सर्दी का महीना था और शाम का समय. दादा जी चादर ओढ़े आग के पास कुर्सी पर बैठे
थे. आकाशवाणी से समाचार ख़त्म होते ही चारों तरफ से बच्चों की मंडली आ धमकी. सोनू,
मोनू, मिठ्ठू, लालबाबू, टिंकू, रिंकी और अंजलि. सभी ने उन्हें घेर लिया और रोज की
तरह कहानी सुनाने की जिद करने लगे.
आज भी पहले उन्होंने सबसे दिन भर की पढ़ाई-लिखाई का हाल पूछा और फिर कुछ देर तक
चुप रहने के बाद कहानी सुनाने लगे. “सुनो बच्चों, आज मैं तुम्हें एक बहुत पुरानी कहानी सुनाता हूँ- बहुत पहले की बात है. मगध
प्रान्त में पटसा नाम का एक गाँव हुआ करता था. गांव के बीचोबीच एक बड़ा कुआँ था. समय
के साथ अब वह गांव का अकेला ऐसा कुआँ था जिसका पानी साफ़ और उपयोगी रह गया था.
इसलिए उसी कुएँ के पानी से पूरे गाँव का खाना-पानी, नहाना-धोना सब चलता था. दिनभर
वहां पानी भरनेवालों की भीड़ लगी रहती थी. लेकिन उस कुएँ का अहाता बहुत कम ऊँचा था इसलिए
लोगों को गिरने का डर भी लगा रहता था.
“फिर क्या हुआ दादा जी”, अंजलि को बीच-बीच में यह प्रश्न दोहराते रहने की आदत थी.
कहानी शुरू नहीं होती कि वह अंत जानने को आतुर हो उठती थी. बाकी बच्चे चुपचाप सुन
रहे थे.
“फिर एक अमावस की अँधेरी रात जब पूरा गाँव गहरी नींद सो रहा था एक बूढ़ा भैंसा
उस कुएँ में जा गिरा.”
“क्यों वह अंधा था ?” मिट्ठू हँसते हुए बोला. बाकी बच्चे भी खिलखिला कर हंस
पड़े. लेकिन अंजलि उदास होकर बोली- “फिर क्या हुआ ?”
“हाँ वह अंधा था” दादाजी ने कहानी आगे बढ़ाई- “फिर सुबह होते ही जैसे ही लोग
पानी भरने आये कुएँ में भैंसा को देख उनमें खलबली मच गयी. यह बात समूचे गांव में आग
की तरह फैल गयी. सभी को यह चिंता सताने लगी कि अब वे पानी कहाँ से लायेंगे. हाँ,
इससे पहले कि तुम लोग गंभीर चिंतन करने लगो, मैं बता दूँ कि उस समय चापाकल का आविष्कार
नहीं हुआ था और पानी का प्रमुख स्रोत तालाब या कुआं ही होता था.”
“गाँव के लगभग सभी बड़े बूढ़े कुएँ के पास आ जमा हुए और भैंसा को बाहर निकालने
की तरकीब ढूंढ़ने लगे. बड़ी और मोटी रस्सियाँ, मजबूत बांस के खंभे और विशाल लकड़ी के
लट्ठे इकट्ठे किए गए. दूर दूर से नामी-गिरामी पहलवान बुलाये गए. सभी ने मिलकर
भैंसा को रस्सी से बाँधकर बाहर निकालने की भरसक कोशिश की लेकिन उनकी एक न चली.
सारे यत्न विफल हो गए.”
लालबाबू से नहीं रहा गया. वह हँसते हुए बोला, “भला उसे किसी मोटे भैंसा से ही
क्यों नहीं खिंचवा दिया गया.” “नहीं-नहीं” अंजलि बोली, “उसे हाथी से खिंचवाना
चाहिए था.” उसके भोलेपन पर बाकी बच्चे हंस पड़े. तभी मिट्ठू गंभीर होते हुए बोला,
“तो आगे क्या हुआ दादा जी !”
“हाँ, लेकिन उस समय लोग तुम्हारी तरह होशियार नहीं थे.” दादा जी मुस्कराते हुए
बोले और फिर शुरू हो गए- “सभी पहलवानों के छक्के छूट गए लेकिन भैंसा अपनी जगह से
एक इंच भी नहीं हिला. बेचारा बहुत कष्ट में था. उसका गर्दन मुड़ा हुआ था, पीठ में छाले
पर गए थे और उसके अगले पैर जस के तस टेढ़े पड़े थे जिसे वह चाह कर भी सीधा नहीं कर
पा रहा था. गर्मी के दिन थे. दोपहर का समय हो रहा था. पहलवानों के पसीने छूटने लगे
और वे थक हार कर पास के बरगद के विशाल पेड़ की छाँव में लेट गए.”
“तभी हँसते खेलते बच्चों का एक झुंड वहां से गुजरा. वे भी कुएँ में झांक रही
भीड़ देख उधर की ओर बढ़े. अन्दर भैंसा को देख सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे. कुछ
बच्चे भैंसे से बंधी रस्सी और बांस पर अपनी ताकत आज़माते हुए चिल्लाये- जोर लगा कर...
हईसा ! जोर लगा कर... हईसा !”
हाहाहा... अंजलि और उसके दोस्त हंसने लगे. मिट्ठू बोला- जब उतने सारे पहलवान नहीं
निकाल पाए तो ये बच्चे तो... हहहाहा....
अंजलि गंभीर होती हुई बोली, “हमारी ही तरह भोले होंगे.”
“इस बीच कुछ पहलवान फिर से जोर आज़माइश करने आ पहुंचे. उन्होंने बच्चों को
डाँटते हुए भगा दिया.” दादा जी फिर शुरू हो गए- “अपनी मंडली का यह अपमान देख मंडली
के सरदार रामलाल से नहीं रहा गया. उसने नेता की तरह ऐलान करते हुए कहा- यह काम तो
हम चुटकी बजाते कर लेंगे. उसकी यह बात सुन पहलवानों ने जोर के ठहाके लगाये. रामलाल
ने अपनी मंडली के सभी साथियों को बुला कर कुछ मंत्रणा की और फिर दो-दो के खेमों
में बंटकर गाँव के अलग-अलग मुहल्लों की ओर निकल पड़े. जब वे लौटे तो प्रत्येक दल
में दस-बारह बच्चे थे. वे अपने साथ एक-एक घड़ा भी ले आये थे.”
“फिर क्या हुआ दादा जी”- अंजलि बोली.
“वे घला लेकल किया कलते ?”- छोटी रिंकी तुतलाती हुई बोली.
“बताता हूँ बाबा... बताता हूँ”, दादाजी ने कहानी आगे बढ़ाई- “गाँव के पास से ही
एक नदी बहती थी. रामलाल ने अपने सभी साथियों को बीस बीस गज के फ़ासले पर नदी से
लेकर कुआँ तक एक कतार में खड़ा कर दिया. और वह खुद सभी घड़े लेकर नदी किनारे पहुँच
गया. वह नदी से पानी भरकर घड़ा दूसरे को बढ़ा देता, दूसरा तीसरे को, तीसरा चौथे को...और
यही क्रम कतार के अंत में कुआँ के पास खड़े चंदन तक चलता रहता जो घड़ा का पानी कुआँ
में उलटते जा रहा था. हर कोई अपना भरा घड़ा अगले को थमा देता और खली घड़ा पिछले को.
इस तरह अगले कुछ घंटों में पानी से भरे सैकड़ों घड़े कुआँ में पलटे चुके थे. कुआँ का
पानी धीरे धीरे ऊपर उठने लगा. पानी के साथ भैंसा भी ऊपर आने लगा. रामलाल और उसकी
मंडली की इस करामात को देख गांववाले हैरान थे. शाम ढलते ढलते कुआं का पानी काफ़ी ऊपर
तक आ गया था. तब सारे पहलवानों ने एक बार और जोर लगाया... जोर लगा कर... हईसा ! और
देखते ही देखते भैंसा कुआँ के बाहर था.”
“गांववालों ने मिलकर झट से कुआं और उसके आसपास की सफ़ाई भी कर दी. अब कुआँ फिर
से चालू हो गया. गाँव वाले बहुत खुश थे और रामलाल तथा उसकी मंडली की जमकर प्रशंसा कर
रहे थे.”
“दादा जी !” अंजलि गंभीरता पूर्वक बोली, “आज की कहानी से भी कोई शिक्षा मिलती
है न ?
“हाँ बच्चों ! आज की कहानी से यही शिक्षा मिलती है कि जिसके पास बुद्धि है उसी
के पास बल है.”
“हम भी होते तो यही कलते” रिंकी खुशी में उछलते हुए नानी की तरफ भागी जो अभी-अभी सबके लिए मिठाई लिए आ रही थी. बाकी बच्चे भी शोर मचाते हुए
उसके पीछे भाग चले.
नन्दलाल मिश्र जीवन मैग के प्रबंध संपादक हैं। सम्प्रति आप दिल्ली विश्वविद्यालय के संकुल नवप्रवर्तन केन्द्र में मानविकी स्नातक के छात्र तथा दिल्ली विश्वविद्यालय सामुदायिक रेडियो के कार्यक्रम समन्वयक है। आप बिहार के समस्तीपुर से ताल्लुक रखते हैं।
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ReplyDeleteउपयोगी कहानी है बहुत...
ReplyDeleteऔर भी पढ़ें... Bhannaat.com,
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Kya baat Hai Nice Story
ReplyDeletebahut hi behtreen kahani. Maza aa gya!
ReplyDeleteसच है भाई!
ReplyDeleteज़बरदस्त, ख़ूब कही भई आपने... भैंस की तो बज गई!
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