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Tuesday, 8 November 2016

नोट में बदलाव क्यों? -अबुज़ैद अंसारी


देश में एक हज़ार और पांच सौ के नोट में बड़ा बदलाव करके भारत सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था में बड़ा बदलाव लाने के लिए महत्वपूर्ण क़दम उठाया है। हर देश की सरकार यही चाहती है कि उसकी अर्थव्यवस्था दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं में गिनी जाये इसलिए सरकार का यह निर्णय इस दिशा में महत्वपूर्ण माना जा सकता है। मगर भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास में ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। इससे पहले छठे दशक में मोरारजी देसाई जब वित्तमंत्री थे तब भी तत्काल सरकार ने कुछ इसी प्रकार के निर्णय लिए थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने इस निर्णय के सकारात्मक पहलुओं को गिनाते हुए देश भर में इसे लागू कर दिया मगर यह फैसला जिस अंदाज में लिया गया उसने देश की जनता के समक्ष बहुत सारे प्रश्न खड़े कर दिए हैं। इस देश का हर नागरिक यहाँ की अर्थव्यवस्था से प्रभावित होता है। और यहाँ की अर्थव्यवस्था देश के हर नागरिक से प्रभावित होती है। इसी कारण यह अपने आप में बहुत अजीब बात है कि ऐसा महत्वपूर्ण निर्णय जो अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ हो और जिसका प्रभाव व्यापक रूप से लोगों पर पड़ने वाला हो, अचानक और इतनी जल्दबाज़ी में कैसे लिया जा सकता है? यह तो बहुत जल्दबाज़ी में लिया गया निर्णय प्रतीत होता है। जिसकी कोई तैयारी नज़र नहीं आती, अगर सरकार इसके लिए तैयार भी है तो देश की जनता बिल्कुल भी तैयार नहीं है। अगर यह निर्णय गोपनीय था इसलिए कि भ्रष्टाचारी और काला धन जमा करने वाले लोग सचेत न हो जाएं तो ऐसे में सरकार का इतना बड़ा निर्णय लेने से पहले गरीबों, मज़दूरों, किसानों और प्रतिदिन कमाकर खाने वालों का एक बार भी ख्याल क्यों नहीं आया? 



प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा कि "यह सरकार गरीबों के प्रति समर्पित है।" अगर सच में यह सरकार गरीबों के प्रति समर्पण की भावना रखती है तो दूसरे विकल्पों के माध्यम से कुछ ऐसे नियम बनाए जा सकते थे जिनसे इस फैसले को लागू करने से पहले गरीब, मज़दूर, किसान जैसे वर्ग आदि को सुविधाएं हो सकती थी। उनका कहना तो ये भी था कि देश का ईमानदार जागरूक नागरिक असुविधा को चुन सकता है। मगर भ्रष्टाचार को नहीं चुनेगा, ऐसी परिस्थितियों में यह ईमानदार जागरूक उस घुन के सामान प्रतीत होता है जिसे ज़बरदस्ती गेहूं के साथ पिसना पड़ रहा है। इस निर्णय को लागू करने के पीछे सरकार का सबसे बड़ा तर्क यह है कि भ्रष्टाचार कम होगा और कालेधन पर शिकंजा कसा जाएगा क्योंकि भ्रष्टाचार और कालेधन में अधिकतर बड़े नोटों का प्रयोग किया जाता है। अगर ऐसा है तो फिर सरकार एक हज़ार की जगह दो हज़ार का नोट क्यों जारी कर रही है? अधिकतर सन्दर्भ से भारत विविधताओं से भरा हुआ देश है। अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में भारत के लिए ये कोई नई बात नहीं है।   असंगठित अर्थव्यवस्था के कारण अभी देश को इस निर्णय पर पूरी तरह से अमल करने में समय लग सकता है। सरकार के इस फैसले से जाली नोट पर रोकथाम लगाई जा सकेगी। जाली नोट की समस्या से हमारा देश शुरू से ही परेशान रहा है। देश के बाहर से तस्करी कर के लाये जाने वाले जाली नोट जब तब बाजार में पकड़े जाते हैं। और इन पर पूर्णरूप से अंकुश लगाना मुश्किल था। मगर सरकार के इस फैसले से जाली नोट की समस्या का जड़ से सफाया होने की सम्भावना है। फिर भी एक समस्या यह खड़ी हो सकती है कि अगर पड़ोसी देश से नए नोट के जारी होने के बाद उसके जाली नोट बाज़ार में आ गए तब मुश्किलें पहले से और अधिक बढ़ सकती हैं क्योंकि हम पुराने नोट से जितनी भलीभांति परिचित है, उतना नए नोट से नहीं होंगे इसलिए नए नोट लागू करने के साथ सरकार को अब नोट की तस्करी के प्रति पहले से अधिक गम्भीर रहना पड़ेगा।

Abuzaid Ansari

अबुज़ैद अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया (नई दिल्ली) में जनसंचार मीडिया / पत्रकारिता के छात्र हैं। आप जीवनमैग के सह -संपादक होने के साथ-साथ भारतीय विज्ञान कांग्रेस (कोलकाता), और  नेशनल एसोसिएशन फॉर मीडिया लिटरेसी एजुकेशन (न्यूयॉर्क) के सदस्य हैं। और नवाबों के शहर लखनऊ से ताल्लुक़ रखते हैं।




Saturday, 5 November 2016

मीडिया पर प्रतिबंध: कितना सही, कितना ग़लत -अबुज़ैद अंसारी

खींचो न कमानों को,  न तलवार निकालो

जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो


अकबर इलाहाबादी द्वारा लिखी गई यह पंक्तियाँ अपने आप में क़लम की ताकत को स्पष्ट करती हैं। इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सन्दर्भ से भी देखा जा सकता है। मगर वर्तमान समय में ऐसी परिस्थितियां बन चुकी हैं कि उसको ध्यान में रखते हुए तो यही लगता है कि अब लोगों की आवाज़ को दबाया जा रहा है। हाल ही में सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा एनडीटीवी  पर एक दिन के लिए लगाया गया प्रतिबंध इस बात को स्पष्ट करता है। एनडीटीवी पर आरोप है कि उसने पठानकोट हमले की रिपोर्टिंग में कुछ ऐसी गलतियां की जिसके कारण देश की सामरिक सूचना चैनल के माध्यम से लीक हो गई। मगर प्रश्न यह है कि एनडीटीवी के अलावा और भी टीवी चैनल ने पठानकोट में आतंकी हमले की रिपोर्टिंग की थी फिर सरकार ने उनके ख़िलाफ़ ऐसा कोई क़दम क्यों नहीं उठाया? एनडीटीवी ने स्पष्ट किया कि उसकी रिपोर्टिंग सामान्य और संतुलित थी। अगर ऐसा है तो फिर एनडीटीवी और दूसरे चैनल के मध्य रिपोर्टिंग में वो कौन से अंतर हैं जिसके आधार पर यह प्रतिबंध सिर्फ एनडीटीवी पर ही लगाया गया। अगर एनडीटीवी की दलील गलत है और सरकार का प्रतिबंध सही है तो सरकार को चाहिए कि वो अपना तर्क स्पष्ट करे ताकि इस प्रतिबंध पर उन लोगों को संतुष्टि हो सके जिन्हें इस पर आपत्ति है। अगर रक्षा संबंधी सूचना के लीक होने का मामला सही है तो सरकार का चैनल पर प्रतिबंध लगाना भी शत प्रतिशत सही है।



एक  बड़ा प्रश्न यह भी है कि एनडीटीवी ने ऐसी गलती की है तो सरकार को निर्णय लेने में इतनी देर क्यों लग गई? यह प्रतिबंध तो बहुत पहले ही लग जाना चाहिए था क्योंकि पठानकोट घटना तो जनवरी में हुई थी और उसे बीते हुए लगभग दस माह गुज़र चुके हैं।यहाँ बात सिर्फ एक टीवी चैनल का पक्ष लेने या उसके प्रति हमदर्दी और दूसरे चैनल के प्रति घृणा करने की भी नहीं है। बात संपूर्ण मीडिया जगत के लिए है। मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। अगर पत्रकारिता के प्रति देश की सरकार का ऐसा रवैय्या रहा तो वैश्विक स्तर पर भारत की छवि एक धुंधले लोकतांत्रिक देश जैसे हो जाएगी, या फिर कहीं ऐसा न हो कि भारतीय मीडिया को लोग उत्तर कोरिया, बर्मा, सीरिया और सऊदी अरब जैसे देशों की मीडिया में शुमार करने लगें, जहाँ मीडिया एक ज़िंदा लाश है। 

मीडिया का कर्त्तव्य लोगों तक सूचना, शिक्षा, मनोरंजन पहुँचाने के साथ-साथ समाज की समस्याओं को उजागर करना और लोगों को उनके प्रति जागरूक करना है। मगर परिस्थितियों को देख कर ऐसा लगता है जैसे मीडिया अपने इस कर्त्तव्य को भूल चुका है। वर्तमान समय में भारतीय मीडिया दो पक्षों में विभाजित होता प्रतीत होता है। किसी बात पर एक पक्ष अगर हाँ कहता है तो दूसरा बदले में उस पर नहीं के संकेत देता है। एक चैनल अगर सरकार की किसी विशेष उपलब्धि को लेकर उसका गुणगान करता है तो दूसरा उसी विशेष बात को मुद्दा बना कर उसकी निंदा करे बिना नहीं रह सकता। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में पड़ी ये दरार उसे कमज़ोर बनाती है। अगर ऐसे ही ये दरार गहराती रही तो किसी दिन यह स्तंभ इसी दरार के कारण टूट कर बिखर जाएगा।

Abuzaid Ansari

अबुज़ैद अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया (नई दिल्ली) में जनसंचार मीडिया / पत्रकारिता के छात्र हैं। आप जीवनमैग के सह -संपादक होने के साथ-साथ भारतीय विज्ञान कांग्रेस (कोलकाता), और  नेशनल एसोसिएशन ऑफ़ मीडिया लिटरेसी एंड एजुकेशन (न्यूयॉर्क) के सदस्य हैं। और नवाबों के शहर लखनऊ से ताल्लुक़ रखते हैं।




Thursday, 3 November 2016

जामिया का सतरंगी स्थापना दिवस -अबुज़ैद अंसारी

हक़ीकत सुर्ख मछली जानती है
समुन्दर कितना बूढ़ा देवता है

जामिया के 96वें स्थापना दिवस के इस ऐतिहासिक अवसर पर बशीर बद्र की लिखी ये पंक्तियां साकार होती नज़र आती हैं। अगर समुन्दर की तुलना जामिया से की जाये तो स्वाभाविक है कि सुर्ख मछलियां यहाँ के विद्यार्थी ही होंगे। विद्यार्थियों से बेहतर इसकी हक़ीकत और कौन समझ सकता है? इस विश्वविद्यालय का लालन-पालन देश के महान नेताओं, विचारकों, समाज सुधारकों और साहित्यकारों द्वारा हुआ है। यह ज्ञान का वो सागर है जिसमे जो जितनी गहरी डुबकी लगाना चाहे लगा सकता है। इसकी गहराई अनंत है। इस अनंत गहरे सागर से समय-समय पर बहुमूल्य मणियाँ निकलती रही हैं।

जामिया का स्थापना दिवस महज़ औपचारिक कार्यक्रम नहीं है। यह वह समय है जब यहाँ के विद्यार्थी बेफ़िक्री से मौज-मस्ती करने के लिए आज़ाद होते हैं। यूँ तो वे हर दिन आज़ाद होते हैं और हर दिन क़ैद भी, मगर इस आज़ादी की भावना स्थापना दिवस के उत्सव रंग से रंगी हुई होती है। स्थापना दिवस पर तालीमी मेले में क़दम रखते ही ऐसा प्रतीत होता है जैसे पूरा जामिया सिमट कर एक मैदान में समा गया हो। एक तरफ से चलना शुरू करें तो दो-तीन क़दम चलते ही नए विभाग का स्टाल नज़र आता है। कहने और दिखने में मात्र स्टाल ही हैं। मगर आपके पास हट कर देखने का दृष्टिकोण है तो इन स्टालों पर सम्बंधित विभागों की मुख्य विशेषताओं की झलक दिखाई देने लगती है। तालीमी मेले का सबसे बड़ा सकारात्मक पहलू यह है कि यहाँ आने वाले दर्शक सभी विभागों की मुख्य-मुख्य विशेषताओं से परिचित होते हैं। मज़े की बात यह है कि हर साल तालीमी मेले में हर विभाग के पास कुछ ना कुछ अलग और नया देखने को मिलता है। जैसे-जैसे दिन ढलता जाता है और शाम क़रीब आती है तो लोगों की चहल-पहल और बढ़ जाती है।
AJKMCRC GATE

अक्टूबर के अंत की इन तीन ठंडी शामों में जामिया बड़ी गर्मजोशी से कार्यक्रमों में आने वाले अथितियों का स्वागत करता है। स्थापना दिवस की शाम अनेक रंगों से रंगी होती है। या यूँ कहेँ कि सतरंगी होती है। यह रंग आम दिनों में देखने को नहीं मिलती, दोपहर संगीत और क़व्वाली के रंग में डूबी हुई तो अगले पहर यह नृत्य के रंग में रंगी हुई। शाम ढलते-ढलते इस पर ग़ज़ल का रंग चढ़ जाता है। और जब ग़ज़ल का रंग जामिया के वातावरण में मिल जाये तो शायराना ख़ुश्बू की महक तो आनी लाज़मी ही है।

यह सत्य है कि ज्ञान को जितना बांटों उतना बढ़ता जाता है और धन बांटने से घट जाता है। इसे हम ज्ञान का मंदिर कहें या ज्ञान का सागर मगर एक बात ज्ञान बांटने के सन्दर्भ में समझ आती है कि कहने को तो यह 96वें वर्ष का प्रौढ़ जामिया है। मगर यह प्रौढ़ नाममात्र कहने को है। छात्रों की गतिविधियों को देखते हुए और आधुनिकता से सामंजस्य बिठाते हुए जामिया हरदम युवा लगता है। यह हर वर्ष अपने स्थापना दिवस पर नया हो जाता है। नई आशाएं, नए विचार, और नई ऊर्जा के साथ भर उठते हैं।

नोट:- (मूल रूप से जामिया समाचार पत्र में प्रकाशित अबुज़ैद अंसारी द्वारा लिखित यह लेख दिनांक 29 अक्टूबर 2016 के संपादकीय पृष्ठ से लिया गया है।)


Abuzaid Ansari

अबुज़ैद अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया (नई दिल्ली) में जनसंचार मीडिया / पत्रकारिता के छात्र हैं। आप जीवनमैग के सह -संपादक हैं, और नवाबों के शहर लखनऊ से ताल्लुक़ रखते हैं। 

A series of skype group conversations beetween students from India & Pakistan

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