वर्षों पहले कवि रहीम कह गए- ‘रहिमन पानी राखिये,
बिन पानी सब सून/ पानी गये न ऊबरे मोती मानुष चून’. हाल ही में संयुक्त
राष्ट्र द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर वैश्विक स्तर पर नीतिगत
बदलाव नहीं किए गये, तो 2030 में दुनिया की जरूरत का सिर्फ 60 फीसदी पानी उपलब्ध होगा. विश्व
जल संकट को देखते हुए भारत सरकार राष्ट्रीय जल नीति बनाने को लेकर गंभीर हुई है.
इसी के तहत एक संसदीय समिति देश भ्रमण कर जल संसाधनों का अध्ययन कर रही है. इससे
पूर्व पिछली सरकार ने साल 2013 को जल संरक्षण वर्ष घोषित
किया था. वहीं, वैश्विक
स्तर पर जल संसाधन के बढ़ते हुए अनियमित दोहन एवं प्रदूषण, घटती मात्रा एवं गुणवत्ता और बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग एवं सुखाड़
की आशंका के मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र द्वारा
प्रतिवर्ष 22 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय जल
दिवस के रुप में मनाया जाता है. लेकिन कुछ वैश्विक सम्मेलनों
एवं समझौतों के अतिरिक्त कोई अन्य क्रांतिकारी परिणाम सामने नहीं आया है.
ज्ञात ब्रह्मांड में पृथ्वी ही जीवन से
संपन्न एक मात्र ग्रह है क्योंकि यहाँ जल है. धरती के कुल पानी का केवल 2.7%
ही मानव उपयोगी है, उसका भी दो तिहाई हिस्सा हिमानी और ध्रुवीय बर्फ के रुप में जमा है. विश्व में स्वच्छ पानी की मात्रा लगातार गिर रही हैं, और जैसे जैसे विश्व जनसंख्या में अभूतपूर्व दर से वृद्धि हो रही हैं, निकट भविष्य में इस असंतुलन का अनुभव बढ़ने की उम्मीद है. किसी ने कहा है यदि समय पर जल का दुरुपयोग रोका न गया तो अगला विश्व युद्ध पानी
के लिए ही लड़ा जायेगा.
प्राचीन यूनान के आयोनियन शहर के निवासी, उस समय के दार्शनिक एवं वैज्ञानिक मिलेटस के थेलीज़ (636-546 ई.पू.) ने कहा था- “यह पानी ही है, जो विचित्र रूपों में धरती, आकाश, नदियों, पर्वत, देवता और मनुष्य, पशु और पक्षी, घास-पात, पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं से लेकर
कीड़े-मकोड़ों तक में मौजूद है. इसलिए पानी पर चिंतन करो.” लेकिन हम सिर्फ
इसका दोहन करते रहे. और यह भूल गये कि हमने ये
संसाधन अपने पूर्वजों से विरासत की बजाय अपनी भावी पीढ़ियों से ऋण में लिए
हैं. नतीजतन, आज पारिस्थीतिकीय जलचक्र का संतुलन बिगड़
चुका है. ऐसा अनुमान है कि 2030 तक विश्व की आधी आबादी जलसंकट से
दो चार हो रही होगी जिसमें समूचा भारत भी शामिल होगा.
गौरतलब है कि भारत में विश्व का मात्र 4% जल है जबकि संसार की 18% आबादी यहाँ बसती है. देश की कई नदियाँ अब सदानीरा नहीं रही, गंगा जैसी विशाल और धारावाही नदियों का पानी प्रदूषित हो चुका है. उत्तरी
मैदानी इलाके में भी मई के अंत तक आते-आते ताल तलैये सूख जाते हैं और चापाकल पानी छोड़ देते हैं. स्वच्छ पेयजल अब नदारद है. विषैला पानी नाना
प्रकार के नए-नए रोग उत्पन्न कर रहा है. भारत, जिसकी अर्थव्यवस्था
आज भी कृषिप्रधान है, में मानसून भी अनियमित हो चला है. फसलों के सुखाड़ से त्रस्त किसान आत्महत्या के लिए विवश हैं.
परिणाम अभी भी उतने भयावह नहीं हैं
जितने कि अगले कुछ वर्षों में दिखने वाले हैं. इसलिए सरकार को इस दिशा में सतर्क होने की जरूरत है. उसे कुछ ऐसी महत्वाकांक्षी योजनाएँ व नीतियां शुरू करनी होंगी
जिससे जल संरक्षण को बढ़ावा मिले. यथा शहरीकरण एवं औद्योगीकरण से होने वाले जल प्रदूषण पर नियंत्रण पाना, नदियों का संरक्षण, वनों की कटाई पर रोक लगाकर
वृक्षारोपण को बढ़ावा देना, गंदे पानी के शोधन तथा समुद्री जल के उपयोग हेतु वैज्ञानिक शोध और तकनीक को प्रोत्साहन
देना, जल की अनुचित बर्बादी रोकने हेतु जन
जागरुकता फैलाना आदि.
हाँ, अकेले सरकार चाहकर भी इस
दिशा में बहुत कुछ नहीं कर सकती है. इसके लिए देश के प्रत्येक नागरिक
को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी.
अंत में, मानवता और राष्ट्र के हित में
देश के सभी नागरिकों, युवाओं, बुद्धिजीवियों और विशेष रूप से शिक्षकों व छात्रों से निवेदन
है कि वे भी एक एक बूँद जल बचाने का संकल्प
लें और समाज में जल के संरक्षण और सदुपयोग पर
जन जागरूकता फैलाएँ. आप सब जीवन में कम से कम
पाँच पेड़ जरूर लगायें. याद रहे, जल
है तो जीवन है.
नन्दलाल मिश्र जीवन मैग के प्रबंध संपादक हैं। सम्प्रति आप दिल्ली विश्वविद्यालय के संकुल नवप्रवर्तन केन्द्र में मानविकी स्नातक के छात्र तथा दिल्ली विश्वविद्यालय सामुदायिक रेडियो के कार्यक्रम समन्वयक है। आप बिहार के समस्तीपुर से ताल्लुक रखते हैं।
"जल ही जीवन है"
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आपका लेख अच्छा लगा, शुभकामनाये !
थैंक्स