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Monday, 13 January 2014

ग़ज़ल- राघवेन्द्र त्रिपाठी

यूँ खुद को हर शाम जलाता है ये,
कोई राज है चराग़ के सीने में भी ,
मौत से कम नहीं गम-ए-हयात भी ‘राघव’ ,
तमाम झंझट है ज़िन्दगी जीने में भी ,
अकेले नहीं होती दुनिया में तकमील किसी की,
खुद की आब नही होती है नगीने में भी ,
दिलों से तो कब का मिटा डाला था तुमने ,
अब तो नहीं रहता खुदा ख़ैर मदीने में भी .

राघवेन्द्र त्रिपाठी
बी.टेक (मानविकी)
संकुल नवप्रवर्तन केंद्र
दिल्ली विश्वविद्यालय


जीवन मैग जनवरी 2014 अंक से उद्धृत- मूल अंक यहाँ से डाउनलोड करें - https://ia600505.us.archive.org/7/items/JeevanMag4/Jeevan%20Mag%204.pdf

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