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Tuesday, 26 May 2015

ई हs विज्ञापन के दुनिया, तू देख बबुआ

सुप्रीम कोर्ट ने जनता के पैसे से मीडिया में नेताओं के फोटो वाले विज्ञापन प्रसारित व प्रकाशित करने पर रोक लगा दी है. हालाँकि मोदी जी को इसकी छूट होगी. वह देश के प्रधानमंत्री हैं. प्रतियोगिता-परीक्षा के लिए सामान्य ज्ञान में वृद्धि हेतु जानना लाभप्रद रहेगा कि यह छूट राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को भी प्राप्त होगी.

कुछ मुख्यमंत्रियों को इस नियम से आपत्ति है. अरविंद इनमें नहीं हैं. उनके विज्ञापन एफ़एम पर आते हैं. रेडियो में तस्वीर की झंझट होती ही कहाँ है. विज्ञापन जितना लम्बा चाहो बजवा लो. वैसे, आजकल के चौबीस गुना सात एफएम चैनलों से केवल विज्ञापनों के ही तो कार्यक्रम आते हैं. हाँ, बीच-बीच में ब्रेक के तौर पर कुछ गाने बजा दिए जाते हैं. शेष समय मुर्गा-गधा-उल्लू इत्यादि बनाने में व्यतीत होता है. खैर, एफएम चैनलों पर असंतुष्ट नेताओं के लिए अपार संभावनाएं हैं.



अपने इलाके में एक पहुंचा हुआ रीमिक्सिया कलाकार है. पुराने गीतों में नए शब्द भरकर नित नव गीत रचते-गाते रहता है. लेकिन है वह समय के साथ चलने वाला. आज सुबह से ही तान छेड़ रखा है, “ई हs विज्ञापन के दुनिया, तू देख बबुआ.”

ऑटो- मेट्रो, अख़बार-टीवी, सिनेमा-खेल, कप-प्लेट, घर-दीवार, टी-शर्ट वगैरह... सर्वत्र विज्ञापन का ही राज है. जहाँ देखो वहीं विज्ञापन. थोड़ी सी स्पेस दिखी नहीं कि विज्ञापन ठूंस दिया. उसका सुझाव था, आप में योगेन्द्र- प्रशांत आदि के ब्रेक-अप से उत्पन्न रिक्त स्थान को भी विज्ञापनों से ही भर दिया जाए. संभव है, इससे पार्टी का अंतः कलह और क्लेश मिट जाए. विज्ञापन ‘नाशै रोग हरे सब पीरा’ है.

विज्ञापन के लिए ब्रेक चाहिए. ब्रेक का जीवन में बड़ा महत्व है. तथाकथित छोटे से ब्रेक के बाद ही तो बड़ी खबर आती है. बिना ब्रेक गिरने का डर रहता है, बाज़ार में गिरने का. ब्रेक के लिए ब्रेकर चाहिए, रोकड़ चाहिए. और इन सब के लिए कोई प्रायोजक चाहिए यानी स्पोंसर.

इस दौर में हर व्यक्ति, घटना, वस्तु, स्थान इत्यादि प्रायोजित हैं. सबका अपना-अपना स्पोंसर है. सब की स्पोंसरशिप होती है. पार्टी, नेता, जनता, वोटर सब स्पोंसर्ड हैं. स्पोंसरशिप ख़त्म, पार्टी चेंज. आम चुनाव एक लोकप्रिय विज्ञापन-प्रचार स्पर्धा है. जो विज्ञापन कला में निपुण होगा उसकी जीत होगी.

आज हर घटना प्रायोजित है. कॉलेज फंक्शन से लेकर विश्व भ्रमण तक के स्पोंसर हैं. हमारा आपका जीवन भी प्रायोजित है. जन्म, मृत्यु, विवाह इत्यादि सभी के प्रायोजक हैं. दहेज़ भी एक तरह की स्पोंसरशिप ही है. आज प्रेम भी स्पोंसर्ड परिघटना है. बिना प्रायोजक प्रेम असंभव है. प्रेम के लिए बज़ट चाहिए. पैसा खत्म, प्यार ख़त्म. जेब खाली कि बाय-बाय. यहाँ प्रेम की पराजय है. नगद नारायण की जय है.

एक तरफ दहेज़, हत्या, आतंकवाद, दंगा तो दूसरी ओर पद, प्रतिष्ठा, पुरस्कार सब प्रायोजित हैं. सब सौदा है. सबके स्पोंसर हैं. बीते दिनों नीतीश की सभा में दस-बारह साल के लड़के का प्रतिभाशाली भाषण हुआ. लोग शक कर रहे हैं, कहीं वह भी स्पोंसर्ड तो नहीं? क्या करियेगा, कुछ तो लोग करेंगे, लोगों का काम है शक करना- गायक गा रहा है.

और खेल? खेल तो पूर्णतः विज्ञापन का ही एक उपक्रम है. मसलन क्रिकेट की प्रत्येक गेंद, रन, ओवर, विकेट, टीम इत्यादि के स्पोंसर होते हैं. अब तो हार-जीत भी स्पोंसर्ड आने लगी है.

विद्वत जनों के अनुसार विज्ञापन ने मीडिया को खोखला कर दिया है. रेडियो, टीवी और अख़बार के बाद अब सोशल मीडिया भी इसकी गिरफ़्त में है. यहाँ अभी तक तो सब अपना ही विज्ञापन करने में व्यस्त हैं. लेकिन वह रात दूर नहीं जब अधिक फैन फोलोविंग वाले लोग अपनी-अपनी वाल पर मल्टी-नेशनल कंपनियों के विज्ञापन का पोस्ट डालना शुरू कर दें. कवि-कलाकार आदि अपने शो की टिकट बिक्री हेतु इस युक्ति का सदुपयोग कर ही रहे हैं. वहीं फेसबुक पोस्ट के मध्य में ब्रेक डालने पर विचार-मंथन जारी है. इन ब्रेक को विज्ञापन से भरा जा सकता है. परंपरानुसार किसी राजनेता से ही इस परियोजना के उद्घाटन की प्रतीक्षा है.


विज्ञापन एक कला है. फेंकने की कला. समेटने की कला. इसमें जीत है, पैसा है. इसमें सभी अलंकार हैं, रस हैं. छंद, लय, तुक, गति-यति, सौन्दर्य सब है. इसमें साहित्य है. समाज है. किन्तु विज्ञापन है तो मेकअप ही. बिना छपे- बिना दिखे मेकअप का क्या फ़ायदा? रीमिक्सिया बाबू गा रहा है- ई हs विज्ञापन के दुनिया तू देख बबुआ... एकाएक लय-सुर पलटता है और वह संजीदगी से गाता आगे निकल जाता है- ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है...  

नन्दलाल मिश्र जीवन मैग के प्रबंध संपादक हैं। सम्प्रति आप दिल्ली विश्वविद्यालय के संकुल नवप्रवर्तन केन्द्र में मानविकी स्नातक के छात्र तथा दिल्ली विश्वविद्यालय सामुदायिक रेडियो के कार्यक्रम समन्वयक है। आप बिहार के समस्तीपुर से ताल्लुक रखते हैं। 

Wednesday, 20 May 2015

अक्ल बड़ी या भैंस

सर्दी का महीना था और शाम का समय. दादा जी चादर ओढ़े आग के पास कुर्सी पर बैठे थे. आकाशवाणी से समाचार ख़त्म होते ही चारों तरफ से बच्चों की मंडली आ धमकी. सोनू, मोनू, मिठ्ठू, लालबाबू, टिंकू, रिंकी और अंजलि. सभी ने उन्हें घेर लिया और रोज की तरह कहानी सुनाने की जिद करने लगे.

आज भी पहले उन्होंने सबसे दिन भर की पढ़ाई-लिखाई का हाल पूछा और फिर कुछ देर तक चुप रहने के बाद कहानी सुनाने लगे. “सुनो बच्चों, आज मैं तुम्हें एक बहुत पुरानी कहानी सुनाता हूँ- बहुत पहले की बात है. मगध प्रान्त में पटसा नाम का एक गाँव हुआ करता था. गांव के बीचोबीच एक बड़ा कुआँ था. समय के साथ अब वह गांव का अकेला ऐसा कुआँ था जिसका पानी साफ़ और उपयोगी रह गया था. इसलिए उसी कुएँ के पानी से पूरे गाँव का खाना-पानी, नहाना-धोना सब चलता था. दिनभर वहां पानी भरनेवालों की भीड़ लगी रहती थी. लेकिन उस कुएँ का अहाता बहुत कम ऊँचा था इसलिए लोगों को गिरने का डर भी लगा रहता था.

“फिर क्या हुआ दादा जी”, अंजलि को बीच-बीच में यह प्रश्न दोहराते रहने की आदत थी. कहानी शुरू नहीं होती कि वह अंत जानने को आतुर हो उठती थी. बाकी बच्चे चुपचाप सुन रहे थे.

“फिर एक अमावस की अँधेरी रात जब पूरा गाँव गहरी नींद सो रहा था एक बूढ़ा भैंसा उस कुएँ में जा गिरा.”

“क्यों वह अंधा था ?” मिट्ठू हँसते हुए बोला. बाकी बच्चे भी खिलखिला कर हंस पड़े. लेकिन अंजलि उदास होकर बोली- “फिर क्या हुआ ?”

“हाँ वह अंधा था” दादाजी ने कहानी आगे बढ़ाई- “फिर सुबह होते ही जैसे ही लोग पानी भरने आये कुएँ में भैंसा को देख उनमें खलबली मच गयी. यह बात समूचे गांव में आग की तरह फैल गयी. सभी को यह चिंता सताने लगी कि अब वे पानी कहाँ से लायेंगे. हाँ, इससे पहले कि तुम लोग गंभीर चिंतन करने लगो, मैं बता दूँ कि उस समय चापाकल का आविष्कार नहीं हुआ था और पानी का प्रमुख स्रोत तालाब या कुआं ही होता था.”

“गाँव के लगभग सभी बड़े बूढ़े कुएँ के पास आ जमा हुए और भैंसा को बाहर निकालने की तरकीब ढूंढ़ने लगे. बड़ी और मोटी रस्सियाँ, मजबूत बांस के खंभे और विशाल लकड़ी के लट्ठे इकट्ठे किए गए. दूर दूर से नामी-गिरामी पहलवान बुलाये गए. सभी ने मिलकर भैंसा को रस्सी से बाँधकर बाहर निकालने की भरसक कोशिश की लेकिन उनकी एक न चली. सारे यत्न विफल हो गए.”

लालबाबू से नहीं रहा गया. वह हँसते हुए बोला, “भला उसे किसी मोटे भैंसा से ही क्यों नहीं खिंचवा दिया गया.” “नहीं-नहीं” अंजलि बोली, “उसे हाथी से खिंचवाना चाहिए था.” उसके भोलेपन पर बाकी बच्चे हंस पड़े. तभी मिट्ठू गंभीर होते हुए बोला, “तो आगे क्या हुआ दादा जी !”

“हाँ, लेकिन उस समय लोग तुम्हारी तरह होशियार नहीं थे.” दादा जी मुस्कराते हुए बोले और फिर शुरू हो गए- “सभी पहलवानों के छक्के छूट गए लेकिन भैंसा अपनी जगह से एक इंच भी नहीं हिला. बेचारा बहुत कष्ट में था. उसका गर्दन मुड़ा हुआ था, पीठ में छाले पर गए थे और उसके अगले पैर जस के तस टेढ़े पड़े थे जिसे वह चाह कर भी सीधा नहीं कर पा रहा था. गर्मी के दिन थे. दोपहर का समय हो रहा था. पहलवानों के पसीने छूटने लगे और वे थक हार कर पास के बरगद के विशाल पेड़ की छाँव में लेट गए.”

“तभी हँसते खेलते बच्चों का एक झुंड वहां से गुजरा. वे भी कुएँ में झांक रही भीड़ देख उधर की ओर बढ़े. अन्दर भैंसा को देख सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे. कुछ बच्चे भैंसे से बंधी रस्सी और बांस पर अपनी ताकत आज़माते हुए चिल्लाये- जोर लगा कर... हईसा ! जोर लगा कर... हईसा !”

हाहाहा... अंजलि और उसके दोस्त हंसने लगे. मिट्ठू बोला- जब उतने सारे पहलवान नहीं निकाल पाए तो ये बच्चे तो... हहहाहा....

अंजलि गंभीर होती हुई बोली, “हमारी ही तरह भोले होंगे.”

“इस बीच कुछ पहलवान फिर से जोर आज़माइश करने आ पहुंचे. उन्होंने बच्चों को डाँटते हुए भगा दिया.” दादा जी फिर शुरू हो गए- “अपनी मंडली का यह अपमान देख मंडली के सरदार रामलाल से नहीं रहा गया. उसने नेता की तरह ऐलान करते हुए कहा- यह काम तो हम चुटकी बजाते कर लेंगे. उसकी यह बात सुन पहलवानों ने जोर के ठहाके लगाये. रामलाल ने अपनी मंडली के सभी साथियों को बुला कर कुछ मंत्रणा की और फिर दो-दो के खेमों में बंटकर गाँव के अलग-अलग मुहल्लों की ओर निकल पड़े. जब वे लौटे तो प्रत्येक दल में दस-बारह बच्चे थे. वे अपने साथ एक-एक घड़ा भी ले आये थे.” 

“फिर क्या हुआ दादा जी”- अंजलि बोली.

“वे घला लेकल किया कलते ?”- छोटी रिंकी तुतलाती हुई बोली.

“बताता हूँ बाबा... बताता हूँ”, दादाजी ने कहानी आगे बढ़ाई- “गाँव के पास से ही एक नदी बहती थी. रामलाल ने अपने सभी साथियों को बीस बीस गज के फ़ासले पर नदी से लेकर कुआँ तक एक कतार में खड़ा कर दिया. और वह खुद सभी घड़े लेकर नदी किनारे पहुँच गया. वह नदी से पानी भरकर घड़ा दूसरे को बढ़ा देता, दूसरा तीसरे को, तीसरा चौथे को...और यही क्रम कतार के अंत में कुआँ के पास खड़े चंदन तक चलता रहता जो घड़ा का पानी कुआँ में उलटते जा रहा था. हर कोई अपना भरा घड़ा अगले को थमा देता और खली घड़ा पिछले को. इस तरह अगले कुछ घंटों में पानी से भरे सैकड़ों घड़े कुआँ में पलटे चुके थे. कुआँ का पानी धीरे धीरे ऊपर उठने लगा. पानी के साथ भैंसा भी ऊपर आने लगा. रामलाल और उसकी मंडली की इस करामात को देख गांववाले हैरान थे. शाम ढलते ढलते कुआं का पानी काफ़ी ऊपर तक आ गया था. तब सारे पहलवानों ने एक बार और जोर लगाया... जोर लगा कर... हईसा ! और देखते ही देखते भैंसा कुआँ के बाहर था.”

“गांववालों ने मिलकर झट से कुआं और उसके आसपास की सफ़ाई भी कर दी. अब कुआँ फिर से चालू हो गया. गाँव वाले बहुत खुश थे और रामलाल तथा उसकी मंडली की जमकर प्रशंसा कर रहे थे.”  

“दादा जी !” अंजलि गंभीरता पूर्वक बोली, “आज की कहानी से भी कोई शिक्षा मिलती है न ?

“हाँ बच्चों ! आज की कहानी से यही शिक्षा मिलती है कि जिसके पास बुद्धि है उसी के पास बल है.”


“हम भी होते तो यही कलते” रिंकी खुशी में उछलते हुए नानी की तरफ भागी जो अभी-अभी सबके लिए मिठाई लिए आ रही थी. बाकी बच्चे भी शोर मचाते हुए उसके पीछे भाग चले. 

नन्दलाल मिश्र जीवन मैग के प्रबंध संपादक हैं। सम्प्रति आप दिल्ली विश्वविद्यालय के संकुल नवप्रवर्तन केन्द्र में मानविकी स्नातक के छात्र तथा दिल्ली विश्वविद्यालय सामुदायिक रेडियो के कार्यक्रम समन्वयक है। आप बिहार के समस्तीपुर से ताल्लुक रखते हैं। 



Saturday, 16 May 2015

मुक्ति



आत्मा और परमात्मा का एकीकरण ही मुक्ति है. मुक्ति दो प्रकार से संभव है. या आत्मा परमात्मा में लीन हो जाए या आत्मा में परमात्मा ही समाहित हो जाए. पहली प्रक्रिया ‘प्रेम’ है. प्रेम से ममत्व भाव और अधिकार बोध उत्पन्न होता है. आत्मा का अहं विराट रूप ग्रहण कर अपने ममत्व में परमात्मा को समेट लेती है. दूसरी भक्ति है. भक्ति में आत्मा स्वयं के अहं का क्षय कर परमात्मा में विलीन हो जाती है. प्रेम में विशालता है, उदारता है. भक्ति में समर्पण और त्याग है. सेवा दोनों का ही मूल भाव है. एकाकार होने तक की प्रक्रिया जीवन है. प्रेम और भक्ति ‘सत्य’ रुपी मार्ग के दो पगडंडी हैं.

‘विकार’ मुक्ति-प्रक्रिया में विघ्न डालता है. वह सत्य के मार्ग से भटका देता है. सत्य का मार्ग मुक्ति का सबसे लघु मार्ग है. भटकने से विलंब की विशालता बढ़ती है. मनुष्य मुक्ति के लक्ष्य से निरंतर दूर होता जाता है. किन्तु विकार है क्या? घृणा, असहिष्णुता, स्वार्थ, वासना, लोभ, हिंसा, क्रोध इत्यादि विकार के अनेक रूप हैं. विकारों का कार्य-परिणाम ‘पाप’ है तो विकार मुक्त कर्मों का परिणाम ‘पुण्य’. पुण्य हेतु किया गया कार्य ‘धर्म’ और पाप फलदायी कर्म ‘अधर्म’ है.  


विकार मनुष्य को असत्य के मार्ग पर ले जाता है. असत्य के असंख्य मार्ग हो सकते हैं. सत्य का केवल एक ही मार्ग संभव है. किसी सत्य का वैकल्पिक प्रकटीकरण असंभव है. विकारों के संसर्ग से मनुष्य में दुर्बलता उत्पन्न होती है. किन्तु दुर्बलता की पकड़ दुर्बल नहीं होती है. जो एक बार इस डोर से बंध जाए लाख यत्न कर नहीं निकल पाता. ‘योग’ इन विकारों से मुक्ति की युक्ति है. और सबल, जो विकारों से मुक्त मनुष्य है वही सबल है. और सबल को ही मुक्ति अर्थात अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है.  


नन्दलाल मिश्र जीवन मैग के प्रबंध संपादक हैं। सम्प्रति आप दिल्ली विश्वविद्यालय के संकुल नवप्रवर्तन केन्द्र में मानविकी स्नातक के छात्र तथा दिल्ली विश्वविद्यालय सामुदायिक रेडियो के कार्यक्रम समन्वयक है। आप बिहार के समस्तीपुर से ताल्लुक रखते हैं।

A series of skype group conversations beetween students from India & Pakistan

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