एक ही पर्वत से -
निकलती ये कई नदियाँ
उछलती- कूदती- इठलाती
गाती-झूमती बहारोँ मेँ
अलग-अलग
अपनी धाराओँ मेँ -
बहती ये कई नदियाँ
एक ही सागर से -
मिलती ये कई नदियाँ फिर धाराओँ का यह-
भेद कैसा ? यह तो है-
बस कर्तव्य जैसा
संपूर्ण धरा को
एक ही जल से -
सीँचती ये कई नदियाँ |
-नंदलाल मिश्र 'सुमित'
पटसा, समस्तीपुर
सदस्य (संपादन मंडल)
टीम जीवन मैग
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