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अनमोल वचन

Thursday, 29 October 2015

खिलौने देकर बहलाने की कोशिश!

सोचिए तो हंसी आती है कि देश के असाधारण साहित्यकारों एवं लेखकों को कितनी आसानी से तमन्नाओं में उलझाने और खिलौने दे कर बहलाने की कोशिश की जा रही है । साहित्यकारों के साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने और पद छोड़ने की प्रक्रिया से परेशान होकर अकादमी ने 23 अक्टूबर 2015 को अपने कार्यकारी मंडल की आपातकालीन मीटिंग बुलाई थी, इस मीटिंग में प्रोफेसर एमएम कलबुर्गी की हत्या की निंदा करने के बाद बड़ी सादगी से पुरस्कार लौटाने और पद छोड़ने वाले साहित्यकारों से अपील की गई कि वह अपने पुरस्कार वापस ले लें और अपने पदों पर आकर फिर से काम शुरू करें । 

चार घंटे चली इस बैठक में जो प्रस्ताव पारित हुआ उसमें एमएम कलबुगी के अलावा किसी और पीड़ित का नाम नहीं लिया गया । अकादमी ने केवल एक लाइन में यह कहकर दामन बचाने की कोशिश की कि "जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जी रहे नागरिकों में हो रही हिंसा की भी वह(साहित्य अकादमी) कड़े से कड़े शब्दों में निंदा करती है"।
यह प्रस्ताव एक दो लेखकों को खुश तो कर सकता है परन्तु देश के ज्यादातर विद्वानों एवं साहित्यकारों का दिल नहीं जीत सकता । अबतक 40 से ज्यादा साहित्यकारों ने अपने पुरस्कार लौटाए और पद त्याग दिए हैं । और चूँकि अवार्ड लौटना साहित्यकारों का कोई सामूहिक फैसला नहीं था, इसलिए उन मे से हर एक की उत्तेजनाएं अलग अलग थीं ।
एमएम कलबुर्गी की हत्या 30 सितम्बर को हुई, तबसे अखलाक की हत्या तक 6से 8 के बीच लेखकों ने पुरस्कार वापस किए थे । फिर 28 अक्टूबर को दादरी में अख्लाक की हत्या की गई । इस हिंसा के बाद लेखकों में अवार्ड वापस करने की होड़ सी मच गई ।अतः यह कहना उचित होगा कि कलबुर्गीजी की हत्या से सम्मान लौटाकर विरोध करने की प्रक्रिया शुरू हुई थी, परन्तु इस प्रक्रिया में तूफ़ान अखलाक की हत्या के बाद आया । नयनतारा सहगल का साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटना एक तूफ़ान की आरंभ था । और सहगल ने पुरस्कार लौटाने के बाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ खान-पान एवं पूजा-पाठ की स्वतंत्रता की वकालत की थी । इन्हीं मूल अधिकारों को लेकर बड़ी संख्या में साहित्यकरों ने विरोध प्रकट किया ।
इस सन्दर्भ में देखें तो अकादमी द्वारा पारित प्रस्ताव अधूरा मालूम होता है । प्रस्ताव में सम्पूर्ण साहित्यकारों की मंशा एवं उनके मांगों का आधा ख्याल रखा गया है । कई साहित्यकारों की उत्तेजनाओं का प्रस्ताव में ज़िक्र ही नहीं आया । इस बारे में नयनतारा सहगल का बयान आया है:" साहित्य अकादमी का जवाब देर से आया है. और प्रस्ताव देश के बड़े मुद्दों को जगह देने में नाकाम रहा है. प्रस्ताव में व्यक्ति के स्वतंत्रतापूर्वक खान-पान और पूजा-पाठ करने के मामलों एवं अधिकारों को भी शामिल किया जाना चाहिए था".हाँ ! प्रस्ताव में एक जगह समाज के विभिन्न समुदायों से एकता और समरसता बनाए रखने की गुज़ारिश की गई है.किन्तु सहगल इन दुर्घटनाओं के लिए समुदाय को ज़िम्मेदार नहीं मानती हैं । उन्हों ने कहा :" मेरे विचार में यह सही नहीं है. कोई समुदाय चिंता का कारण नहीं बन रहा है. बल्कि तथाकथित हिंदुत्व विचारधाराओं के मानने वाले बीजेपी और कुछ छोटे दलों के अराजक तत्व लोगों पर हमला कर रहे हैं " ।
प्रस्ताव में इतनी सारी कमियों के बावजूद अकादमी ने साहित्यकारों से पुरस्कार एवं पद वापस लेने की अपील की है । प्रश्न उठता है कि अकादमी के इस निवेदन पर साहित्यकारों की प्रक्रिया क्या होगी?क्या साहित्यकारों का आक्रोश केवल एक एमएम कलबुर्गी की हत्या से जुड़ा हुआ था? साहित्य अकादमी द्वारा कलबुर्गी के क़त्ल की निंदा और हत्यारों के खिलाफ कार्रवाही की मांग अवार्ड लौटाने वाले साहित्यकारों की आखिरी मंजिल साबित होगी? उत्तर मालूम है नहीं । उनकी मांगें सीमित नहीं थी । उनके इस विरोध में उन घट्नाओं का भी बड़ा योगदान था जिनका ज़िक्र प्रस्ताव में नहीं किया गया । इस के बावजूद साहित्य अकादमी साहित्यकारों को किस मुंह से अवार्ड वापस लेने की बात कह रही है । उसके आचरण को देखकर अहमद फ़राज़ की लाइन याद आती है ।
"अपनी आशुफ्ता मेज़ाजी पे हंसी आती है''
मेरी राय है कि साहित्य अकादमी फिलहाल साहित्यकारों को पुरस्कार वापस देनें की चिंता छोड़ कर उनकी मांगों पर ध्यान केन्द्रित करे । सम्पूर्ण लेखकों की मांगों को प्रस्ताव में शामिल करे और उन्हें पूरा करने के लिए सरकार पर दबाव बनाए । 


हसन अकरम जामिया मिल्लिया इस्लामिया के उर्दू विभाग के छात्र हैं।

Monday, 12 October 2015

एक कसक दिल की दिल में दबी रह गई... -हसन अकरम

आज से चार पांच वर्ष पहले जब एक मित्र ने मुझे यह बताया था, कि जावेद इकबाल जीवित हैं तो मुझे यक़ीन नहीं आया था मैंने उससे कई बार प्रश्न किया था:"किया वही जवेद इकबाल' जो शायर-ए-मशरिक़ के पुत्र हैं ? जावेद इकबाल के नाम से मुझे वह घड़ी याद आ गई जब छठी कक्षा में कमर-ए-आलम सर ने इकबाल की एक कविता जिसका शीर्षक "जावेद के नाम " है' सुनाई थीऔर इसकी पृष्ठभूमि बताते हुए कहा था कि यह कविता अल्लामा इकबाल ने अपने इसी पुत्र जावेद इकबाल के लिए लिखी थी। 






इस याद के साथ जब मैंने जावेद इकबाल के जिंदा होने की बात सुनी तो दिल में एक हुल्बुलाहट सी होने लगी मेरा दिल कहने लगा मुझे उस हस्ती से अवश्य मिलना चाहिए तब मैंने सोचा था, कि मैं जावेद इकबाल से ज़रूर मुलाक़ात करूंगा मैं उस हस्ती से मिलूँगा जिसके शरीर में इकबाल का लहू दौड़ता है मैं उस व्यक्ति से मिलूँगा जिसे इकबाल ने अपनी कोशिशों के द्वारा महानता के इकबाल तक पहुँचाया था मैं उससे मिलकर उन हाथों को चूम लूँगा, जिन पर शायर-ए-मशरिक़ के स्पर्श मौजूद हैंमेरी आँखों को उस बेटे का दीदार हो जाएगा जिससे इकबाल की यादें जुड़ी हैं किन्तु यह सब सोचने के कुछ ही छणों बाद मुझे एहसास हुआ था, कि 62 साल पूर्व के बटवारे में इकबाल पाकिस्तान के हिस्से में चले गए थे, इसलिए आज भी उनका परिवार पाकिस्तान में निवास करता है अतः जावेद इकबाल से मिलने के लिए मुझे संयुक्त विरासतें रखने वाली भूमि के बीच खड़ी की गई सीमा को पार करना होगा एवं इसको पार करने के लिए मुझे पासपोर्ट और वीजा प्राप्त करने होंगे, जिसका खर्च सहन करने की क्षमता मुझ में नहीं थीतब फिर मैंने सोचा था कि जब मैं अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊंगा और कुछ धन इकट्ठा करलूँगा तो पासपोर्ट एवं वीज़ा प्राप्त करके अपने महबूब जावेद इकबाल से मिलने जाऊंगा परन्तु मेरे इस कल्पना के पूरा होने का प्रकृति ने इंतजार नहीं किया.और इसी 3 अगस्त को उनके देहान्त के साथ ही मेरा सपना अधूरा रह गया




हसन अकरम

उर्दू विभाग,जामिया मिलिया इस्लामिया

Friday, 9 October 2015

शरद ऋतु का आगमन (फ़ीचर) -अबुज़ैद अंसारी

अक्टूबर माह की शुरुआत हो गई, दिन एक - एक कर के गुज़र रहा है, साथ ही मौसम करवटें ले रहा है। अब शाम दूसरी ऋतुओं की तुलना में जल्दी होती है। रात के आखरी पहर में हल्की - हल्की ठंडक चादर ओढ़ने और पंखा बंद करने पर मजबूर करती है। मौसम के आने की इस आहट से लगता है कि अब अधिक दिन नहीं बचे शरद ऋतू के आने में, हर प्रकार के मौसम में अलग ही आकर्षण होता है चाहे सर्दी हो या गर्मी या बसंत या बरसात सब अपने आप में सुन्दर, आकर्षण और बहुत ही अलौकिक हैं जो इस धरती पर फैली समस्त प्राकृतिक को खुद में समेट कर अपने रंग में रंगने में सक्षम हैं। सर्दियों के मौसम आते ही तापमान घट जाता है, लोगों की वेशभूषा बदल जाती है, वहीं गर्मी की चिलचिलाती धूप गुनगुनी और आनंदमय लगने लगती है। ओंस की बूंदे पेड़ - पौधों के पत्तों पर बिखर कर मोतियों सी प्रतीत होती हैं। दूर कहीं ऊंचे -ऊंचे पर्वत बर्फ की मोटी-मोटी परतों से ढक कर भोर में सूर्य की किरणों से चाँदी की तरह चमकते हैं।


Photo credit: adirondack-park.net
मैदानी इलाक़ों में फैले बड़े - बड़े मैदान जो ज़मीन को आसमान से मिलाने की क्षमता रखते हैं उनका क्षितिज भी धुंध से धुंधला पड़ जाता है। मगर उन मैदानों पर गेंहूँ की बालियाँ सूर्य प्रकाश में सोने सी चमकती हैं। प्रवासी पक्षियों का आवागमन शुरू हो जाता है, वन हो या छोटा या बाग़, हमें अलग अलग प्रकार की पक्षियों के देखने और उनकी सुरीली ध्वनि सुनने का अच्छा अवसर मिलता है। प्राकर्तिक के आँगन में शरद मौसम की इस बहार से सुंदरता और भी बढ़ जाती है। गुलाब, गुलदाउदी, नरगिस ना जाने कितने अलग - अलग प्रकार के पुष्प दूर दूर तक अपना साम्राज्य स्थापित कर लेते हैं। शरद ऋतु की सामाजिक और धार्मिक महत्वता प्राकर्तिक महत्वता से कम नहीं है। यही तो वह मौसम है जिसमे व्रत उपवास, त्यौहार, तीर्थ, पूजा, समाहित है। यह ख़ुशी उल्लास और उमंग का मौसम है। जहाँ इस मौसम में ख़रीफ़ की कटाई होती है वही दूसरी ओर दिन रात काम करने वाला देश का अन्नदाता किसान रबी की फ़सल बोने की तैयारी करता है। वाणिज्य और व्यापार के लिए सबसे अनुकूल मौसम, अधिकतर विवाह भी इसी मौसम में होते हैं इस प्रकार से शुभ आयोजन, स्वच्छता आदि से इस मौसम का गहरा संबंध है। इस तरह शरद ऋतु अपने सौंदर्य के साथ श्रृंगार करने में सक्षम है। इसके आगमन से प्रकृति का मिजाज़ तो बदलता ही है , हमारे अपने रीति - रिवाज, संस्कार, पहनावा रहन - सहन में भी कई महत्वपूर्ण बदलाव आ जाते हैं।

-अबुज़ैद अंसारी

अबुज़ैद अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया (नई दिल्ली) जनसंचार मीडिया / पत्रकारिता के छात्र हैं। आप जीवनमैग के सह -संपादक हैं, और नवाबों के शहर लखनऊ से ताल्लुक़ रखते हैं। 




A series of skype group conversations beetween students from India & Pakistan

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