सोचिए तो हंसी आती है कि देश के असाधारण साहित्यकारों एवं लेखकों को
कितनी आसानी से तमन्नाओं में उलझाने और खिलौने दे कर बहलाने की कोशिश की जा
रही है । साहित्यकारों के साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने और पद छोड़ने की
प्रक्रिया से परेशान होकर अकादमी ने 23 अक्टूबर 2015 को अपने कार्यकारी
मंडल की आपातकालीन मीटिंग बुलाई थी, इस मीटिंग में प्रोफेसर एमएम कलबुर्गी
की हत्या की निंदा करने के बाद बड़ी सादगी से पुरस्कार लौटाने और पद छोड़ने
वाले साहित्यकारों से अपील की गई कि वह अपने पुरस्कार वापस ले लें और अपने
पदों पर आकर फिर से काम शुरू करें ।
चार घंटे चली इस बैठक में जो प्रस्ताव पारित हुआ उसमें एमएम कलबुगी के अलावा किसी और पीड़ित का नाम नहीं लिया गया । अकादमी ने केवल एक लाइन में यह कहकर दामन बचाने की कोशिश की कि "जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जी रहे नागरिकों में हो रही हिंसा की भी वह(साहित्य अकादमी) कड़े से कड़े शब्दों में निंदा करती है"।
यह प्रस्ताव एक दो लेखकों को खुश तो कर सकता है परन्तु देश के ज्यादातर विद्वानों एवं साहित्यकारों का दिल नहीं जीत सकता । अबतक 40 से ज्यादा साहित्यकारों ने अपने पुरस्कार लौटाए और पद त्याग दिए हैं । और चूँकि अवार्ड लौटना साहित्यकारों का कोई सामूहिक फैसला नहीं था, इसलिए उन मे से हर एक की उत्तेजनाएं अलग अलग थीं ।
एमएम कलबुर्गी की हत्या 30 सितम्बर को हुई, तबसे अखलाक की हत्या तक 6से 8 के बीच लेखकों ने पुरस्कार वापस किए थे । फिर 28 अक्टूबर को दादरी में अख्लाक की हत्या की गई । इस हिंसा के बाद लेखकों में अवार्ड वापस करने की होड़ सी मच गई ।अतः यह कहना उचित होगा कि कलबुर्गीजी की हत्या से सम्मान लौटाकर विरोध करने की प्रक्रिया शुरू हुई थी, परन्तु इस प्रक्रिया में तूफ़ान अखलाक की हत्या के बाद आया । नयनतारा सहगल का साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटना एक तूफ़ान की आरंभ था । और सहगल ने पुरस्कार लौटाने के बाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ खान-पान एवं पूजा-पाठ की स्वतंत्रता की वकालत की थी । इन्हीं मूल अधिकारों को लेकर बड़ी संख्या में साहित्यकरों ने विरोध प्रकट किया ।
इस सन्दर्भ में देखें तो अकादमी द्वारा पारित प्रस्ताव अधूरा मालूम होता है । प्रस्ताव में सम्पूर्ण साहित्यकारों की मंशा एवं उनके मांगों का आधा ख्याल रखा गया है । कई साहित्यकारों की उत्तेजनाओं का प्रस्ताव में ज़िक्र ही नहीं आया । इस बारे में नयनतारा सहगल का बयान आया है:" साहित्य अकादमी का जवाब देर से आया है. और प्रस्ताव देश के बड़े मुद्दों को जगह देने में नाकाम रहा है. प्रस्ताव में व्यक्ति के स्वतंत्रतापूर्वक खान-पान और पूजा-पाठ करने के मामलों एवं अधिकारों को भी शामिल किया जाना चाहिए था".हाँ ! प्रस्ताव में एक जगह समाज के विभिन्न समुदायों से एकता और समरसता बनाए रखने की गुज़ारिश की गई है.किन्तु सहगल इन दुर्घटनाओं के लिए समुदाय को ज़िम्मेदार नहीं मानती हैं । उन्हों ने कहा :" मेरे विचार में यह सही नहीं है. कोई समुदाय चिंता का कारण नहीं बन रहा है. बल्कि तथाकथित हिंदुत्व विचारधाराओं के मानने वाले बीजेपी और कुछ छोटे दलों के अराजक तत्व लोगों पर हमला कर रहे हैं " ।
प्रस्ताव में इतनी सारी कमियों के बावजूद अकादमी ने साहित्यकारों से पुरस्कार एवं पद वापस लेने की अपील की है । प्रश्न उठता है कि अकादमी के इस निवेदन पर साहित्यकारों की प्रक्रिया क्या होगी?क्या साहित्यकारों का आक्रोश केवल एक एमएम कलबुर्गी की हत्या से जुड़ा हुआ था? साहित्य अकादमी द्वारा कलबुर्गी के क़त्ल की निंदा और हत्यारों के खिलाफ कार्रवाही की मांग अवार्ड लौटाने वाले साहित्यकारों की आखिरी मंजिल साबित होगी? उत्तर मालूम है नहीं । उनकी मांगें सीमित नहीं थी । उनके इस विरोध में उन घट्नाओं का भी बड़ा योगदान था जिनका ज़िक्र प्रस्ताव में नहीं किया गया । इस के बावजूद साहित्य अकादमी साहित्यकारों को किस मुंह से अवार्ड वापस लेने की बात कह रही है । उसके आचरण को देखकर अहमद फ़राज़ की लाइन याद आती है ।
"अपनी आशुफ्ता मेज़ाजी पे हंसी आती है''
मेरी राय है कि साहित्य अकादमी फिलहाल साहित्यकारों को पुरस्कार वापस देनें की चिंता छोड़ कर उनकी मांगों पर ध्यान केन्द्रित करे । सम्पूर्ण लेखकों की मांगों को प्रस्ताव में शामिल करे और उन्हें पूरा करने के लिए सरकार पर दबाव बनाए ।
चार घंटे चली इस बैठक में जो प्रस्ताव पारित हुआ उसमें एमएम कलबुगी के अलावा किसी और पीड़ित का नाम नहीं लिया गया । अकादमी ने केवल एक लाइन में यह कहकर दामन बचाने की कोशिश की कि "जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जी रहे नागरिकों में हो रही हिंसा की भी वह(साहित्य अकादमी) कड़े से कड़े शब्दों में निंदा करती है"।
यह प्रस्ताव एक दो लेखकों को खुश तो कर सकता है परन्तु देश के ज्यादातर विद्वानों एवं साहित्यकारों का दिल नहीं जीत सकता । अबतक 40 से ज्यादा साहित्यकारों ने अपने पुरस्कार लौटाए और पद त्याग दिए हैं । और चूँकि अवार्ड लौटना साहित्यकारों का कोई सामूहिक फैसला नहीं था, इसलिए उन मे से हर एक की उत्तेजनाएं अलग अलग थीं ।
एमएम कलबुर्गी की हत्या 30 सितम्बर को हुई, तबसे अखलाक की हत्या तक 6से 8 के बीच लेखकों ने पुरस्कार वापस किए थे । फिर 28 अक्टूबर को दादरी में अख्लाक की हत्या की गई । इस हिंसा के बाद लेखकों में अवार्ड वापस करने की होड़ सी मच गई ।अतः यह कहना उचित होगा कि कलबुर्गीजी की हत्या से सम्मान लौटाकर विरोध करने की प्रक्रिया शुरू हुई थी, परन्तु इस प्रक्रिया में तूफ़ान अखलाक की हत्या के बाद आया । नयनतारा सहगल का साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटना एक तूफ़ान की आरंभ था । और सहगल ने पुरस्कार लौटाने के बाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ खान-पान एवं पूजा-पाठ की स्वतंत्रता की वकालत की थी । इन्हीं मूल अधिकारों को लेकर बड़ी संख्या में साहित्यकरों ने विरोध प्रकट किया ।
इस सन्दर्भ में देखें तो अकादमी द्वारा पारित प्रस्ताव अधूरा मालूम होता है । प्रस्ताव में सम्पूर्ण साहित्यकारों की मंशा एवं उनके मांगों का आधा ख्याल रखा गया है । कई साहित्यकारों की उत्तेजनाओं का प्रस्ताव में ज़िक्र ही नहीं आया । इस बारे में नयनतारा सहगल का बयान आया है:" साहित्य अकादमी का जवाब देर से आया है. और प्रस्ताव देश के बड़े मुद्दों को जगह देने में नाकाम रहा है. प्रस्ताव में व्यक्ति के स्वतंत्रतापूर्वक खान-पान और पूजा-पाठ करने के मामलों एवं अधिकारों को भी शामिल किया जाना चाहिए था".हाँ ! प्रस्ताव में एक जगह समाज के विभिन्न समुदायों से एकता और समरसता बनाए रखने की गुज़ारिश की गई है.किन्तु सहगल इन दुर्घटनाओं के लिए समुदाय को ज़िम्मेदार नहीं मानती हैं । उन्हों ने कहा :" मेरे विचार में यह सही नहीं है. कोई समुदाय चिंता का कारण नहीं बन रहा है. बल्कि तथाकथित हिंदुत्व विचारधाराओं के मानने वाले बीजेपी और कुछ छोटे दलों के अराजक तत्व लोगों पर हमला कर रहे हैं " ।
प्रस्ताव में इतनी सारी कमियों के बावजूद अकादमी ने साहित्यकारों से पुरस्कार एवं पद वापस लेने की अपील की है । प्रश्न उठता है कि अकादमी के इस निवेदन पर साहित्यकारों की प्रक्रिया क्या होगी?क्या साहित्यकारों का आक्रोश केवल एक एमएम कलबुर्गी की हत्या से जुड़ा हुआ था? साहित्य अकादमी द्वारा कलबुर्गी के क़त्ल की निंदा और हत्यारों के खिलाफ कार्रवाही की मांग अवार्ड लौटाने वाले साहित्यकारों की आखिरी मंजिल साबित होगी? उत्तर मालूम है नहीं । उनकी मांगें सीमित नहीं थी । उनके इस विरोध में उन घट्नाओं का भी बड़ा योगदान था जिनका ज़िक्र प्रस्ताव में नहीं किया गया । इस के बावजूद साहित्य अकादमी साहित्यकारों को किस मुंह से अवार्ड वापस लेने की बात कह रही है । उसके आचरण को देखकर अहमद फ़राज़ की लाइन याद आती है ।
"अपनी आशुफ्ता मेज़ाजी पे हंसी आती है''
मेरी राय है कि साहित्य अकादमी फिलहाल साहित्यकारों को पुरस्कार वापस देनें की चिंता छोड़ कर उनकी मांगों पर ध्यान केन्द्रित करे । सम्पूर्ण लेखकों की मांगों को प्रस्ताव में शामिल करे और उन्हें पूरा करने के लिए सरकार पर दबाव बनाए ।
हसन अकरम जामिया मिल्लिया इस्लामिया के उर्दू विभाग के छात्र हैं। |