बीते दिनोँ भोपाल से लौट रहा था। सफ़र लंबा था सो मन बहलाने को ए.सी. थ्री टियर के अभिन्न , अनुरागी और श्रवनधैर्य-धर्मी माननीय मित्रवर से यादृच्छया गप्पेँ मारे जा रहा था| सामने वाले बर्थ पर दो प्रौढ आसन लगाये थे। संस्कार से यूपी के ब्राह्मण प्रतीत होते थे....वे भी आपस मेँ ओष्ठ कंपन किये जा रहे थे। बीच बीच मेँ हमारी बातोँ पर भी कान डाल देते फलस्वरुप कभी कभी क्षणिक शान्ति छा जाती और मैँ संकोचवश ढीला पर जाता था | दरम्यां इसके संदर्भ और प्रसंगवश मैँ बोल गया - चौबे चले थे छब्बे बनने दूबे बनकर लौटे | इतना कहना था कि दोनोँ व्यक्ति मुझ पर बाज़ की भांति यकायक टूट पड़े | बड़ी मुश्किल से अपरिचित शुभचिन्तक यात्री मित्रों (भगवान उनकी जीवनयात्रा मंगलमय करेँ) के हस्तक्षेप की वज़ह से ही आज आपसे रुबरु हूँ | बचकर पता चला कि वे दोनोँ क्रमशः उमाकाँत दूबे और दीनानाथ चौबे थे । उस दिन से कान पर हाथ रखा है, जातिवादी लोकोक्तियोँ एवं मुहावरोँ का इस्तेमाल भूलवश भी नहीं करुँगा....यथा ( अंतिम बार कह रहा हूँ ) धोबी का गदहा न घर का न घाट का, कहाँ राजा भोज और कहाँ गँगू तेली.... आदि आदि...
नंदलाल मिश्रा
प्रबंध संपादक - जीवन मैग
बी.टेक मानविकी (प्रथम वर्ष ),
दिल्ली विश्वविद्यालय
साभार- जीवन मैग फ़रवरी मार्च २०१४ अंक
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