यूँ तो मेरा काम इस बार के
इस कॉलम में शायरी, ग़ज़ल, या कविता लिखने के तरीके पे कुछ लिखना था| मगर अभी तो
शुरुआत हुई है इसलिए मैंने सोचा की बेहद टेक्निकल होकर, कविता और ग़ज़ल के व्याकरण
पर बात करने से पहले थोडा तवारुफ़ कर लें|
अब शायरी करना, ग़ज़ल लिखने
के लिए स्कूल तो नहीं बनाये जा सकते, यह फ़न, यह हुनर कहीं किताबें पढ़कर नहीं सिखा
जा सकता| बशीर साहब ने कहा था, “दुनिया में कहीं इनकी तालीम नहीं होती, दो चार
किताबों को बस घर में पढ़ा जाता है”| ये गज़लसराई का हुनर भी कुछ ऐसा ही है| फिर
आप ये भी पूछेंगे कि जब ये हुनर सिखाने से सीख नहीं सकता कोई, जब इसे बताया जा
नहीं सकता तो इस कॉलम का क्या मतलब है भाई? तो हुजूर, बात को एक बार फिर से जरा ग़ौर से देखने और समझने की जरूरत है| यूँ तो आप ग़ज़ल का व्याकरण पढकर ग़ालिब और मीर
नहीं बन सकते, मगर फिर भी जरुरी है कि आप इसे जानें| सिर्फ लिखने के लिए, ग़ज़ल को
पढ़ पाने के लिए भी, अच्छी ग़ज़ल की तारीफ कर पाने के लिए जरुरी है कि आप जानें|
यकीन मानिये, जब किसी के आश’आर पर तालियाँ बजती हैं, सब लोग वाह-वाह कर रहे होते
हैं, उस वक्त वो गज़लसरा ये ढूंढ रहा होता है की इस भीड़ में कौन है जो शायरी समझता
है, जो इन अश’आर के मानी समझता है, और अगर
कोई सच्चा सुनने वाला मिल जाये तो फिर सुनाने का मज़ा आ जाता है, वर्ना फिर ग़ज़ल
पढना सिर्फ एक रस्म-अदायगी मात्र बन जाती है| और एक बात यह भी है कि जैसे कि कबीर
ने कहा था, “हीरा तहाँ ना खोलिए जहाँ कुंजरों की हाट . . . ” एक अदीब शख्स अपने
नायाब हीरे तबतक आपके सामने नहीं खोलेगा जबतक कि उसको ये अंदाज़ा नहीं होता की आप
उस लायक हैं| जब कोई अपनी रचना पढ़ रहा होता है, उसे सबके सामने रख रहा होता है तो
आपको अंदाज़ा हो या न हो, वो तमाम राज़, तमाम बातें आपसे कहने को मुखातिब होता है जो
उसने अपने दम भर खुद से भी छुपा रखा हो, ऐसे में ये उसके लिए आसान नहीं होता,
इसलिए वो चाहता है कि उसके श्रोता अच्छे हों|
इस कॉलम में हम ग़ज़ल लिखना
नहीं बल्कि ग़ज़ल को एप्रेसीएट करना सीखेंगे | उम्मीद है की आप इससे मुतास्सिर होंगे
और अच्छी ग़ज़लों को पढ़ पाएंगे, सुन पाएंगे, समझ पाएंगे, और शायद लिख भी पाएंगे |
ग़ज़ल, शायरी या कविता को समझ पाना शायद लिख पाने से ज्यादा कठिन काम है क्योंकि
लिखने वाला तो खुद नहीं लिखता, भावनाएं बहा ले जाती हैं, शब्द बहने लगते हैं, बस
लिखने वाला तो उसके प्रवाह को थोडा संवार देता है, रचनाओं में उसको जब महबूब दिखने
लगता है तो वो अपने महबूब को जितना सजा पाता है सजाता है, मगर श्रोता या पाठक की
जिम्मेदारी उससे बड़ी होती है| पाठक या श्रोता को बहुत दूर-दूर तक जाना होता है और
कई बार वो जब लिखने वाले के स्वभाव, उसके परिवेश, उसकी संस्कृति, उसके इतिहास को
नहीं जनता होता तो वो असली मायने नहीं जान पाता, वो वहां पहुच नहीं पाता जहाँ उसे
जाना होता है| भावना का ज्वार उठा देना बेशक कविता का काम है इसलिए इसकी
जिम्मेदारी लिखने वाले के सर पर होती है, मगर उसकी खूबसूरती को देख पाने के लिए
कुछ कदम चलकर किनारे तक आना सुनने वाले की भी जिम्मेदारी है| हमारी कोशिश ये
रहेगी कि हम खुद भी ज़िम्मेदारियों के लिए तैयार हो पाएं और आपको भी एक अच्छे पाठक,
एक अच्छे श्रोता और एक अच्छे कवि की ज़िम्मेदारियाँ बता ज़िम्मेदार बना
सकें|
एक अच्छी रचना के लिए
(लिखने और पढने दोनो के लिए) आपको बहुत कुछ जानना होता है, समझना होता है मसलन
जुबान, थोड़ा इतिहास और यूँ ही थोड़ा-थोड़ा बहुत कुछ| जैसे अब परवीन शाकिर एक नज़्म
में लिखती हैं,
“मैं वो लड़की हूँ,
जिसको पहली रात
कोई घूँघट उठा के ये कह दे ---
मेरा सबकुछ तुम्हारा है, दिल के सिवा |”
जिसको पहली रात
कोई घूँघट उठा के ये कह दे ---
मेरा सबकुछ तुम्हारा है, दिल के सिवा |”
अब इसको समझने के लिए
भारतीय उपमहाद्वीपीय प्रेम की परम्परा का कुछ अनुभव तो होना चाहिए| इसी तरह जब भी
एक शायर शीरीं-फरहाद का ज़िक्र करता है तो आपको उनके बारे में मालूम होना चाहिए| जब
मीर कहते हैं :
“क्या कहिये अपने ‘अहद में जितने अमीर थे,
टुकड़े पे जान देते थे, सारे फ़कीर थे||”
टुकड़े पे जान देते थे, सारे फ़कीर थे||”
अब ये शेर समझने ले लिए सं
१७००-१८०० की दिल्ली के बारे में आपको मालूमात होनी चाहिए वर्ना आप न जाने क्या
अर्थ निकालेंगे? और फिर ये सब जानने के आलावा जुबां जानना भी बहुत जरुरी है, और
उससे भी बढ़कर है लफ़्ज़ों का सलीके से इस्तेमाल करना आना अब ज़ाहिर है की लफ्ज़ तो आप
सीख सकते हैं मगर उन लफ़्ज़ों की कारीगरी को समझने के लिए आपको पढना पड़ेगा, ठीक वैसे
ही जैसे ताजमहल के शिल्प को देखने के बाद ही आप समझ सकते हैं की उसकी क्या खूबी है|
अब देखिये परवीन शाकिर एक
नज़्म में कहती हैं –
“... तुमने मेरा स्वागत उसी अंदाज़ में किया,
जो
अफासराने-हुकूमत के एटीकेट में हो|”
अब इसमें जिस खूबसूरती से अंग्रेजी के लफ्ज़
मिल जाते हैं कि एकबारगी आपको महसूस भी नहीं होता की कैसे आपने भाषाओँ की सरहद तोड़
दी है| और ये इकलौता उदहारण नहीं है बशीर बद्र की शायरी में जब आप पाते हैं कि
“वो
जाफरानी पुलोवर उसी का हिस्सा है,
कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे।"
कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे।"
या फिर
“थके
थके पेडल के बीच चले सूरज,
घर
की तरफ लौटी दफ्तर की शाम।”
ये भाषा को खूबसूरती से
जोड़ने का तरीका है, ये हुनर लिखते हुए, पढ़ते हुए ही आयेगा| हाँ, मगर इस हुनर की
तारीफ करना तो हम आप मिलकर सीख ही सकते हैं| ग़ज़ल या छंद के व्याकरण और जुबां के
तमाम कायदे कानूनों के बाद, बहुत कुछ नया करने की आज़ादी भी है, ये जरुरी नहीं की
लिखने से पहले आप हर चीज़ को व्याकरण के पैमाने में नाप तौल कर देखें, और कई बार आप
जान बुझ कर व्याकरण के उन नियमों को चुनौती देते हैं| इस तरह से लेखन में भी बहुत
कुछ नया होता रहता है, इनोवेशन का स्कोप है लिखने में भी| हां मगर इसके लिए आपको
पहले तैयार होना चाहिए, व्याकरण के नियमों को न मानना और न जानना दोनो अलग बातें
हैं| तो आप जानिए सबकुछ फिर आपकी मर्ज़ी है, आपके अपने बिम्ब हैं, अपनी स्टाइल है,
सिर्फ कुछ पुराने नियमों की वजह से आप उनसे समझौता नहीं कर सकते|
कुल मिलाजुला कर हम इस कॉलम
में यूँ ही कुछ हलकी-फुलकी बातें करेंगे| कभी कुछ व्याकरण की बातें करेंगे| कभी
कुछ गज़लें, कवितायेँ ऐसी भी पढेंगे जिसमे कुछ नया जानने और सीखने को मिले|
और अंत में बस इस सबके बहाने
कुछ गज़लें कहना, कुछ सुनना शायद सीख लें|
आख़िर में बशीर बद्र का एक
शेर :
मुसाफ़िर हैं हम
भी, मुसाफ़िर हो तुम भी,
किसी मोड़ पर फिर मुलाकात होगी।
किसी मोड़ पर फिर मुलाकात होगी।
राघवेन्द्र त्रिपाठी 'राघव' (लेखक जीवन मैग के संपादन समिति के सदस्य हैं। आप दिल्ली विश्वविद्यालय में बी.टेक/ बी.एस इन इनोवेशन विद मैथ्स एन्ड आइटी के छात्र हैं तथा ग़ज़ल में गहरी रूचि रखते हैं.) |
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