हाल ही में बर्मा की लोकतंत्र समर्थक
नेता और नोबेल (शांति) विजेता आंग सान सू की ने चीन की राजनीतिक यात्रा की है. चीन
की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी के आमंत्रण पर यह उनकी पहली चीनी यात्रा थी. इस
पाँच दिवसीय (दस से चौदह जून) यात्रा ने वैश्विक मीडिया में खूब सुर्खियाँ बटोरी.
गौरतलब है कि चीनी
राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने सू की से मुलाक़ात करने के लिए प्रोटोकॉल तोड़कर उनका
स्वागत किया. कुछ वर्षों पूर्व तक यही चीन बर्मा में लोकतंत्र के लिए संघर्ष करने
वाली सू की की नज़रबंदी का हिमायती था. वहीं दूसरी ओर चीन में लोकतंत्र के लिए
संघर्ष करने वाले नोबेल (शांति) विजेता लेखक लू श्याबाओ आज भी एक कैदी का जीवन
जीने को बाध्य हैं. उन्हें रिहा करने की पश्चिमी देशों की अपील को चीन बार-बार
ठुकराता रहा है. सू की का बर्मा में वही स्थान रहा है जो चीन में लू का है. जाहिर
है चीन अपने राजनीतिक और सामरिक हितों को साधने के लिए किसी भी वैश्विक विचारधारा
और राजनीतिक हस्ती (सत्ताधारी या गैर-सत्ताधारी) से हाथ मिला सकता है. चीनी अख़बार
ग्लोबल टाइम्स ने अपने संपादकीय में लिखा- “दुनिया इस भ्रम में न रहे कि बर्मा में
लोकतंत्र की स्थापना की पहल से दोनों देशों के रिश्तों में कमी आई है. दोनों देश
पारस्परिक साझेदारी से क्षेत्रीय विकास के लिए प्रतिबद्ध हैं.” दूसरे नज़रिए से
देखें तो पहले से ठीक विपरीत आज चीन औचित्यपूर्ण उदारवादी सोच की ओर अग्रसर हो रहा
है. लेकिन इस पर भरोसा करना असहज है और खासकर भारत के लिए तो मुश्किल भी.
चीन बर्मा में सैन्य शासन का
पुरज़ोर समर्थक रहा है. लेकिन फिलहाल बर्मा की सेमी-सिविलियन सरकार के काल में
दोनों देशों के संबंध कमजोर हुए हैं. जनता के भारी विरोध के बाद थेन सेन सरकार ने
चीन की तीन महत्वाकांक्षी मूलभूत ढांचा विकास परियोजनाओं- लेप्टाडाँग तांबा खदान, मित्सोने पनबिजली बाँध और रक्खिने (बर्मा)- कुनमिंग (चीन) रेलमार्ग विकास
परियोजना को रद्द कर दिया था. जिससे बर्मा में चीनी निवेश पिछले 4 वर्षों में 8 अरब डॉलर (2011 में)
से घट कर महज 50 करोड़ डॉलर (2015 में)
रहा गया है. इससे बर्मा में चीन के बढ़ते प्रभाव को जबरदस्त झटका लगा है. वहीं चीन
बीते चार महीनों से बर्मा सीमा पर कोकांग क्षेत्र में हो रहे जातीय विद्रोह और
पनपते उग्रवाद से भी परेशान है.
सू की से मुलाक़ात में चीनी
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने उन्हें अपने पक्ष में करने की भरसक कोशिश की है.
म्यांमार में इस साल के अंत तक आम चुनाव होने हैं. संभव है, इसमें सू की के नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी को बहुमत प्राप्त हो. चीन इस
संभावित जीत में अभी से ही अपनी संभावनाओं की तलाश कर रहा है. वह बर्मा के लोगों
का विश्वास फिर से हासिल करने के लिए सू की की लोकप्रियता का सहारा लेना चाहता है.
दूसरी तरफ बर्मा में सैन्य
शासन की स्थापना (1962-63) से ही भारत और बर्मा के
रिश्तों में ठहराव आ गया. 1993 के बाद पीवी नरसिंहाराव और
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के प्रयासों से म्यांमार की चीन पर निर्भरता घटी और बाकी
दुनिया से अलगाव भी कम हुआ. वहीं विश्व के सबसे विशाल लोकतंत्र भारत ने कभी सू की
और उनकी पार्टी के लोकतांत्रिक संघर्ष का भी मुखर रूप से समर्थन भी नहीं किया. सू
की का भारत से बस इतना रिश्ता है कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ी हैं. क्या इस
रिश्ते को कूटनीतिक मोड़ नहीं दिया जा सकता?
बीते सप्ताह भारत के
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और विदेश सचिव एस जयशंकर ने म्यांमार की
यात्रा की. यह दौरा भारत के पक्ष में नहीं रहा. बर्मा ने दो टूक शब्दों में भविष्य
में एनएससीएन (नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालैंड) के खिलाफ़ किसी भी सैन्य
अभियान में भारत का सहयोग देने से इनकार कर दिया है. क्या यह इसी महीने हुए भारतीय
सैन्य अभियान पर सरकार द्वारा ढिंढोरा पीटने का परिणाम है? या इसके पीछे बर्मा सरकार की कुछ और मजबूरियां हैं? बर्मा
सरकार का कहना है कि चरमपंथियों के खिलाफ अभियान से उनके देश के भीतरी इलाकों में
घुस आने का डर है. क्या यह सच और वाजिब है?
चीन अभी से ही भावी
लोकतांत्रिक म्यांमार में अपनी संभावनाएं तलाश रहा है. वह बर्मा से हिन्द महासागर
में सीधे प्रवेश का रास्ता ढूंढ रहा है. चीन धीरे-धीरे भारत को पश्चिम में
पाकिस्तान, दक्षिण में श्रीलंका और पूर्व में म्यांमार की
मदद से घेरने की कोशिश में सफल भी हो रहा है. ऐसे में हमें भी शीघ्र ही अपना
रास्ता ढूंढ लेना चाहिए.
नन्दलाल मिश्र जीवन मैग के प्रबंध संपादक हैं। सम्प्रति आप दिल्ली विश्वविद्यालय के संकुल नवप्रवर्तन केन्द्र में मानविकी स्नातक के छात्र तथा दिल्ली विश्वविद्यालय सामुदायिक रेडियो के कार्यक्रम समन्वयक है। आप बिहार के समस्तीपुर से ताल्लुक रखते हैं।
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