अक्टूबर २९, २०१४
फ़ीनिक्स, एरिज़ोना (सं.रा. अमेरिका)
पूरब से उदित होता तथा पश्चिम में अस्तांचल पर सूर्य…ये प्रकृति के सबसे सुन्दर, सुलभ तथा मनोहारी दृश्य हैं। घटित तो ये प्रतिदिन होने हैं पर आज के मशीनी मानव की फ्लॉपी डिस्क में इन लम्हों के लिए शायद ही कोई जगह हो।
सूर्योपासना का अनुपम लोकपर्व छठ बस एक कर्मकांड या रीति-रिवाज़ भर नहीं है, यह तो प्रकृति से अपने जुड़ाव पर पुनर्विचार करने का पावन अवसर है। यह अवसर है जीवन के उस शाश्वत सत्य को समझने का कि जैसे प्रकृति में उषा और प्रत्युषा के बीच संतुलन बना रहता है वैसे ही जीवन में सुख-दुःख तो लगे रहते हैं- मानव का तो काम है बस सुखभरे पलों का आनंद ले, दुखभरे पलों को विस्मृत कर सदा गतिमान बने रहना। ठहराव प्रकृति का स्वभाव नहीं… भला नदी भी कहीं रूकती है क्या?
बिहार, नेपाल तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में मनाया जानेवाला यह त्यौहार भले ही आंचलिक क्यों न हो, इसकी जड़ें मानव इतिहास के प्रथम ग्रन्थ वेदों में निहित हैं। षष्ठी तिथि खगोल-विज्ञान के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। छठ पर्व पूर्णतया वैदिक तथा वैज्ञानिक है।
अमिनेष जी के भेजे गये ये सजीव चित्र जाने-अनजाने में जेहन में पूर्व की स्मृतियों का कोलाज़ तैयार कर रहे हैं। दिमाग फ्लैशबैक में जा रहा है और याद आ रही हैं वो छोटी-छोटी मीठी-मीठी बातें … साल के बाकी दिनों में कचरे से भरा रहने वाला वो छठ घाट जो हर साल बस इस महापर्व के आगमन की बाट जोहता रहता है.…कि कब छठ आये और उसकी सफाई हो। फलप्राप्ति की आस में धरती पर लेटकर दंड देते छठ घाट पहुँचते लोग। माथे पर दउरा उठाये आते पुरुष तथा उसके पीछे नाक तक सिंदूर का आवरण किये महिलाएं। प्रशासन के लाख मन करने के बावज़ूद पटाखों का जमकर लुत्फ़ उठाते हम बच्चे। लाउडस्पीकर पर अनवरत जारी छठ के लोकगीत। और हाँ, हाथ जोड़े कमर तक पानी में खड़े श्रद्धालु .... अविस्मरणीय।
आज सात समंदर पार बैठकर भी ये चीज़ें याद आ रही हैं। कुछ नहीं, बस अंदर बैठे मानव की अनुभूत चेतना है। सोचता हूँ क्या हमारी पीढ़ी इस अद्वितीय परंपरा के संरक्षण तथा निर्वहन की भूमिका भली-भांति निभा पाएगी?
अमिनेष और अंकित के कैमरे ने छठ की तैयारी की कुछ और बेहतरीन तस्वीरें कैद कीं-
फ़ीनिक्स, एरिज़ोना (सं.रा. अमेरिका)
पूरब से उदित होता तथा पश्चिम में अस्तांचल पर सूर्य…ये प्रकृति के सबसे सुन्दर, सुलभ तथा मनोहारी दृश्य हैं। घटित तो ये प्रतिदिन होने हैं पर आज के मशीनी मानव की फ्लॉपी डिस्क में इन लम्हों के लिए शायद ही कोई जगह हो।
सूर्योपासना का अनुपम लोकपर्व छठ बस एक कर्मकांड या रीति-रिवाज़ भर नहीं है, यह तो प्रकृति से अपने जुड़ाव पर पुनर्विचार करने का पावन अवसर है। यह अवसर है जीवन के उस शाश्वत सत्य को समझने का कि जैसे प्रकृति में उषा और प्रत्युषा के बीच संतुलन बना रहता है वैसे ही जीवन में सुख-दुःख तो लगे रहते हैं- मानव का तो काम है बस सुखभरे पलों का आनंद ले, दुखभरे पलों को विस्मृत कर सदा गतिमान बने रहना। ठहराव प्रकृति का स्वभाव नहीं… भला नदी भी कहीं रूकती है क्या?
बिहार, नेपाल तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में मनाया जानेवाला यह त्यौहार भले ही आंचलिक क्यों न हो, इसकी जड़ें मानव इतिहास के प्रथम ग्रन्थ वेदों में निहित हैं। षष्ठी तिथि खगोल-विज्ञान के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। छठ पर्व पूर्णतया वैदिक तथा वैज्ञानिक है।
अमिनेष जी के भेजे गये ये सजीव चित्र जाने-अनजाने में जेहन में पूर्व की स्मृतियों का कोलाज़ तैयार कर रहे हैं। दिमाग फ्लैशबैक में जा रहा है और याद आ रही हैं वो छोटी-छोटी मीठी-मीठी बातें … साल के बाकी दिनों में कचरे से भरा रहने वाला वो छठ घाट जो हर साल बस इस महापर्व के आगमन की बाट जोहता रहता है.…कि कब छठ आये और उसकी सफाई हो। फलप्राप्ति की आस में धरती पर लेटकर दंड देते छठ घाट पहुँचते लोग। माथे पर दउरा उठाये आते पुरुष तथा उसके पीछे नाक तक सिंदूर का आवरण किये महिलाएं। प्रशासन के लाख मन करने के बावज़ूद पटाखों का जमकर लुत्फ़ उठाते हम बच्चे। लाउडस्पीकर पर अनवरत जारी छठ के लोकगीत। और हाँ, हाथ जोड़े कमर तक पानी में खड़े श्रद्धालु .... अविस्मरणीय।
आज सात समंदर पार बैठकर भी ये चीज़ें याद आ रही हैं। कुछ नहीं, बस अंदर बैठे मानव की अनुभूत चेतना है। सोचता हूँ क्या हमारी पीढ़ी इस अद्वितीय परंपरा के संरक्षण तथा निर्वहन की भूमिका भली-भांति निभा पाएगी?
फोटो क्रेडिट्स- अमिनेश आर्यन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में स्नातक के छात्र तथा जीवन मैग की संपादन समिति के सदस्य हैं। अंकित कुंदन दुबे छात्र, स्वतंत्र टिप्पणीकार तथा जीवन मैग के टीम मेंबर हैं। |
अमिनेष और अंकित के कैमरे ने छठ की तैयारी की कुछ और बेहतरीन तस्वीरें कैद कीं-