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Tuesday, 8 November 2016

नोट में बदलाव क्यों? -अबुज़ैद अंसारी


देश में एक हज़ार और पांच सौ के नोट में बड़ा बदलाव करके भारत सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था में बड़ा बदलाव लाने के लिए महत्वपूर्ण क़दम उठाया है। हर देश की सरकार यही चाहती है कि उसकी अर्थव्यवस्था दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं में गिनी जाये इसलिए सरकार का यह निर्णय इस दिशा में महत्वपूर्ण माना जा सकता है। मगर भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास में ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। इससे पहले छठे दशक में मोरारजी देसाई जब वित्तमंत्री थे तब भी तत्काल सरकार ने कुछ इसी प्रकार के निर्णय लिए थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने इस निर्णय के सकारात्मक पहलुओं को गिनाते हुए देश भर में इसे लागू कर दिया मगर यह फैसला जिस अंदाज में लिया गया उसने देश की जनता के समक्ष बहुत सारे प्रश्न खड़े कर दिए हैं। इस देश का हर नागरिक यहाँ की अर्थव्यवस्था से प्रभावित होता है। और यहाँ की अर्थव्यवस्था देश के हर नागरिक से प्रभावित होती है। इसी कारण यह अपने आप में बहुत अजीब बात है कि ऐसा महत्वपूर्ण निर्णय जो अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ हो और जिसका प्रभाव व्यापक रूप से लोगों पर पड़ने वाला हो, अचानक और इतनी जल्दबाज़ी में कैसे लिया जा सकता है? यह तो बहुत जल्दबाज़ी में लिया गया निर्णय प्रतीत होता है। जिसकी कोई तैयारी नज़र नहीं आती, अगर सरकार इसके लिए तैयार भी है तो देश की जनता बिल्कुल भी तैयार नहीं है। अगर यह निर्णय गोपनीय था इसलिए कि भ्रष्टाचारी और काला धन जमा करने वाले लोग सचेत न हो जाएं तो ऐसे में सरकार का इतना बड़ा निर्णय लेने से पहले गरीबों, मज़दूरों, किसानों और प्रतिदिन कमाकर खाने वालों का एक बार भी ख्याल क्यों नहीं आया? 



प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा कि "यह सरकार गरीबों के प्रति समर्पित है।" अगर सच में यह सरकार गरीबों के प्रति समर्पण की भावना रखती है तो दूसरे विकल्पों के माध्यम से कुछ ऐसे नियम बनाए जा सकते थे जिनसे इस फैसले को लागू करने से पहले गरीब, मज़दूर, किसान जैसे वर्ग आदि को सुविधाएं हो सकती थी। उनका कहना तो ये भी था कि देश का ईमानदार जागरूक नागरिक असुविधा को चुन सकता है। मगर भ्रष्टाचार को नहीं चुनेगा, ऐसी परिस्थितियों में यह ईमानदार जागरूक उस घुन के सामान प्रतीत होता है जिसे ज़बरदस्ती गेहूं के साथ पिसना पड़ रहा है। इस निर्णय को लागू करने के पीछे सरकार का सबसे बड़ा तर्क यह है कि भ्रष्टाचार कम होगा और कालेधन पर शिकंजा कसा जाएगा क्योंकि भ्रष्टाचार और कालेधन में अधिकतर बड़े नोटों का प्रयोग किया जाता है। अगर ऐसा है तो फिर सरकार एक हज़ार की जगह दो हज़ार का नोट क्यों जारी कर रही है? अधिकतर सन्दर्भ से भारत विविधताओं से भरा हुआ देश है। अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में भारत के लिए ये कोई नई बात नहीं है।   असंगठित अर्थव्यवस्था के कारण अभी देश को इस निर्णय पर पूरी तरह से अमल करने में समय लग सकता है। सरकार के इस फैसले से जाली नोट पर रोकथाम लगाई जा सकेगी। जाली नोट की समस्या से हमारा देश शुरू से ही परेशान रहा है। देश के बाहर से तस्करी कर के लाये जाने वाले जाली नोट जब तब बाजार में पकड़े जाते हैं। और इन पर पूर्णरूप से अंकुश लगाना मुश्किल था। मगर सरकार के इस फैसले से जाली नोट की समस्या का जड़ से सफाया होने की सम्भावना है। फिर भी एक समस्या यह खड़ी हो सकती है कि अगर पड़ोसी देश से नए नोट के जारी होने के बाद उसके जाली नोट बाज़ार में आ गए तब मुश्किलें पहले से और अधिक बढ़ सकती हैं क्योंकि हम पुराने नोट से जितनी भलीभांति परिचित है, उतना नए नोट से नहीं होंगे इसलिए नए नोट लागू करने के साथ सरकार को अब नोट की तस्करी के प्रति पहले से अधिक गम्भीर रहना पड़ेगा।

Abuzaid Ansari

अबुज़ैद अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया (नई दिल्ली) में जनसंचार मीडिया / पत्रकारिता के छात्र हैं। आप जीवनमैग के सह -संपादक होने के साथ-साथ भारतीय विज्ञान कांग्रेस (कोलकाता), और  नेशनल एसोसिएशन फॉर मीडिया लिटरेसी एजुकेशन (न्यूयॉर्क) के सदस्य हैं। और नवाबों के शहर लखनऊ से ताल्लुक़ रखते हैं।




Saturday, 5 November 2016

मीडिया पर प्रतिबंध: कितना सही, कितना ग़लत -अबुज़ैद अंसारी

खींचो न कमानों को,  न तलवार निकालो

जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो


अकबर इलाहाबादी द्वारा लिखी गई यह पंक्तियाँ अपने आप में क़लम की ताकत को स्पष्ट करती हैं। इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सन्दर्भ से भी देखा जा सकता है। मगर वर्तमान समय में ऐसी परिस्थितियां बन चुकी हैं कि उसको ध्यान में रखते हुए तो यही लगता है कि अब लोगों की आवाज़ को दबाया जा रहा है। हाल ही में सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा एनडीटीवी  पर एक दिन के लिए लगाया गया प्रतिबंध इस बात को स्पष्ट करता है। एनडीटीवी पर आरोप है कि उसने पठानकोट हमले की रिपोर्टिंग में कुछ ऐसी गलतियां की जिसके कारण देश की सामरिक सूचना चैनल के माध्यम से लीक हो गई। मगर प्रश्न यह है कि एनडीटीवी के अलावा और भी टीवी चैनल ने पठानकोट में आतंकी हमले की रिपोर्टिंग की थी फिर सरकार ने उनके ख़िलाफ़ ऐसा कोई क़दम क्यों नहीं उठाया? एनडीटीवी ने स्पष्ट किया कि उसकी रिपोर्टिंग सामान्य और संतुलित थी। अगर ऐसा है तो फिर एनडीटीवी और दूसरे चैनल के मध्य रिपोर्टिंग में वो कौन से अंतर हैं जिसके आधार पर यह प्रतिबंध सिर्फ एनडीटीवी पर ही लगाया गया। अगर एनडीटीवी की दलील गलत है और सरकार का प्रतिबंध सही है तो सरकार को चाहिए कि वो अपना तर्क स्पष्ट करे ताकि इस प्रतिबंध पर उन लोगों को संतुष्टि हो सके जिन्हें इस पर आपत्ति है। अगर रक्षा संबंधी सूचना के लीक होने का मामला सही है तो सरकार का चैनल पर प्रतिबंध लगाना भी शत प्रतिशत सही है।



एक  बड़ा प्रश्न यह भी है कि एनडीटीवी ने ऐसी गलती की है तो सरकार को निर्णय लेने में इतनी देर क्यों लग गई? यह प्रतिबंध तो बहुत पहले ही लग जाना चाहिए था क्योंकि पठानकोट घटना तो जनवरी में हुई थी और उसे बीते हुए लगभग दस माह गुज़र चुके हैं।यहाँ बात सिर्फ एक टीवी चैनल का पक्ष लेने या उसके प्रति हमदर्दी और दूसरे चैनल के प्रति घृणा करने की भी नहीं है। बात संपूर्ण मीडिया जगत के लिए है। मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। अगर पत्रकारिता के प्रति देश की सरकार का ऐसा रवैय्या रहा तो वैश्विक स्तर पर भारत की छवि एक धुंधले लोकतांत्रिक देश जैसे हो जाएगी, या फिर कहीं ऐसा न हो कि भारतीय मीडिया को लोग उत्तर कोरिया, बर्मा, सीरिया और सऊदी अरब जैसे देशों की मीडिया में शुमार करने लगें, जहाँ मीडिया एक ज़िंदा लाश है। 

मीडिया का कर्त्तव्य लोगों तक सूचना, शिक्षा, मनोरंजन पहुँचाने के साथ-साथ समाज की समस्याओं को उजागर करना और लोगों को उनके प्रति जागरूक करना है। मगर परिस्थितियों को देख कर ऐसा लगता है जैसे मीडिया अपने इस कर्त्तव्य को भूल चुका है। वर्तमान समय में भारतीय मीडिया दो पक्षों में विभाजित होता प्रतीत होता है। किसी बात पर एक पक्ष अगर हाँ कहता है तो दूसरा बदले में उस पर नहीं के संकेत देता है। एक चैनल अगर सरकार की किसी विशेष उपलब्धि को लेकर उसका गुणगान करता है तो दूसरा उसी विशेष बात को मुद्दा बना कर उसकी निंदा करे बिना नहीं रह सकता। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में पड़ी ये दरार उसे कमज़ोर बनाती है। अगर ऐसे ही ये दरार गहराती रही तो किसी दिन यह स्तंभ इसी दरार के कारण टूट कर बिखर जाएगा।

Abuzaid Ansari

अबुज़ैद अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया (नई दिल्ली) में जनसंचार मीडिया / पत्रकारिता के छात्र हैं। आप जीवनमैग के सह -संपादक होने के साथ-साथ भारतीय विज्ञान कांग्रेस (कोलकाता), और  नेशनल एसोसिएशन ऑफ़ मीडिया लिटरेसी एंड एजुकेशन (न्यूयॉर्क) के सदस्य हैं। और नवाबों के शहर लखनऊ से ताल्लुक़ रखते हैं।




Thursday, 3 November 2016

जामिया का सतरंगी स्थापना दिवस -अबुज़ैद अंसारी

हक़ीकत सुर्ख मछली जानती है
समुन्दर कितना बूढ़ा देवता है

जामिया के 96वें स्थापना दिवस के इस ऐतिहासिक अवसर पर बशीर बद्र की लिखी ये पंक्तियां साकार होती नज़र आती हैं। अगर समुन्दर की तुलना जामिया से की जाये तो स्वाभाविक है कि सुर्ख मछलियां यहाँ के विद्यार्थी ही होंगे। विद्यार्थियों से बेहतर इसकी हक़ीकत और कौन समझ सकता है? इस विश्वविद्यालय का लालन-पालन देश के महान नेताओं, विचारकों, समाज सुधारकों और साहित्यकारों द्वारा हुआ है। यह ज्ञान का वो सागर है जिसमे जो जितनी गहरी डुबकी लगाना चाहे लगा सकता है। इसकी गहराई अनंत है। इस अनंत गहरे सागर से समय-समय पर बहुमूल्य मणियाँ निकलती रही हैं।

जामिया का स्थापना दिवस महज़ औपचारिक कार्यक्रम नहीं है। यह वह समय है जब यहाँ के विद्यार्थी बेफ़िक्री से मौज-मस्ती करने के लिए आज़ाद होते हैं। यूँ तो वे हर दिन आज़ाद होते हैं और हर दिन क़ैद भी, मगर इस आज़ादी की भावना स्थापना दिवस के उत्सव रंग से रंगी हुई होती है। स्थापना दिवस पर तालीमी मेले में क़दम रखते ही ऐसा प्रतीत होता है जैसे पूरा जामिया सिमट कर एक मैदान में समा गया हो। एक तरफ से चलना शुरू करें तो दो-तीन क़दम चलते ही नए विभाग का स्टाल नज़र आता है। कहने और दिखने में मात्र स्टाल ही हैं। मगर आपके पास हट कर देखने का दृष्टिकोण है तो इन स्टालों पर सम्बंधित विभागों की मुख्य विशेषताओं की झलक दिखाई देने लगती है। तालीमी मेले का सबसे बड़ा सकारात्मक पहलू यह है कि यहाँ आने वाले दर्शक सभी विभागों की मुख्य-मुख्य विशेषताओं से परिचित होते हैं। मज़े की बात यह है कि हर साल तालीमी मेले में हर विभाग के पास कुछ ना कुछ अलग और नया देखने को मिलता है। जैसे-जैसे दिन ढलता जाता है और शाम क़रीब आती है तो लोगों की चहल-पहल और बढ़ जाती है।
AJKMCRC GATE

अक्टूबर के अंत की इन तीन ठंडी शामों में जामिया बड़ी गर्मजोशी से कार्यक्रमों में आने वाले अथितियों का स्वागत करता है। स्थापना दिवस की शाम अनेक रंगों से रंगी होती है। या यूँ कहेँ कि सतरंगी होती है। यह रंग आम दिनों में देखने को नहीं मिलती, दोपहर संगीत और क़व्वाली के रंग में डूबी हुई तो अगले पहर यह नृत्य के रंग में रंगी हुई। शाम ढलते-ढलते इस पर ग़ज़ल का रंग चढ़ जाता है। और जब ग़ज़ल का रंग जामिया के वातावरण में मिल जाये तो शायराना ख़ुश्बू की महक तो आनी लाज़मी ही है।

यह सत्य है कि ज्ञान को जितना बांटों उतना बढ़ता जाता है और धन बांटने से घट जाता है। इसे हम ज्ञान का मंदिर कहें या ज्ञान का सागर मगर एक बात ज्ञान बांटने के सन्दर्भ में समझ आती है कि कहने को तो यह 96वें वर्ष का प्रौढ़ जामिया है। मगर यह प्रौढ़ नाममात्र कहने को है। छात्रों की गतिविधियों को देखते हुए और आधुनिकता से सामंजस्य बिठाते हुए जामिया हरदम युवा लगता है। यह हर वर्ष अपने स्थापना दिवस पर नया हो जाता है। नई आशाएं, नए विचार, और नई ऊर्जा के साथ भर उठते हैं।

नोट:- (मूल रूप से जामिया समाचार पत्र में प्रकाशित अबुज़ैद अंसारी द्वारा लिखित यह लेख दिनांक 29 अक्टूबर 2016 के संपादकीय पृष्ठ से लिया गया है।)


Abuzaid Ansari

अबुज़ैद अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया (नई दिल्ली) में जनसंचार मीडिया / पत्रकारिता के छात्र हैं। आप जीवनमैग के सह -संपादक हैं, और नवाबों के शहर लखनऊ से ताल्लुक़ रखते हैं। 

Wednesday, 7 September 2016

न सर पे ताज (ग़ज़ल) -ज़ुहैबुद्दीन

न सर पे ताज-ए-फज़ीलत न शान बाक़ी है
कहूँ मैं किससे कि मुझमे भी जान बाक़ी है

किसी भी हाल में मंज़िल से दिल नहीं बहला
अभी निगाह में शायद उड़ान बाक़ी है

पड़ा जो वक़्त तो तिनके को तीर कर लूँगा
अभी तो हाथ में मेरे कमान बाक़ी है


                                                     picture credit :trans4mind.com

 बहुत ग़ुरूर है तुझको खला नवर्दी पर

नज़र उठा के अभी आसमान बाक़ी है

बचा के हिस्से का अपने सफ़र में रखता हूँ
मैं जानता हूँ मेरी दास्तान बाक़ी है

दिए हैं ज़ख्म बहुत तूने बारहा लेकिन

ऐ जिंदगी तेरा अब भी लगान बाक़ी है

-ज़ुहैबुद्दीन चौधरी 


                                                                 ज़ुहैबुद्दीन चौधरी 
                                                              शिक्षक, हिंदी विभाग
                                                जामिया मिलिया इस्लामिया (नई दिल्ली) 

Sunday, 14 August 2016

Independence Day: A time to celebrate and reflect upon- Akash Kumar

It's not just an occasion to celebrate but also to reflect upon where we are headed as a country. As much as it is the moment to take pride in the fact that we have proved Churchill wrong and one of the greatest experiments in the history of democracy has endured, it's also the time to further strengthen the democratic and secular values of our beloved motherland.



In the land of Buddha, a deficit of centrist middle ground is quite evident in politics. Either you are "right" or "left", "with us" or "against us". There is no other way. While the left's lament regarding the freedom of speech and intolerance are heavily exaggerated, the space for dissent in public sphere has shrunk. It's not just the government and the bigoted right wing internet army that is to be blamed, but even the self-proclaimed leftist intellectuals are surprisingly very intolerant to any differences in opinions. Lack-lusture communism is busy finding refuge in caste-based identity politics. The term "secularism" in present Indian context has changed its meaning to suit the vote bank politics which means ignoring the menace of Islamic extremism. On the other end of the political spectrum, bigotry and jingoism have donned on the veil of nationalism. Those against the government are being branded "anti-nationals" in no time. The definition of nationalism has narrowed down to symbolisms of various kinds rather than any material contribution to the nation and its people. The narrow concept of "Nationalism" is a European export to India and was somewhat necessary for our struggle for Independence. But, in spirit we have always been the country of Vasudhaiva Kutumbakam (The world is our family). Ending on an optimistic note, I would like to quote Nobel Laureate Rabindranath Tagore on his vision of India:
"Where the mind is without fear and the head is held high
Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake."
🇮🇳Happy Independence Day🇮🇳
Photo Courtesy: Giphy.com

Akash Kumar is the Editor-in-chief of Jeevan Mag. A first year student at the Department of Humanities and Social Sciences at the Indian Institute of Technology-Madras, he is also an alumnus of the YES Program of the US Department of State.
It's not just an occasion to celebrate but also to reflect upon where we are headed as a country. As much as it is the...
Posted by Akash Kumar on Sunday, 14 August 2016

Tuesday, 31 May 2016

Behind The Veil Of Poverty -Wasim Ahmad Alimi


The darkness was decreasing. The sun was about to rise. And the birds in the branches of nearby trees began chirping to announce the upcoming morning of the day. As soon as Shukru got up , he heard the sniffles of his wife, Tajo who was sitting beside him on the bed and her baby was in her lap.
" What made you cry early in the morning ? " Asked Shukru.
" The condition of my baby is getting worse. He is not going to convalesce from his illness. He did not sleep all night and so did I." Tajo said wiping the tears from her eyes.
" We have already spent the certain amount of money for his pill and potions. Now we have no money to go to the threshold of doctor ." Tajo added.
" Yes, we are under the clasp of poverty from which release seems impossible." Shukru said in a sorrowful voice.
Shukru was true , as his house was a fine specimen of poverty. The house was made of bamboo-pieces with a roof of dry and long hays beautifully interlocked by the strong braided fiber cords. The house had a large room in which this poor family used to live, sleep and eat. It had no veranda, no separate kitchen or bed room.The floor was always crammed with the utensils of usual life. In a corner of the home there was a fourposter bed. And thereunto was a shabby wrapped mosquito net. The griminess on their bed-sheet was enough to witness their impoverished lives. In their open yard was an oven beside a pyramid of cow- dung which Tajo used as fuel for cooking. It was their entire life that was already full of trials and tribulations. But now for some days they have been at the end of their tether since their only son, Razi had fallen ill and due to lack of money this married couple was unable to buy necessary medicines for their heart and soul, Razi.
Tajo put her Razi into cradle and swept the floor with a quite murmur of regret;
" Almighty has written all problems in my fate. The problems which are never going to be solved. O God! Why don't You send Your angel of death to anatch me away? If it is life, the death is better........."
Shukru who was nerby somewhere and brushing his teeth with neem twig , heard whtever she was muttering about her sorrowful life.
" Gnaw the bone that is fallen to thy lot."
Said Shukru to his waife.
" You always talk about fortune and taqdeer. You see this kind of fate is worse than death, don't you? But I want my Razi to live a long life. Save him somehow." Tajo said in a resenting tone.
"Razi is as beloved of you as mine. I will leave no stone unturned to cure him. Today is the day of Lakhwa Bazar. I will earn there some money by selling pumpkins. Then we shall carry our son to the doctor and he will have to get better." Shukru said.
Shukru is a green grocer, a poor vegetabe seller whose short income of veg-selling can hardly fulfil the necessities of life rather than extricate and banish him from poverty and helplessness. He and people like him have a world of trouble and suffering. The life of a vegetable man means no happiness. Whatever it means is poverty.
It was afternoon. The sun was getting hotter and hotter. Now Shukru was getting ready to go to a weekly market , Lakhwa Bazar to sell the vegetables. He packed his burlap sack with green pumpkins and stuffs. Shukru wounded a ragged towel round his head turban like which was slightly awry . This turban helps him to escape a litte from the draining burden of bumpkins. The sack of his pumpkins was more heavy than his own weight , so his wife helped him to lift his pile upto his head.
One has to cross two Kms on foot and six Kms by a local train to reach the market from where Shukru lives. Now the heft of pumpkins was on Shukru's head almost breaking his back. He and a seris of vegetable men came out from the squad , thier heads beneath thier loads and they are on their feet in a row like ants hurriedly towards Balam Railway Station fromwhere they will take their bundle of vegetables to Lakhwa Bazar by a local train.
If you have ever visited the country-sides you must know how dusty roads they have. The green grocers turned white as they followed the dusty way. The way was arboured by the network of mango trees. The wind was blowing with the clouds of dust and the dry leaves were falling from the branches. The road had no other traveller than some veg- sellers and hawkers from different villages. They did not stop their journy until they reached the station.
'Balam Railway Station ' was carved on the forehead of the main gate in English ,Hindi and Urdu in their respective order from top to bottom. Shukru and fellows made a heap of their loads in a side of the vestibule. The north wall of this entrance hall had a torn table-fare upside and a thousand dots of colourful spittles in bottom , as though it were the spittoon of the travellers. There was a small ticket counter which had a broken glass window in the vestibule. They took their valid tickets and lifted the loads up to their heads by the help of each other and entered the platform.
The platform had two railway tracks ,one small shelter just in middle , some broken cemented chairs , one or two hand pumps which had no handle to fetch water and a small controller room in which station master and some employees were busy paying their duties. The platform was full of hurly-burly. Hawkers and vendors were wailing to and fro incessantly; Tea, hot tea' ' Gram, fried gram' ' peanuts for time pass' . Porters dressed in red clothes were walking back and forth in search of their clients. These veg sellers crossed the crowd and put their packed sacks on a raised heap of broken bricks forth side of the platform where the second coach of a local train usually stays.
Shukru who was very anxious about his ailing baby , squatted down the ground near his sack of pumpkins. His crumpled and untidy clothes were damp with perspiration. He was lost in deep meditation about the serious condition of his son.
" I wll expend for the potions of Razi whatever I will earn today at market . No matter if we will have to famish two or three times."
Shukru said to himself.
Here at home, Tajo spread out a woven mat of date leaves under the guave tree in her yard and kept moping about the recovery of her baby longing for the prosperity with which the master of the family is due to come back till evening. She waited and waited looking at the door.
Here at the station Shukru too was waiting but for a local train amongst his co- workers. Meantime an RPF came cavorting to them. All of them ducked to see that monster policeman. He closed to them chewing a betel leaf. He ejected the amount of red saliva from his mouth with a rude noise. The splashes of his spittle rained on the bricks just beside where Shuru was sitting. Some of his saliva drops stuck in his dense mustache and some spotted upon his uniform near his chest.
" What have ye packed in yer sacks? So heavy luggages ye all carry in trains."
 The policeman barked at them by injecting his club in thier sacks . It was his common technic of asking the vendors for the bribe . They all paid one by one a certain amount of penny to him to get rid of his bite else Shukru . The policeman twirled his club and attended to him.
" O stubborn dog! Do ye want to be arrested or ye are a relative of Rail Minister? Why ye are not paying?"
 The policeman scolded Shukru.
" Sir , I am already indepted . I have no piece of coin to pay." Shukru said.
" So , how will ye go without paying the protection tax"
The piliceman blurted out.
While the bargaining was continue between them their respective train blowing it's wishtle arrived at the platform. The passangers packed themselves in the couches and the veg sellers uploaded their sacks but Shukru who was still under the clasp of the policeman couldn't.
" Sahebji! I will pay your all taxes some other time.Today I can't. Now let me go."
Shukru begged with folded hand.
"If ye don't have money to pay , ye won't be allowed to upload your sack in the train."
The policeman announced his judgement. The harshness was clear in the credence of his voice. Now the train began to blow it's wishtle as a sighn that it was ready to leave the platform.
" Sahebji! For the sake of God , please let me go or else my son will die of his illness."
Shukru dropped to the policeman's knees and requested. The train wishtled again and got to run.
" Go "
The policeman said in an unsympathetic manner and shuffled away. Some people saw all these from a distance in silence. A coolie helped Shukru to lift his load up to his head . Now the train was getting speed , Shukru started to step fastly beside the train. The pile of pumpkins created difficulty for him to get on a running train as it is always for any body. After ten or eleven steps he threw the packed sack of pumpkins inside the door of a coach , the sack settled in his intended place but Shukru himself collapsed under the gigantic wheels of the train. A blood curdling scream arose in the platform.Women and children began to cry and people crowded the venue of accident.
Stop! Stop! , Pull up the alarm chain!
People shouted.
The train stopped with a strict break and greater noise. The gory and bruised corpse of the poor green grocer was taken out of wheels. Shukru who was quite alive a few minutes ago was no more.
People burning in rage hunted the same policeman who caused Shukru's death but in vain. The silent murderer , the mean policeman had flown away.
Alas for the life of Tajo!
The unexpected and an accidental demise of Shukru made his wife alone a widow and his son an orphan. Hence a middle-aged Tajo was left destitude for the upkeep of her orphan baby . Defeated by the life she started begging at the same railway platform where her husband took his last breathe.

                        × × THE END × ×

Written by: Wasim Ahmad Alimi
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Wasim Ahmad Alimi is from Urdu Department of Jamia Millia Islamia, New Delhi. He is a youth short- story writer and poet in both Urdu and English. He has also translated some literary books and stories.

Monday, 30 May 2016

ये कैसी आज़ादी है? -हसन चौधरी

देश में अब बर्बादी है
ये कैसी आज़ादी है

क्या सपने उनके झूठे थे
जो आज़ादी पर मर मिटे थे
स्वयं हिंसा करते फिरते हैं
फिर कहते गांधीवादी है

देश में अब बर्बादी है
ये कैसी आज़ादी है

अब अश्रुधारा बहती है
पल पल मुझसे कहती है
इस देश को तुमने दिया है क्या?
इस देश का तुमने किया है क्या?
तुम आज़ादी का हक़ क्या जानो
भ्रष्टाचारों, अपराधों से
देश की नाक कटा दी है



देश में अब बर्बादी है
ये कैसी आज़ादी है

आओ फिर वो देश बनाएँ
भ्रष्ठाचार को मिल के मिटाये
आओ शहीदों के सपनों को
मिल मिल कर साकार बनायें

लगे देश में अब आज़ादी है
लगे देश में हाँ आज़ादी है

-हसन चौधरी

हसन चौधरी जामिया मिल्लिया इस्लामिया में बी० ए० हिंदी (ऑ) के छात्र है।

Wednesday, 18 May 2016

पुरस्कार नहीं चाहूँगा (कविता) -अबुज़ैद अंसारी

प्रज्वलित होता दीपक हूँ 
शांति प्रकाश फैलाऊँगा
विकीर्ण होती अशांति पर 
नीर बन गिर जाऊंगाछिन्न पत्र में फिर से मैं हरित क्रांति लाऊँगा

कृत्यों पर कोई पुरस्कार दे
पुरस्कार नहीं चाहूँगा

अविराम शांति विकीर्ण हो
गर्व से सिर उठा,
निर्भीक हो
पृथ्वी से व्योम तक
शांति प्रकाश फैलाऊँगा

कृत्यों पर कोई पुरस्कार दे
पुरस्कार नहीं चाहूँगा

पथ पर शूल हों
वायु में चिंगारियां
जल का सैलाब हो
हिमाद्रि सी पहाड़ियाँ
मूक होकर लक्ष्य को
स्वयं भेद जाऊँगा


कृत्यों पर कोई पुरस्कार दे
पुरस्कार नहीं चाहूँगा

-अबुज़ैद अंसारी


अबुज़ैद अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया (नई दिल्ली) में जनसंचार मीडिया / पत्रकारिता के छात्र हैं। आप जीवनमैग के सह -संपादक हैं, और नवाबों के शहर लखनऊ से ताल्लुक़ रखते हैं। 

Monday, 16 May 2016

हिन्द का कलाम (नज़्म) -अबुज़ैद अंसारी

मर कर नहीं मरा वो इस हिन्द का ग़ुलाम
ज़िंदा अभी दिलों में है हिन्द का कलाम

छोटी सी झोपड़ी में चमका वो दीप बनकर

या था कोई सितारा रामेश्वर के ऊपर


उसने किया जहाँ में ऊँचा वतन का नाम

ज़िंदा अभी दिलों में है हिन्द का कलाम


फोटो क्रेडिट: सुहैब, कक्षा 7, ब्रेन्स कान्वेंट स्कूल -लखनऊ

वो एक कुआँ है जिससे सेराब होंगी सदियाँ
जिससे बहेंगी हर सू इल्मों हुनर की नदियां

वो अम्न का सिपाही, अम्न था पैग़ाम
ज़िंदा अभी दिलों में है हिन्द का ग़ुलाम



अबुज़ैद अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया (नई दिल्ली) में जनसंचार मीडिया / पत्रकारिता के छात्र हैं। आप जीवनमैग के सह -संपादक हैं, और नवाबों के शहर लखनऊ से ताल्लुक़ रखते हैं। 

Thursday, 12 May 2016

The Inner Voice (Poem) -Wasim Ahmad Alimi

I am here , but my heart is somewhere
The time is too difficult without you , to spare
If you don't mind , I would dare
To say " you are my love " please be aware .
O chaste ! When the splashes of thy love ,
are not on the surface of my heart ,

It is a ravaged and dreary desert .
I open my lips to say and blurt
I wanna peck a soft kiss on your smiling lips,
O my houris ! Be attentive and alert.
You are my love , you are my love .




Wasim Ahmad Alimi is from Urdu Department of Jamia Millia Islamia, New Delhi. He is a youth short- story writer and poet in both Urdu and English. He has also translated some literary books and stories.

Saturday, 7 May 2016

माँ और बचपन की याद (नज़्म)-वसीम अहमद अलिमि

मेरे बचपन का मुझे सारा ज़माना याद है।
माँ तेरी आग़ोश में वो मुस्कुराना याद है।

थपकियाँ देना तेरा लोरी सुनना याद है।
मेरी खुशियों के लिए वो गुनगुनाना याद है।

उँगलियों को थाम कर चलना सिखाना याद है।
माँ की ममता का मुझे सारा फ़साना याद है।

मेरी नन्ही आह पर आँखों का नम होना तेरा
मेरी राहत के लिए वो रात भर जगना तेरा


मुझको रोता देख कर दौड़े हुए आना तेरा
अपने आँचल के तले वो गोद में लेना तेरा

रात में जुगनू दिखा मुझको डराना याद है

माँ तेरी शफ़क़त का हर किस्सा फ़साना याद है।
ये जो मेरी ज़िन्दगी है, माँ का ही एहसान है।

माँ की अज़मत पर न्यौछावर ज़िन्दगी और जान है
-वसीम अहमद अलिमि

वसीम अहमद अलिमि जामिया मिल्लिया इस्लामिया में उर्दू विभाग से सम्बन्ध रखते हैं। आप युवा कथाकार तथा कवि है और कई अलग अलग साहित्यिक पुस्तकों के अनुवादक भी हैं।






Saturday, 12 March 2016

तुझे जाना बहुत दूर है (कविता) - अबुज़ैद अंसारी


हार कर तू हार को
क्यों अपनी हार मानता है।
बीच राह में क्यों ठिठक कर
लक्ष्यहीन हो तू खड़ा है।
लक्ष्य को आयाम दे
पंखों को उड़ान दे
तेरा लक्ष्य बहुत दूर
तुझे जाना बहुत दूर है।

उपवनों को देखकर
क्यों रुके तेरे क़दम
साथियों की महफ़िलों में
कहाँ खो गए पथिक तुम
हे ! पथिक चलो बढ़ो
लक्ष्य बहुत दूर है।
तेरा लक्ष्य बहुत दूर
तुझे जाना बहुत दूर है।



                                                        Photo credit: vandaelecapital.com

कंटकों का पथ है आगे
तम से ना डरो पथिक
तुम निरंतर बढ़ चलो
पर्वतों पर चढ़ चलो
तुम अजेय बनो पथिक
तुम बनो शूर
तेरा लक्ष्य बहुत दूर
तुझे जाना बहुत दूर है।

कल जो तुझमे लालसा थी
वह कहाँ गई पथिक
क्यों रुके तेरे क़दम
चल पड़ो  तुम हे ! पथिक
कंटकों से, उपवनों से
पर्वतों से आगे
लक्ष्य बहुत दूर है।
तेरा लक्ष्य बहुत दूर
तुझे जाना बहुत दूर है।

- अबुज़ैद अंसारी



अबुज़ैद अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया (नई दिल्ली) में जनसंचार मीडिया / पत्रकारिता के छात्र हैं। आप जीवनमैग के सह -संपादक हैं, और नवाबों के शहर लखनऊ से ताल्लुक़ रखते हैं। 


Monday, 25 January 2016

I'm ugly and proud

Photo Credit: giphy.com
I'm ugly. No I'm not creating any drama. I'm just stating the obvious. I'm ugly. Why? Cause I don't have a 6 pack, I'm not fair, I don't have a lean physique and I'm pretty sure I have grey hair. Well ain't that the definition of 'handsome' these days? And I heard being a girl is way harder. 34-36-34 figure, a good rack, butt, long hair, manicured hands, fair, perfectly applied makeup and be prim and proper all the times. Well at least that's the definition of 'hot' that I've heard so far. Now I'm pretty sure, by now I have made you self conscious and must be checking out your body. Right? Now I'm not trying to lower your self esteem. I'm just giving you a reality check of how we perceive beauty in today's world.

Should I tell you a secret? Only 6% of the worlds population look like the definition of handsome and hot I gave above. The rest of the 94% looks just like you and me. I mean how do you actually measure someone's beauty? How can you tell that by having a perfect hour-glass figure or having 6 packs make you look sexy? I've never really understood beauty.

Now I'm not going to go real deep and tell you all that true beauty lies within. That's crap - no one really believes that. Everyone falls for a person with attractive physical features, and if your going to say you don't - then you're lying. I hate the term 'beauty' 'handsome' and 'hot' - these words make a person feel insecure. These days everyone is trying to look perfect. But for whom?

I have nothing against people who look perfect, to each their own choice. What I'm more concerned is the direction we're all heading towards. Personally I'm proud of the way I look - I don't exercise more than I need to, I never diet and I dress in the most absurd clothes you can think of. It is us that has made such a fake perception of beauty that the real meaning of beauty has been lost amidst the standard of beauty that 'media' and 'people' has set. Some people go to such length to look perfect that they starve themselves.

I just want to emphasize that the only person you should look good for is you yourself. Beauty is not physical appearance, beauty is self confidence. Physical appearance is just for what 30 or 40 years maximum, but what about after that? Your body will not remain the same forever. Will you still have your perfect figure and 6 packs when your old. The real beauty is making others awestruck of your presence and radiance and no matter how perfect you try to look - it's the inner self belief and confidence that can bring out that aura. For me beauty is very realistic. I find beauty in simple things - such as how much you respect woman, or how you treat someone younger than you or simply taking a stroll while having a hearty laugh.

And if you consider beauty to be to look perfect - then I'm happy being ugly.


This blog post is inspired by the blogging marathon hosted on IndiBlogger for the launch of the #Fantastico Zica from Tata Motors. You can apply for a test drive of the hatchback Zica today.

A series of skype group conversations beetween students from India & Pakistan

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