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कि हमने " सचिन " को देखा था
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आने वाली नस्लें, रश्क करेंगी हम-अश्रों,
कि हमने "
सचिन
" को
देखा
था
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ये
उनको
आप
कहने
का
नतीजा
निकला
वो तुम से तू तक चले आये हैं आजकल
||
तेरे
शहर
में
मय
में
भी
नहीं
होता
,
जो नशा मेरे शहर के पानी में हैं ||
तुझसे मिलने की एक धुंधली सही उम्मीद मुझे है |
इसी चराग के दम पर तो शब्-ए-ज़िन्दगी कटती है||
तुझसे मिलने की तमन्ना लिए दिल में अपने,
तेरे शहर में हर बार आता हूँ, चला जाता हूँ |
(राघवेन्द्र त्रिपाठी "राघव" क्लस्टर
इन्नोवेशन सेंटर, दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र हैं। आपकी उर्दू साहित्य में गहरी
अभिरुचि है।)
जीवन मैग जनवरी 2014 अंक से उद्धृत- मूल अंक यहाँ से डाउनलोड करें - https://ia600505.us.archive.org/7/items/JeevanMag4/Jeevan%20Mag%204.pdf