदलाल सुमित

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प्रत्येक वर्ष एक अप्रैल को लगभग आधी से अधिक दुनिया मेँ फूल्स डे यानि
मुर्ख दिवस मनाया जाता है| वेलेँटाइन डे की ही भांति हम इसे सहज ही
पश्चिमी दुनिया की भेँट मान कर हेय दृष्टि से देखते हैँ और फालतू की चीज
समझ बैठे हैँ | यदि हम इसके तह तक जाने की कोशिश करेँ तो पता चलेगा कि यह
हरेक सभ्यता मेँ किसी न किसी रुप मेँ मौजूद है| सामान्यतःइस दिन लोग एक
दूसरे को मजाकिया धोखे देते हैँ, ठगते हैँ, ताने कसते हैँ, चुटकुले कहते
सुनते हैँ और हँसी-मजाक करतेहैँ | भारत मेँ इसका उत्साह सिर्फ बच्चोँ
मेँ दिखता है जबकि इसकी अधिक जरुरत बड़ोँ को है | अच्छा रहेगा कि इस वर्ष
हम इसके औचित्य की पड़ताल करेँ और होली -दिवाली, ईद और क्रिसमस की तरह
अपने जीवन मेँ स्वीकार करेँ|
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दिवस का प्रथम लिखित प्रमाण चाउसर नामक एक यूरोपीय लेखक द्वारा 1392 मेँ
लिखी कहानी 'डनस प्राइस्टस् टेल' मेँ मिलता है | इस कहानी मेँ एक धुर्त
लोमड़ी एक मुर्गे को बुद्धू बनाते हुए अपनी ठगी के जाल मेँ फँसाकर अंत मेँ
सफाचट कर जाता है | लेखक इस घटना के दिन को उलझाकर कुछ यूँ व्यक्त करता
है- यह घटना उस महीने (सायन मार्च) के शुरुआत के 32 दिनोँ के बाद की है
जिसमेँ नये साल की शुरुआत होती है और जिसमेँ भगवान ने पहले इंसान को पैदा
किया था | कुल मिलाकर यह दिन 1 अप्रैल ही निकलता है | वहीँ क्रमशः सन्
1508 एवं 1539 मेँ फ्रेँच और फ्लेमिश कवियोँ इलाय डि अमीरवल तथा एडवर्ड
डि डेन की हास्य कविताओँ मेँ भी इसकी चर्चा मिलती है| मुर्ख दिवस के प्रारंभ
की सर्वाधिक मान्य कहानी भी काफी दिलचस्प है| सन् 1500 से पुर्व नये साल
की शुरुआत 25 मार्च से एक सप्ताह तक जश्न-ए-उत्सव मनाया जाता था जो एक
अप्रैल को बड़े धूम धाम से समाप्त होता था | लेकिन 1500 ईस्वी के बाद
ग्रेगोरियन कलैँडर के प्रचलन मेँ आ जाने से शिक्षित और जानकार लोगोँ ने 1
जनवरी को नव वर्ष उत्सव मनाना शुरु कर दिया | परंतु तब भी यूरोप की एक
बड़ी अनभिज्ञ आबादी मार्च-अप्रैल मेँ ही उत्सव मनाती आरही थी | जब यह
उत्सव एक अप्रैल को अपने अंतको पहुँचता तो जानकार लोग उन्हेँ हकीकत
बताकर उनका मखौल उड़ाते | यह सिलसिला कई वर्षोँ तक जारी रहा और फूल्स डे
नाम से एक उत्सव बन गया | मुर्खदिवस के शुरुआत की कहानियोँ व
इतिहासकारोँ के विचारोँ से निकलता है कि यह नये
साल के आगमन को मनाने का पुराना अंदाज था जो आज नये स्वरुप मेँ विद्यमान
है |

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नये ईरानी साल की शुरुआत के 13वेँ दिन लोग एक दूसरे से हँसी मजाक करते
हुए जश्न मनाते हैँ जिसे वहाँ सिजदाह बेदर कहा जाता है| अंग्रेजी कैलेँडर
से यह 1 या 2 अप्रैल का दिन होता है| लोगोँ का मानना है कि यह परंपरा ईसा
के जन्म के पहले से जारी है| फ्रांस, इटली एवं बेल्जियम मेँ एक अप्रैल को
पेसकी-डि-अप्रिल ­ (अप्रैल फिश) मनाया जाता है| इस दिन लोग एक दूसरे की
पीठ पर मछलीनुमा स्टीकर चिपकाकर हँसी मजाक करते हैँतथा लतीफ़े कहते सुनते
हैँ|
पोलैँड और तुर्की मेँ प्रीमा (एक) अप्रैल जोक्स, हँसी- मजाक एवं मजाकिया
धोखोँ से भरपूर दिन माना जाता है| कभी कभी तो मीडिया भी लोगोँ को ठगती
नजर आती है | स्कॉटलैँड मेँ इस दिन को हंट- दि- गॉउक डे कहा जाता है
| स्वीडन और डेनमार्क मेँ एक मई को मेज़-कैट जोकिँग डे अर्थात मजाकिया दिन
के रुप मेँ मनाने की परंपरा रही है | स्पेन मेँ यह दिन 28दिसंबर को
मनाया जाता है | इसी को रोमन सभ्यता मेँ 15वीँ -16वीँ सदी मेँ फीस्ट ऑफ
फूल्स के रुप मेँ मनाया जाताथा | चीन और अमेरिकी देशोँ मेँ भी मुर्ख
दिवस लंबे समय से एक अप्रैलको मनाया जाता रहा है | यह दिन और उत्सव हमेँ
हँसी मजाक के साथ साथ महान हास्य प्रतिभाओँ को भी स्मरण करने का मौका
प्रदान करती है|
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संयोग से जिस अप्रैल महीने की पहली तारीख को मुर्ख दिवस मनाया जाता है,
उसी महीने की 16 तारीख को महान हास्य कलाकार चार्ली चैप्लिन का भी जन्म
हुआ था | इस अभिनेता फिल्मकार ने अपने जीवन चरित्र एवं सिनेमा के माध्यम
से 'अपने दुखोँ की कीमत पर दूसरोँ को खुश करने' के अनमोल मानवीय सिद्धांत
को स्थापित किया जिसे पूरे विश्व ने सामाजिक ,आर्थिक एवं सांस्कृतिक
विषमता से दूर रहकर एक समानलोकतांत्रिक भाव से स्वीकारकिया |
अपने फिल्मोँ मेँ चार्ली नायक है और जोकर भी | इससे पहले नायक के अपने
उपर हँसने-हँसाने का प्रचलन नहीँ था | उन्होँने हास्य एवं करुणा के
अद्भुत सामंजस्य से नये कला सिद्धांत को जन्म दिया जो पहले के किसी
संस्कृति या साहित्य मेँ नहीँ मिलता है | वह हर 10वेँ सैकेँड मेँ अपने को
संकट मेँ घिरा पाता है, अपने को मुर्ख बनाता है, धोखा खाता है, गिरता
है.... संभलता हैँ... अजीबो-गरीब हरकतेँ करता है और लोग हँस देते हैँ |
वस्तुतः वह एक जोकर है कॉमेडियन नहीँ | जोकर और कॉमेडियन मेँ फर्क है |
जोकर हास्य और करुणा का मिश्रण होता है | उसमेँ रुलाने और हँसाने दोनोँ
की क्षमता होती है ,मगर वह रोता खुद है जबकि औरोँ को हँसाता है | जोकर
बातोँ से कम अपने संकट मेँ घिरे हालात, दयनीय चेहरा और लड़खड़ाते हरकतोँ से
ऐसा करता है | उसकी खुद की हँसी बनावटी होती है| कॉमेडियन इन अर्थोँ मेँ
जोकर से बिल्कुल भिन्न होतेहैँ | बस्टर कीटन चार्ली से बड़ी हास्य
प्रतिभा थे किँतु वे कॉमेडियन अधिक थे जोकर कम ; सो उतने लोकप्रिय और
प्रभावी न हो सके जितने कि चैप्लिन | चार्ली को जिसने भी- जहाँ भी देखा
,उसमेँ 'हम' को पाया | यही वजहहै कि आम आदमी को अक्सर और सहज भाव मेँ ही
चैप्लिन की उपमा दे दी जातीहै क्योँकि हम सभी सुपरमैन नहीँ हो सकते हैँ
| दरअसल मनुष्य स्वयं नियति का विदूषक, क्लाउन या जोकर है |
उनकी व्यापक जन स्वीकृति के कारण ही कभी गांधी और नेहरु ने भी उनका
सानिध्य चाहा था | राजकपूर ने नकल के आरोपोँ की परवाह किये बगैर चैप्लिन
का भारतीयकरण कर डाला | आवारा ,श्री 420 और मेरा नाम जोकर जैसी फिल्मेँ
नायकोँ के अपने पर हँसकर जगको हँसाने के सिद्धांत पर आधारित हैँ |
भारत की संस्कृति मेँ एकमात्र होली का त्योहार ही हमेँ जानबूझ कर स्वयं
को हास्यास्पद बनाने का अवसर प्रदान करती है | संयोग से यह भी मुर्ख दिवस
के आसपास ही मनाया जाता है तथा इसका और भी सहज एवं मुखर रुप है| फिर कैसे
न कहेँ कि मुर्ख दिवस एक विश्वव्यापी उत्सव है| बसंत ऋतु मेँ इसके मनाये
जाने के पीछे कुछ विद्वानोँ का यह भी मत है कि प्रकृति हमेँ शरद-बसंत
परिवर्तन द्वारा मुर्ख बनाती है | सच्चाई जो
भी हो किंतु यह दिन हमेँ इस अशांत तथा तनावग्रस्त संसार मेँ खुद को
हँसने-हँसाने और तरोताजा होने का मौका प्रदान करता है| यह जातीय एवं
मजहबी संकीर्णताओँ से मुक्त उत्सव है जो हमारी लोकतांत्रिक भावनाओँ को और
अधिक बढावा देगा |
बेहतर होगा कि हम चैप्लिन के सिद्धांत के अनुयायी बनेँ; इस दिन दूसरोँ
को चिढ़ाने- बेवकूफ बनाने और धोखा देने की बजाय खुद पर हँस कर जग को
हँसायेँ तथा औरोँ मेँ भी यह माद्दा पैदा करेँ |
फिल्म मेरा नाम जोकर का यह गीत तो आपको याद ही होगा-
अपने पे हँस के जग को हँसाया,
बन के तमाशा मेले मेँ आया ,
हिँदू न मुस्लिम पूरब न पश्चिम ,
मजहब है अपना हँसना हँसाना,
कहता है जोकर सारा ज़माना......
यकीन जानिये,इस लेख मेँ मैँने आपको कहीँ नहीँ ठगा है|

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नंदलाल मिश्रा
(लेखक 12वीँ के छात्र एवं युवा विचारक हैँ )

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A series of skype group conversations beetween students from India & Pakistan

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