न सर पे ताज-ए-फज़ीलत न शान बाक़ी है
कहूँ मैं किससे कि मुझमे भी जान बाक़ी है
किसी भी हाल में मंज़िल से दिल नहीं बहला
अभी निगाह में शायद उड़ान बाक़ी है
पड़ा जो वक़्त तो तिनके को तीर कर लूँगा
अभी तो हाथ में मेरे कमान बाक़ी है
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बहुत ग़ुरूर है तुझको खला नवर्दी पर
नज़र उठा के अभी आसमान बाक़ी है
बचा के हिस्से का अपने सफ़र में रखता हूँ
मैं जानता हूँ मेरी दास्तान बाक़ी है
दिए हैं ज़ख्म बहुत तूने बारहा लेकिन
ऐ जिंदगी तेरा अब भी लगान बाक़ी है
-ज़ुहैबुद्दीन चौधरी
ज़ुहैबुद्दीन चौधरी
शिक्षक, हिंदी विभाग
जामिया मिलिया इस्लामिया (नई दिल्ली)
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