आत्मा और परमात्मा का एकीकरण ही मुक्ति है. मुक्ति दो प्रकार से संभव है. या
आत्मा परमात्मा में लीन हो जाए या आत्मा में परमात्मा ही समाहित हो जाए. पहली
प्रक्रिया ‘प्रेम’ है. प्रेम से ममत्व भाव और अधिकार बोध उत्पन्न होता है. आत्मा
का अहं विराट रूप ग्रहण कर अपने ममत्व में परमात्मा को समेट लेती है. दूसरी भक्ति
है. भक्ति में आत्मा स्वयं के अहं का क्षय कर परमात्मा में विलीन हो जाती है. प्रेम में विशालता है, उदारता है. भक्ति में समर्पण और त्याग है.
सेवा दोनों का ही मूल भाव है. एकाकार होने तक की प्रक्रिया जीवन है. प्रेम और
भक्ति ‘सत्य’ रुपी मार्ग के दो पगडंडी हैं.
‘विकार’ मुक्ति-प्रक्रिया
में विघ्न डालता है. वह सत्य के मार्ग से भटका देता है. सत्य का मार्ग मुक्ति का
सबसे लघु मार्ग है. भटकने से विलंब की विशालता बढ़ती है. मनुष्य मुक्ति के लक्ष्य
से निरंतर दूर होता जाता है. किन्तु विकार है क्या? घृणा, असहिष्णुता, स्वार्थ, वासना, लोभ, हिंसा, क्रोध इत्यादि विकार के अनेक रूप हैं.
विकारों का कार्य-परिणाम ‘पाप’ है तो विकार मुक्त कर्मों का परिणाम ‘पुण्य’. पुण्य
हेतु किया गया कार्य ‘धर्म’ और पाप फलदायी कर्म ‘अधर्म’ है.
विकार मनुष्य को
असत्य के मार्ग पर ले जाता है. असत्य के असंख्य मार्ग हो सकते हैं. सत्य का केवल
एक ही मार्ग संभव है. किसी सत्य का वैकल्पिक प्रकटीकरण असंभव है. विकारों के
संसर्ग से मनुष्य में दुर्बलता उत्पन्न होती है. किन्तु दुर्बलता की पकड़ दुर्बल
नहीं होती है. जो एक बार इस डोर से बंध जाए लाख यत्न कर नहीं निकल पाता. ‘योग’ इन
विकारों से मुक्ति की युक्ति है. और सबल, जो विकारों से मुक्त मनुष्य है वही सबल है. और सबल को ही
मुक्ति अर्थात अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है.
नन्दलाल मिश्र जीवन मैग के प्रबंध संपादक हैं। सम्प्रति आप दिल्ली विश्वविद्यालय के संकुल नवप्रवर्तन केन्द्र में मानविकी स्नातक के छात्र तथा दिल्ली विश्वविद्यालय सामुदायिक रेडियो के कार्यक्रम समन्वयक है। आप बिहार के समस्तीपुर से ताल्लुक रखते हैं।
Very Importance Article In Life Very Very Thanks
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