इस स्तंभ मेँ
हम प्रस्तुत करते
हैँ ‘जीवन मग’
के सदस्य लेखकोँ
के डायरी से
चुने बेहतरीन पन्ने।
पहली कड़ी मेँ
पेश है नहीँ
के बराबर डायरी
लिखने वाले नंदलाल
की फटी पुरानी
डायरी से यह
दुर्लभ पन्ना....
14 जनवरी 2012
वे कहते हैँ 'गर सुबह का भूला शाम को घर लौट आये तो भूला नहीँ कहलाता'....सोचता हूँ लौट आया हूँ। ख़ैर हूँ भी तो एक भटका हुआ मुसाफिर ही....न घर है न ठिकाना....बस अपनी आवारगी मेँ है चलते जाना...। सफलता-विफलता तो जीवन के अनिवार्य पहलू हैँ...हार एक सच्चे जीत की राह तय करती है। बस हमेँ हिम्मत नहीँ हारनी चाहिए..... डर कर कभी नौका पार नहीँ होती, कोशिश करने वालोँ की हार नहीँ होती। नेपथ्य से एक प्रेरणात्मक प्रवाह एक पुकार लिए आती है... पाकर जीवन मेँ पहली विफलता पथ भूल न जाना पथिक कहीँ।
जीवन मग पर लौटते हुए सत्यम शिवम सुन्दरम् के साथ एक असीम साहस की आत्मानुभुति होती है। इसे तराश कर सही और सटीक दिशा मेँ मोड़ दिया जाए तो सफलता दूर नहीँ रह जाती है । फ़ैज़ के अल्फाज़ों मेँ- ऐ दिल ! ये फ़कत तो एक घड़ी है हिम्मत कर, जीने को उम्र पड़ी है। वे कहा करते थे - सफलता और ऊँचाई हासिल करना आसान है किंतु इसे बनाये रखना बेहद कठिन । मालूम है पतन उसी का होता है जिसका उत्थान , इसलिए ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ.... मेरे प्रभु ! वो ऊँचाई कभी मत देना कि गैरोँ को गले लगा न सकूँ ये रुखाई कभी मत देना ।
जीवन की कठिन राह मेँ सुख-दुख , अमृत-विष , सवेरा-अँधेरा , सफलता-विफलता , राग-विराग तथा आशा-निराशा सब कुछ है । एक के बिना भी जीवन सूना है । बकौल गुप्त जी-
नर हो, न निराश करो मन को,
कुछ काम करो, कुछ काम करो,
जग मेँ रहकर कुछ नाम करो!
यह सब सोच साहस का एक कदम आगे बढाता हूँ कि यकायक दिलोदिमाग मेँ एक मर्मभेदी आहट सी होती है..... मुझसे मिलने को कौन विकल,मैँ होऊँ किसके हित चंचल. यह प्रश्न शिथिल करता पद को भरता उर मेँ विह्वलता है....अकेलेपन का यह एहसास, सदा से साथ निभाने की आकांक्षा को रेत के घरौँदे की तरह ढहा देता है....अकेला हूँ मैँ.... किंतु मैँने सुना है 'दुनिया मेँ नहीँ जिसका कोई उसका खुदा है'....गर वो भी मुकर जाये तो कम से कम मेरा 'अकेलापन' तो सदा सर्वदा मेरे संग है … रवीँद्रनाथ की मर्मस्पर्शी प्रेरणा है -एकला चलो रे....सो तय है अब चलना पड़ेगा...नीर ढलता भला और साधु चलता भला।
नंदलाल मिश्रा
(लेखक जीवन मैग के प्रबंध संपादक हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय में बी.टेक मानविकी- प्रथम वर्ष के छात्र हैं.)
जीवन मैग जनवरी 2014 अंक से उद्धृत- मूल अंक यहाँ से डाउनलोड करें - https://ia600505.us.archive.org/7/items/JeevanMag4/Jeevan%20Mag%204.pdf
14 जनवरी 2012
वे कहते हैँ 'गर सुबह का भूला शाम को घर लौट आये तो भूला नहीँ कहलाता'....सोचता हूँ लौट आया हूँ। ख़ैर हूँ भी तो एक भटका हुआ मुसाफिर ही....न घर है न ठिकाना....बस अपनी आवारगी मेँ है चलते जाना...। सफलता-विफलता तो जीवन के अनिवार्य पहलू हैँ...हार एक सच्चे जीत की राह तय करती है। बस हमेँ हिम्मत नहीँ हारनी चाहिए..... डर कर कभी नौका पार नहीँ होती, कोशिश करने वालोँ की हार नहीँ होती। नेपथ्य से एक प्रेरणात्मक प्रवाह एक पुकार लिए आती है... पाकर जीवन मेँ पहली विफलता पथ भूल न जाना पथिक कहीँ।
जीवन मग पर लौटते हुए सत्यम शिवम सुन्दरम् के साथ एक असीम साहस की आत्मानुभुति होती है। इसे तराश कर सही और सटीक दिशा मेँ मोड़ दिया जाए तो सफलता दूर नहीँ रह जाती है । फ़ैज़ के अल्फाज़ों मेँ- ऐ दिल ! ये फ़कत तो एक घड़ी है हिम्मत कर, जीने को उम्र पड़ी है। वे कहा करते थे - सफलता और ऊँचाई हासिल करना आसान है किंतु इसे बनाये रखना बेहद कठिन । मालूम है पतन उसी का होता है जिसका उत्थान , इसलिए ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ.... मेरे प्रभु ! वो ऊँचाई कभी मत देना कि गैरोँ को गले लगा न सकूँ ये रुखाई कभी मत देना ।
जीवन की कठिन राह मेँ सुख-दुख , अमृत-विष , सवेरा-अँधेरा , सफलता-विफलता , राग-विराग तथा आशा-निराशा सब कुछ है । एक के बिना भी जीवन सूना है । बकौल गुप्त जी-
नर हो, न निराश करो मन को,
कुछ काम करो, कुछ काम करो,
जग मेँ रहकर कुछ नाम करो!
यह सब सोच साहस का एक कदम आगे बढाता हूँ कि यकायक दिलोदिमाग मेँ एक मर्मभेदी आहट सी होती है..... मुझसे मिलने को कौन विकल,मैँ होऊँ किसके हित चंचल. यह प्रश्न शिथिल करता पद को भरता उर मेँ विह्वलता है....अकेलेपन का यह एहसास, सदा से साथ निभाने की आकांक्षा को रेत के घरौँदे की तरह ढहा देता है....अकेला हूँ मैँ.... किंतु मैँने सुना है 'दुनिया मेँ नहीँ जिसका कोई उसका खुदा है'....गर वो भी मुकर जाये तो कम से कम मेरा 'अकेलापन' तो सदा सर्वदा मेरे संग है … रवीँद्रनाथ की मर्मस्पर्शी प्रेरणा है -एकला चलो रे....सो तय है अब चलना पड़ेगा...नीर ढलता भला और साधु चलता भला।
रुक जाना नहीँ
तू ज़िंदगी से
हार के काँटोँ पे
चल के मिलेँगेँ
साये बहार के। चलते-चलते लबों
पर ये तराना
उतर आता है....तदबीर से बिगड़ी
हुई तकदीर बना
ले, अपने पे
भरोसा है तो
ये दाँव लगा
ले....ये दाँव
आगामी ज़िंदगी का ही
दाँव है ... सोच
लिया है- लगा
लूँगा...पक्का ! जब नाव
जल मेँ छोड़
दी, तूफान ही
मेँ मोड़ दी,
दे दी चुनौती
सिंधु को, फिर पार
क्या मँझधार क्या।
सोचता हूँ......नदी के मध्य मेँ पहुँच कर लौटने से बेहतर है कि आगे का ही सफर जारी रखा जाए.....
नंदलाल मिश्रा
(लेखक जीवन मैग के प्रबंध संपादक हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय में बी.टेक मानविकी- प्रथम वर्ष के छात्र हैं.)
जीवन मैग जनवरी 2014 अंक से उद्धृत- मूल अंक यहाँ से डाउनलोड करें - https://ia600505.us.archive.org/7/items/JeevanMag4/Jeevan%20Mag%204.pdf
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