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Friday, 1 August 2014

एफवाईयूपीः एक नवोन्मेषी शिक्षा प्रणाली की हत्या

दिल्ली विश्वविद्यालय और यूजीसी में लम्बी खींचतान के बाद डीयू के कुलपति ने चारवर्षीय पाठ्यक्रम को लौटा कर पुनः त्रिवर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम लागू करने का फैसला किया है. इस प्रकरण ने कोई सवाल सुलझाया नहीं है, बल्कि कई नए सवाल खड़े किए हैं। इसने उच्च शिक्षा के तंत्र में मौजूद गंभीर गड़बड़ियों को भी उजागर किया है। अगर देश के एक बड़े और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के साथ ऐसा हो सकता है, तो छोटे और देश के कोने-कोने में स्थित विश्वविद्यालयों का हाल जाना जा सकता है। कुछ लोगों ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति, सुविधापरस्ती और स्वयं-स्वार्थ सिद्धि के लिए शिक्षा व्यवस्था में इतनी जल्दी उलटफेर की. शिक्षा में इस कदर राजनीतिक दखल दुर्भाग्यपूर्ण है. वैसे तो सरकार यह कहती रही कि वह यूजीसी और डीयू के इस मामले में दखल नहीं देगी. किंतु यह पूरी तरह स्पष्ट है कि केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद सरकार के दबाव में ही यूजीसी ऐसा कर रही थी. यदि ऐसा नहीं है तो फिर डेढ़ साल तक वह चुप क्यों रही.
गौरतलब है की पिछले साल 23 जुलाई को यूजीसी ने दिल्ली विश्वविद्यालय को एक चिट्ठी लिखकर इस कोर्स को शुरू करने की सहमति दी थी. यह एक न्यायालीय शपथ पत्र था जिसमें यह स्वीकार किया गया था कि चारवर्षीय पाठ्यक्रम किसी प्रकार से शिक्षा नीति के विरुद्ध नहीं है. इतना ही नहीं यूजीसी ने डीयू में नए पाठ्यक्रम को लागू करने में मदद हेतु सीएसआईआर के महानिदेशक एस के जोशी के नेतृत्व में 5 सदस्यों की एक सलाहकार समिति गठित की थी. इस समिति ने 25 फरवरी 2014 को अपनी रिपोर्ट दी जिसमें कहा गया कि नया पाठ्यक्रम राष्ट्रीय शिक्षा नीति का अनुपालन नहीं करती है. और तब इस रिपोर्ट के आधार पर यूजीसी 20 जून से इसे वापस लेने हेतु लगातार डीयू पर दबाव बनाये रखती है. क्या यूजीसी रिपोर्ट के तुरंत बाद ऐसा नहीं कर सकती थी जिससे नामांकन प्रक्रिया में भी दिक्कतें नहीं आतीं. क्या एस के जोशी कमिटी सचमुच मदद के लिए बनी थी या जांच के लिए ? उसे अपनी रिपोर्ट देने में इतना लम्बा वक्त क्यों लगा ?
जाहिर है या तो यूजीसी तब यूपीए सरकार के दबाव में फैसला कर रही थी या वह अब एनडीए सरकार के इशारे पर ऐसा कर रही है जिसने अपने दिल्ली घोषणा पत्र में इसका वादा किया था. सवाल तो यूजीसी की स्वायत्तता का है. क्या यूजीसी अपने विवेक के बजाय सरकार के इशारे पर कठपुतली की तरह नाचती रहेगी ? यह देश की शिक्षा संस्थानों और विद्वानों की समितियों के लिए शर्मनाक है. जैसे सीबीआई निदेशक रंजीत सिंह ने ये कहते हुए सरकार को सावधान कर दिया था की केन्द्रीय जांच ब्यूरो पिंजरे में बंद तोता नहीं है वैसे ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को सरकारी दबाव और नीच राजनीति से ऊपर उठ कर काम करना चाहिए. डीयू कुलपति दिनेश सिंह की बजाय यूजीसी अध्यक्ष वेद प्रकाश को इस्तीफा दे देना चाहिए था क्योंकि वे अपनी संस्था की स्वायत्तता की रक्षा करने और विवेकपूर्ण फैसले लेने में नाकाम रहे हैं. ये वहीँ वेद प्रकाश हैं जो एफ.वाई.यू.पी लाने के समय में भी यूजीसी के अध्यक्ष थे. इन श्रीमान ने ही फरवरी में दिल्ली विश्वविद्यालय के वार्षिक उत्सव अन्तरध्वनि के उद्घाटन समारोह में बोलते हुए दस मिनट तक चारवर्षीय पाठ्यक्रम और पाँच मिनट तक दिनेश सिंह की तारीफ की थी. यह सब ड्रामा नहीं तो क्या है या फिर था ?? 


एक सत्य यह भी है कि एफवाईयूपी की खिलाफत करने वाले अधिकांश लोग ना तो इस पाठ्यक्रम का हिस्सा थे न ही वे इसकी पूरी संरचना और पाठ्यक्रम से परिचित थे. विरोध करने वाले मुख्यतः राजनीतिक पृष्ठभूमि से थे. दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन ने बीते कुछ सालों से राजनीतिक छात्र संघों पर अंकुश लगाने की कोशिश की है. इससे उन छात्र संघों में असंतोष है जो इस विरोध में सामने आ रहा है. दूसरी ओर डीयू प्रशासन ने शिक्षकों के मनमानी पर भी रोक लगायी है. अब उन्हें नियमित क्लास लेना होता है. समय से आना और जाना होता है. अब उन्हें बच्चों के साथ मिलकर कठिन मेहनत करनी पड़ती है जो उनकी चाहत और आदत के विपरीत हैं. ऐसी भी बात चल रही है कि अब शिक्षकों को कालेज आते और जाते समय अंगूठे का निशान लगाना होगा. फलस्वरूप शिक्षकों में घोर असंतोष है और वे एफ.वाय.यू.पी के बहाने कुलपति का विरोध कर रहे हैं. एफ.वाय.यू.पी के तहत प्रथम वर्ष के छात्र अपने भविष्य को लेकर काफी चिंतित हैं. इनमें से अधिक छात्र छुट्टियों में घर गए हुए हैं. फलस्वरूप उनकी संगठित आवाज मीडिया में नहीं आ पायी. दूसरी और बीटेक के छात्र काफी परेशान थे. लेकिन यूजीसी ने उन्हें बड़ी राहत देते हुए इस कोर्स को समान पाठ्यक्रम के साथ चार साल का रहने दिया है. लेकिन यह सिर्फ 2013-14 बैच के छात्रों के लिए होगा अर्थात इस सत्र से बीटेक पाठ्यक्रम में नामांकन नहीं होंगे. यह एक तरह से प्रयोग ही होगा. देखना है इस बैच के छात्र क्या गुल खिलते हैं. यदि ये छात्र पढ़ाई के साथ प्लेसमेंट में आईआईटी के समांतर महत्वपूर्ण सफलता अर्जित करते हैं तो चार वर्षीय पाठ्यक्रम पुनः विचारणीय बन जाएगा. मसलन इस बैच का परिणाम एफ.वाय.यू.पी की सार्थकता सिद्ध कर सकता है. ध्यान रहे की इनके साथ कोई निकृष्ट राजनीति ना होने पाए.    

अब बात चारवर्षीय पाठ्यक्रम की. एफवाईयूपी महात्मा गाँधी के प्रयोगात्मक शिक्षा नीति और हाथों के प्रयोग पर आधारित थी. हमारी पारंपरिक शिक्षा पद्धति केवल सैद्धांतिक रूप से समृद्ध रही है. फलस्वरूप भारत हमेशा से शोध एवं अनुसंधान में पिछड़ा रहा है. लेकिन इस नये पाठ्यक्रम में सिद्धांत के साथ परियोजना कार्य, फील्ड वर्क, प्रयोग एवं शोध को समान महत्त्व दिया गया था ताकि विद्यार्थियों को कार्य कुशल बनाया जाए. चार साल के दौरान उन्हें इंटर्नशिप के साथ साथ शोध का भी मौका मिलता. इससे हिंदुस्तान में सामूहिक कार्यों एवं शोध-प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता. एफवाईयूपी को बाज़ार की जरूरत के अनुसार तैयार किया गया था ताकि पढ़ाई समाप्त होते ही छात्रों को नौकरी मिल सके. संभव था इस पाठ्यक्रम का दूरगामी सकारात्मक प्रभाव होता. याद होगा राजीव गाँधी ने जब सूचना क्रांति का आह्वान किया था तो उनका भी भयंकर विरोध हुआ था.
एफवाईयूपी के तहत छात्रों को एक विषय में 20 पेपर के साथ विशेषज्ञता प्रदान की जाती. इसी विषय में उन्हें चार व्यवहारिक कोर्स के पेपर पढ़ने होते जिससे वे उस विषय से संबंधित कार्यों के लिए दक्ष और प्रशिक्षित हो सकें. साथ ही छात्रों को अपनी पसंद के दूसरे विषय में 6 पेपर पढ़ने होते. वे आगे इसमें मास्टर्स भी कर सकते थे. इसके अतिरिक्त 11 फाउंडेशन कोर्स हैं जो छात्रों को विभिन्न विषयों की आधारभूत जानकारी देते हैं. विरोधी इन कोर्सों का जम कर विरोध कर रहे हैं. लेकिन मेरा मानना है कि आज की दुनिया मल्टीटास्किंग है अतः विद्यार्थियों को सभी विषयों का ज्ञान होना आवश्यक है. इन कोर्सों का मुख्य उद्देश्य था छात्रों में हरफनमौला व्यक्तित्व के साथ उनमें नैतिकता और रचनात्मकता का विकास करना. और किसी छात्र में सृजनात्मकता विकसित करना और नैतिकता के पतन को बचाना ही शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण ध्येय है. विरोधियों का कहना था कि ये सब 12वीं तक पढ़ाया जाना चाहिए. लेकिन सच पूछिए तो ये चीज़ें जीवन भर पढ़ी पढ़ाई जाये तो भी कम ही होगी.
विरोधी मानते हैं कि इस नए पाठ्यक्रम में एक साल बेकार में बर्बाद किया जा रहा था. लेकिन पाठ्यक्रम में इन मौलिक परिवर्तनों के निवेश के लिए तो एक साल बढ़ाना ही पड़ता अन्यथा पूरा पाठ्यक्रम विद्यार्थियों के लिए बोझ बन जाता. दूसरी बात, यह सही है कि तीन की बजाय चार साल के पाठ्यक्रम में छात्रों का खर्च बढ़ जाता. ख़ासकर जो दिल्ली से बाहर के और आर्थिक रूप से पिछड़े छात्र हैं उनकी मुश्किलें बढ़ जातीं. लेकिन यह भी तो मानना चाहिए कि इस चार साल के पाठ्यक्रम के बाद छात्रों को आसानी से नौकरी मिल सकती थी. वैसे भी अधिकांश छात्र स्नातक के बाद या तो मास्टर्स करते हैं या फिर किसी शहर में ही ठहर कर सामान्य प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करते हैं जिसमें अपेक्षाकृत अधिक ही खर्च आता है. 
नए पाठ्यक्रम की आत्मा थी शोध. भारत हमेशा से इस क्षेत्र में पिछड़ा रहा है. हमारे देश में माध्यमिक शिक्षा पाने वालों में 20 प्रतिशत से कम ही लोग उच्च शिक्षा में आ पाते हैं. और इसका भी शतांश हिस्सा ही मास्टर्स, एमफिल, पीएचडी और रिसर्च में जाते है. लेकिन इस युगांतकारी शिक्षा प्रणाली में स्नातक के छात्रों को शोध-अध्ययन का मौका मिलता. इससे ना केवल शोध की तरफ आकर्षित होने वालों की तादाद में इजाफा होता अपितु हम भी जापान की तरह तेजी से तरक्की के सपने को साकार कर पाते. संभव था कुछ वर्षों बाद हमारे यहाँ भी नोबेल पुरस्कार आने लगते.

इस बात में भी कोई दोराय नहीं इस नए पाठ्यक्रम को बिना किसी सर्वेक्षण या अध्ययन के आनन-फानन में लागू कर दिया गया. गौरतलब है कि अपने समर्थन में दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति ने योजना आयोग की बारहवीं योजना के दस्तावेजों का सहारा लिया, जिसने सिर्फ एक पैराग्राफ में भारत की स्नातक शिक्षा की कमी को दूर करने के उपाय के रूप में चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम का प्रस्ताव रखा है। लेकिन यह और भी दुखद है कि इस लोकतांत्रिक देश में योजना आयोग जैसी संस्था ने भी इस नतीजे पर पहुंचने के लिए किसी सर्वेक्षण या अध्ययन की जरूरत महसूस नहीं की. नए पाठ्यक्रम के विरोधियों के इस तर्क में भी कम दम नहीं कि दिल्ली विश्वविद्यालय की विद्वत परिषद कुलपति के कृपापात्रों से भरी पड़ी है या उनके दबाव में काम करती है. लेकिन इस बदलाव से कुलपति का कोई निजी स्वार्थ जुड़ा हो ऐसा भी तो नहीं कहा जा सकता. हाँ ऐसा हो सकता है कि उनके मन में एक नव युगप्रवर्तक कहलाने की महत्वाकांक्षा पल रही हो जिसकी सीधी टक्कर अन्य लोगों की महत्वाकांक्षाओं से हुई हो जो ईर्ष्यावश इस परिवर्तन के मुखालफ़त में कूद पड़े. गाँधी और बुद्ध का यह भारत कब तक कुछ गिने चुने लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की टक्कर का दंश झेलता रहेगा. याद रहे कुलपति को इसी साल शिक्षा में महत्वपूर्ण योगदान के लिए पद्मश्री प्रदान किया गया.
यक़ीनन एफवाईयूपी में बहुत कमियां थीं. बावजूद इसके हमारी शिक्षा प्रणाली को सुधारने का यह एक बेहतर विकल्प था जिसमें समय के साथ सुधार किया जाना चाहिए था बरक्स इसे सीधे ख़त्म करने के. कहते हैं- नदी के मध्य में पहुँच कर लौटने से बेहतर है की आगे का सफ़र जारी रखा जाए. कभी न कभी हमारे देश में वक्त की मांग पर यह पाठ्यक्रम प्रणाली पुनः दस्तक देगी और तब हमें कुछ पीछे रह जाने का दुखद एहसास भी जरूर होगा.


नन्दलाल मिश्रा जीवन मैग के प्रबंध संपादक हैं। सम्प्रति आप दिल्ली विश्वविद्यालय के संकुल नवप्रवर्तन केन्द्र में मानविकी स्नातक के छात्र तथा दिल्ली विश्वविद्यालय सामुदायिक रेडियो के कार्यक्रम समन्वयक है। आप बिहार के समस्तीपुर से ताल्लुक रखते हैं।




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