- विजय कुमार उपाध्याय, राजकीय मध्य विद्यालय, सेमरा (पूर्वी चम्पारण), बिहार |
आज सम्पूर्ण विश्व में जीवन-मूल्यों का ह्वास हो रहा है. सदियों से चली आ रही ग़ैर वाज़िब रुढियों के साथ-साथ स्वीकृत जीवन मूल्यों का भी क्षय हो रहा है. समष्टि हित की स्वहित के सामने अनदेखी की जा रही है. बच्चों में जीवन-मूल्यों की बाल्यकाल से अनदेखी कुसंस्कृत एवं इरादों के कमजोर नागरिक का निर्माण कर रही है जिसे देश की विघटनकारी शक्तियां कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं. आज आम से ख़ास तक में नैतिकता नहीं रह गयी है. अखबारों की सुर्खियाँ ही क्या, सारे के सारे पन्ने इसी बात की तस्दीक करते नज़र आते हैं. देश के शीर्ष स्तर तक इन कमियों से हम रोज दो-चार हो रहे हैं. इन कमियों की एक मुख्य वजह विद्यार्थी जीवन में दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली में इनका संस्कारित होना भी है.
नैतिक शिक्षा से हमारा अभिप्राय जीवन-मूल्यों से है, ऐसे आचरणों से जिन्हें हम अपने प्रति दूसरों के द्वारा किये जाने की कामना करते हैं और उचित समझते हैं. यह व्यक्ति, समष्टि या राष्ट्र की स्मिता एवं उन्नति का आधार होता है. अब तो हम इसे ज्यादा व्यापक रूप में वैश्विक परिदृश्य में देखते हैं.
अब विचार करते हैं की व्यक्ति व समाज में इन मूल्यों का पुनर्पल्लवन हो कैसे? कई साथी शिक्षकों की राय है कि पाठ्यक्रम में पूर्व कि भांति नैतिक शिक्षा को एक विषय के रूप में पढाया जाये. तो क्या एक और विषय बढाकर हम बच्चों के बस्ते का बोझ बढ़ाएं?
यदि हम इस बात में विश्वास करते हैं कि नैतिक कहानियां बच्चों में नैतिक मूल्यों का संवर्धन करेंगी, तो मेरा मानना है कि आर.आई.पी (रीडिंग इम्प्रूवमेंट प्रोग्राम) के तहत सहायक सामग्रियों के चयन (या शासकीय स्तर पर निर्माण) में हम इनका ख्याल रख सकते हैं. विषयों में वृद्धि की जरुरत नहीं है.
नैतिक शिक्षा से हमारा अभिप्राय जीवन-मूल्यों से है, ऐसे आचरणों से जिन्हें हम अपने प्रति दूसरों के द्वारा किये जाने की कामना करते हैं और उचित समझते हैं. यह व्यक्ति, समष्टि या राष्ट्र की स्मिता एवं उन्नति का आधार होता है. अब तो हम इसे ज्यादा व्यापक रूप में वैश्विक परिदृश्य में देखते हैं.
अब विचार करते हैं की व्यक्ति व समाज में इन मूल्यों का पुनर्पल्लवन हो कैसे? कई साथी शिक्षकों की राय है कि पाठ्यक्रम में पूर्व कि भांति नैतिक शिक्षा को एक विषय के रूप में पढाया जाये. तो क्या एक और विषय बढाकर हम बच्चों के बस्ते का बोझ बढ़ाएं?
यदि हम इस बात में विश्वास करते हैं कि नैतिक कहानियां बच्चों में नैतिक मूल्यों का संवर्धन करेंगी, तो मेरा मानना है कि आर.आई.पी (रीडिंग इम्प्रूवमेंट प्रोग्राम) के तहत सहायक सामग्रियों के चयन (या शासकीय स्तर पर निर्माण) में हम इनका ख्याल रख सकते हैं. विषयों में वृद्धि की जरुरत नहीं है.
हकीक़त यह है कि पाठ्यपुस्तक की प्रत्येक विषयवस्तु में कोई न कोई मूल्य निहित रहता है. यह शिक्षक की सूझ पर निर्भर है कि वह उन मूल्यों के प्रति शिक्षार्थी को प्रसंग-दर-प्रसंग कैसे प्रेरित करता है. बेहतर हो हम बताएं नहीं, महसूस करने का माहौल बनायें. इसके लिए हमें पुस्तक में वर्णित स्थान-विशेष से संदर्भित बिन्दुओं(वांछित मूल्यों) की पहचान करनी होगी. तदुपरांत, पाठ -प्रस्तुति के क्रम में उन जीवनमूल्यों को उभारना होगा. इनके सुढ़ृढ़ीकरण के लिए उदाहरणों का चयन पूर्व की पाठ्यपुस्तकों, स्थानीय समाज या अखबारों में वर्णित समसामयिक घटनाओं से कर सकते हैं. यथा- निःशक्त बच्चों के प्रति दूसरों के दिल से उपेक्षा का भाव हटाने एवं निःशक्त बच्चों में जोश भरने के लिए पैरा-ओलंपिक २०१२ की चर्चा अनुकूल है. बालिकाओं की हौसला-आफज़ाई के लिए 'मैरी कौम' (ओलंपिक कांस्य पदक विजेता और पांच बार की विश्व मुक्केबाजी चैम्पियन) का जिक्र किया जा सकता है. जहाँ दशरथ माझी की गाथा अभिवंचित समूह के बच्चों में आत्मसमान का संचार करती है वहीँ अन्य बच्चों में यह जातीय भेद-भाव की भावना को निर्बल करती है. साथ ही श्रम की महत्ता और इरादों के बुलंदी के महत्व को महसूस कराती है. इसी प्रकार, देशभक्ति की भावना भरने के लिए अनेकानेक घटनाओं को सामाजिक शिक्षा के क्रम में रोमांचक ढंग से परोसने का प्रयास किया जा सकता है. उसे यह भी समझाना होगा कि देशभक्ति महज देश के लिए लड़ाई में शहीद होना नहीं अपितु सरकारी सामानों की सुरक्षा के लिए संवेदनशील होना, समर्थ, समर्पित, संस्कारी एवं स्वाभिमानी नागरिक होना भी है.
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