कि हमने " सचिन " को देखा था |
आने वाली नस्लें, रश्क करेंगी हम-अश्रों,
कि हमने "
सचिन
" को
देखा
था
||
ये
उनको
आप
कहने
का
नतीजा
निकला
वो तुम से तू तक चले आये हैं आजकल ||
वो तुम से तू तक चले आये हैं आजकल ||
तेरे
शहर
में
मय
में
भी
नहीं
होता
,
जो नशा मेरे शहर के पानी में हैं ||
जो नशा मेरे शहर के पानी में हैं ||
इसी चराग के दम पर तो शब्-ए-ज़िन्दगी कटती है||
तुझसे मिलने की तमन्ना लिए दिल में अपने,
तेरे शहर में हर बार आता हूँ, चला जाता हूँ |
तेरे शहर में हर बार आता हूँ, चला जाता हूँ |
(राघवेन्द्र त्रिपाठी "राघव" क्लस्टर
इन्नोवेशन सेंटर, दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र हैं। आपकी उर्दू साहित्य में गहरी
अभिरुचि है।)
Irshad...irshad
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