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Friday, 11 December 2015

The "So-Called" Feminism

Feminism is being taken to a whole new level of stupidity in today's world. I, just like most of you, am a firm believer of female rights, but some so called 'feminists', or should I say 'Feminazis' have compelled me to write out my frustration.

Last year celebrities such as Beyonce, Jane Lynch and others started a world wide campaign called Banbossy.com, in order to ban the word 'bossy'. The idea behind this so called 'campaign' was that females are less interested in leadership because they are worried of being called bossy. I find that an insult to females because that just implies that they are weak to overcome the torture of a word. 

Meanwhile Iraqi parliamentarians were discussing to pass a new law LEGALIZING MARITAL RAPE and PROHIBITING WOMEN TO LEAVE THEIR HOME WITHOUT HUSBANDS' PERMISSION and legalizing 'MARRIAGE OF 9-YEAR-OLD-GIRLS' last year. Alas, feminists were too busy banning a choiced 'words' to take notice. And neither did these so called 'feminist' put any pressure of Saudi Arabia when a new law was passed that 'FEMALE DRIVERS WOULD BE CHARGED AS TERRORISTS.'


Another thing feminist's wanted to ban was 'MAN-SPREADING.' Apparently feminists didn't want men to sit with their legs spread in public transports and places. They called it a 'SPACE ISSUE.' They wanted men to sit with their legs crossed over each other. Now I may even agree to that in certain context but what's the hell does it mean to start a new hastag on twitter called #KillAllMen. 

Underscoring once again how many feminists have misappropriated the women's right movement into an excuse for hating men. And that too was okay for twitter, but when one women dared to start a hastag revolt called #WomenAgainstFeminism, feminists demanded twitter to suspend her account. Talk about comradeship. Meanwhile #ISIS was asking twitter followers on ways how they can kill and torture the captured Jordanian pilot. 

While a women was stoned to death in the Middle East for not marrying the family's choice of suitor (Honor Killing), the feminists of the free world were busy demanding that they be allowed to post pictures of their 'NIPPLES' or 'NIP-PICS' on Instagram. Meanwhile is selling females into slavery for as low as $10 but no, feminists were busy making nudity into a political movement. Yes, this is the big freedom feminists are fighting for. Talk about priorities. 

And then on Facebook, yet again 'feminists' strike. Calling and updating 'ALL MEN ARE THE SAME.' What does that even prove? 2 question:
1) Does that include your father, brother, uncle, husband and friend in that same category?
2) Did you do a survey on the 3+ billion men in this world?

Long gone are the days when feminism actually stood for something. When feminists were taking the correct stands for voting rights, women's right to buy property, demanding that females be not treated like a second class citizen. Today, feminism has become a joke and some 'feminists' are making a mockery out of feminism. Get your priorities right!

Ashneel J Prasad is  the Oceania (New Zealand/ Fiji) correspondent of JeevanMag.com A Fijian of Indian descent, Ashneel is currently a student of B.A communications at Massey University, Auckland, New Zealand.


Silent Sorrow- Shadab Khan

Tonight,

as I stand in the middle of incomplete us,

I hear the leaves whisper;


They tell me about-

the million sunsets that faded

and the one that lived.


That one sunset in my heart,

which I have

lighted forever.



They tell me about-

How I've been burning in water and

How I never loved you,

drowning in flame.

I lived you.


And I stand there

moon collapse,

while the ocean stills and

into ten thousand fragments of me,

which you could never love;

Or, you just pretend not to?


and I, on our meeting ­bridge

Tonight,

"Only the moon

alone, growing cold"

by knowing-


Every me is longing you;

Longing us.


MD. SHADAB KHAN is pursuing his Bachelors degree in Business from Jamia Millia Islamia, New Delhi. He was India's youth ambassador to the United States on YES program of the US Department of State during the year 2013-14.

Thursday, 29 October 2015

खिलौने देकर बहलाने की कोशिश!

सोचिए तो हंसी आती है कि देश के असाधारण साहित्यकारों एवं लेखकों को कितनी आसानी से तमन्नाओं में उलझाने और खिलौने दे कर बहलाने की कोशिश की जा रही है । साहित्यकारों के साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने और पद छोड़ने की प्रक्रिया से परेशान होकर अकादमी ने 23 अक्टूबर 2015 को अपने कार्यकारी मंडल की आपातकालीन मीटिंग बुलाई थी, इस मीटिंग में प्रोफेसर एमएम कलबुर्गी की हत्या की निंदा करने के बाद बड़ी सादगी से पुरस्कार लौटाने और पद छोड़ने वाले साहित्यकारों से अपील की गई कि वह अपने पुरस्कार वापस ले लें और अपने पदों पर आकर फिर से काम शुरू करें । 

चार घंटे चली इस बैठक में जो प्रस्ताव पारित हुआ उसमें एमएम कलबुगी के अलावा किसी और पीड़ित का नाम नहीं लिया गया । अकादमी ने केवल एक लाइन में यह कहकर दामन बचाने की कोशिश की कि "जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जी रहे नागरिकों में हो रही हिंसा की भी वह(साहित्य अकादमी) कड़े से कड़े शब्दों में निंदा करती है"।
यह प्रस्ताव एक दो लेखकों को खुश तो कर सकता है परन्तु देश के ज्यादातर विद्वानों एवं साहित्यकारों का दिल नहीं जीत सकता । अबतक 40 से ज्यादा साहित्यकारों ने अपने पुरस्कार लौटाए और पद त्याग दिए हैं । और चूँकि अवार्ड लौटना साहित्यकारों का कोई सामूहिक फैसला नहीं था, इसलिए उन मे से हर एक की उत्तेजनाएं अलग अलग थीं ।
एमएम कलबुर्गी की हत्या 30 सितम्बर को हुई, तबसे अखलाक की हत्या तक 6से 8 के बीच लेखकों ने पुरस्कार वापस किए थे । फिर 28 अक्टूबर को दादरी में अख्लाक की हत्या की गई । इस हिंसा के बाद लेखकों में अवार्ड वापस करने की होड़ सी मच गई ।अतः यह कहना उचित होगा कि कलबुर्गीजी की हत्या से सम्मान लौटाकर विरोध करने की प्रक्रिया शुरू हुई थी, परन्तु इस प्रक्रिया में तूफ़ान अखलाक की हत्या के बाद आया । नयनतारा सहगल का साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटना एक तूफ़ान की आरंभ था । और सहगल ने पुरस्कार लौटाने के बाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ खान-पान एवं पूजा-पाठ की स्वतंत्रता की वकालत की थी । इन्हीं मूल अधिकारों को लेकर बड़ी संख्या में साहित्यकरों ने विरोध प्रकट किया ।
इस सन्दर्भ में देखें तो अकादमी द्वारा पारित प्रस्ताव अधूरा मालूम होता है । प्रस्ताव में सम्पूर्ण साहित्यकारों की मंशा एवं उनके मांगों का आधा ख्याल रखा गया है । कई साहित्यकारों की उत्तेजनाओं का प्रस्ताव में ज़िक्र ही नहीं आया । इस बारे में नयनतारा सहगल का बयान आया है:" साहित्य अकादमी का जवाब देर से आया है. और प्रस्ताव देश के बड़े मुद्दों को जगह देने में नाकाम रहा है. प्रस्ताव में व्यक्ति के स्वतंत्रतापूर्वक खान-पान और पूजा-पाठ करने के मामलों एवं अधिकारों को भी शामिल किया जाना चाहिए था".हाँ ! प्रस्ताव में एक जगह समाज के विभिन्न समुदायों से एकता और समरसता बनाए रखने की गुज़ारिश की गई है.किन्तु सहगल इन दुर्घटनाओं के लिए समुदाय को ज़िम्मेदार नहीं मानती हैं । उन्हों ने कहा :" मेरे विचार में यह सही नहीं है. कोई समुदाय चिंता का कारण नहीं बन रहा है. बल्कि तथाकथित हिंदुत्व विचारधाराओं के मानने वाले बीजेपी और कुछ छोटे दलों के अराजक तत्व लोगों पर हमला कर रहे हैं " ।
प्रस्ताव में इतनी सारी कमियों के बावजूद अकादमी ने साहित्यकारों से पुरस्कार एवं पद वापस लेने की अपील की है । प्रश्न उठता है कि अकादमी के इस निवेदन पर साहित्यकारों की प्रक्रिया क्या होगी?क्या साहित्यकारों का आक्रोश केवल एक एमएम कलबुर्गी की हत्या से जुड़ा हुआ था? साहित्य अकादमी द्वारा कलबुर्गी के क़त्ल की निंदा और हत्यारों के खिलाफ कार्रवाही की मांग अवार्ड लौटाने वाले साहित्यकारों की आखिरी मंजिल साबित होगी? उत्तर मालूम है नहीं । उनकी मांगें सीमित नहीं थी । उनके इस विरोध में उन घट्नाओं का भी बड़ा योगदान था जिनका ज़िक्र प्रस्ताव में नहीं किया गया । इस के बावजूद साहित्य अकादमी साहित्यकारों को किस मुंह से अवार्ड वापस लेने की बात कह रही है । उसके आचरण को देखकर अहमद फ़राज़ की लाइन याद आती है ।
"अपनी आशुफ्ता मेज़ाजी पे हंसी आती है''
मेरी राय है कि साहित्य अकादमी फिलहाल साहित्यकारों को पुरस्कार वापस देनें की चिंता छोड़ कर उनकी मांगों पर ध्यान केन्द्रित करे । सम्पूर्ण लेखकों की मांगों को प्रस्ताव में शामिल करे और उन्हें पूरा करने के लिए सरकार पर दबाव बनाए । 


हसन अकरम जामिया मिल्लिया इस्लामिया के उर्दू विभाग के छात्र हैं।

Monday, 12 October 2015

एक कसक दिल की दिल में दबी रह गई... -हसन अकरम

आज से चार पांच वर्ष पहले जब एक मित्र ने मुझे यह बताया था, कि जावेद इकबाल जीवित हैं तो मुझे यक़ीन नहीं आया था मैंने उससे कई बार प्रश्न किया था:"किया वही जवेद इकबाल' जो शायर-ए-मशरिक़ के पुत्र हैं ? जावेद इकबाल के नाम से मुझे वह घड़ी याद आ गई जब छठी कक्षा में कमर-ए-आलम सर ने इकबाल की एक कविता जिसका शीर्षक "जावेद के नाम " है' सुनाई थीऔर इसकी पृष्ठभूमि बताते हुए कहा था कि यह कविता अल्लामा इकबाल ने अपने इसी पुत्र जावेद इकबाल के लिए लिखी थी। 






इस याद के साथ जब मैंने जावेद इकबाल के जिंदा होने की बात सुनी तो दिल में एक हुल्बुलाहट सी होने लगी मेरा दिल कहने लगा मुझे उस हस्ती से अवश्य मिलना चाहिए तब मैंने सोचा था, कि मैं जावेद इकबाल से ज़रूर मुलाक़ात करूंगा मैं उस हस्ती से मिलूँगा जिसके शरीर में इकबाल का लहू दौड़ता है मैं उस व्यक्ति से मिलूँगा जिसे इकबाल ने अपनी कोशिशों के द्वारा महानता के इकबाल तक पहुँचाया था मैं उससे मिलकर उन हाथों को चूम लूँगा, जिन पर शायर-ए-मशरिक़ के स्पर्श मौजूद हैंमेरी आँखों को उस बेटे का दीदार हो जाएगा जिससे इकबाल की यादें जुड़ी हैं किन्तु यह सब सोचने के कुछ ही छणों बाद मुझे एहसास हुआ था, कि 62 साल पूर्व के बटवारे में इकबाल पाकिस्तान के हिस्से में चले गए थे, इसलिए आज भी उनका परिवार पाकिस्तान में निवास करता है अतः जावेद इकबाल से मिलने के लिए मुझे संयुक्त विरासतें रखने वाली भूमि के बीच खड़ी की गई सीमा को पार करना होगा एवं इसको पार करने के लिए मुझे पासपोर्ट और वीजा प्राप्त करने होंगे, जिसका खर्च सहन करने की क्षमता मुझ में नहीं थीतब फिर मैंने सोचा था कि जब मैं अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊंगा और कुछ धन इकट्ठा करलूँगा तो पासपोर्ट एवं वीज़ा प्राप्त करके अपने महबूब जावेद इकबाल से मिलने जाऊंगा परन्तु मेरे इस कल्पना के पूरा होने का प्रकृति ने इंतजार नहीं किया.और इसी 3 अगस्त को उनके देहान्त के साथ ही मेरा सपना अधूरा रह गया




हसन अकरम

उर्दू विभाग,जामिया मिलिया इस्लामिया

Friday, 9 October 2015

शरद ऋतु का आगमन (फ़ीचर) -अबुज़ैद अंसारी

अक्टूबर माह की शुरुआत हो गई, दिन एक - एक कर के गुज़र रहा है, साथ ही मौसम करवटें ले रहा है। अब शाम दूसरी ऋतुओं की तुलना में जल्दी होती है। रात के आखरी पहर में हल्की - हल्की ठंडक चादर ओढ़ने और पंखा बंद करने पर मजबूर करती है। मौसम के आने की इस आहट से लगता है कि अब अधिक दिन नहीं बचे शरद ऋतू के आने में, हर प्रकार के मौसम में अलग ही आकर्षण होता है चाहे सर्दी हो या गर्मी या बसंत या बरसात सब अपने आप में सुन्दर, आकर्षण और बहुत ही अलौकिक हैं जो इस धरती पर फैली समस्त प्राकृतिक को खुद में समेट कर अपने रंग में रंगने में सक्षम हैं। सर्दियों के मौसम आते ही तापमान घट जाता है, लोगों की वेशभूषा बदल जाती है, वहीं गर्मी की चिलचिलाती धूप गुनगुनी और आनंदमय लगने लगती है। ओंस की बूंदे पेड़ - पौधों के पत्तों पर बिखर कर मोतियों सी प्रतीत होती हैं। दूर कहीं ऊंचे -ऊंचे पर्वत बर्फ की मोटी-मोटी परतों से ढक कर भोर में सूर्य की किरणों से चाँदी की तरह चमकते हैं।


Photo credit: adirondack-park.net
मैदानी इलाक़ों में फैले बड़े - बड़े मैदान जो ज़मीन को आसमान से मिलाने की क्षमता रखते हैं उनका क्षितिज भी धुंध से धुंधला पड़ जाता है। मगर उन मैदानों पर गेंहूँ की बालियाँ सूर्य प्रकाश में सोने सी चमकती हैं। प्रवासी पक्षियों का आवागमन शुरू हो जाता है, वन हो या छोटा या बाग़, हमें अलग अलग प्रकार की पक्षियों के देखने और उनकी सुरीली ध्वनि सुनने का अच्छा अवसर मिलता है। प्राकर्तिक के आँगन में शरद मौसम की इस बहार से सुंदरता और भी बढ़ जाती है। गुलाब, गुलदाउदी, नरगिस ना जाने कितने अलग - अलग प्रकार के पुष्प दूर दूर तक अपना साम्राज्य स्थापित कर लेते हैं। शरद ऋतु की सामाजिक और धार्मिक महत्वता प्राकर्तिक महत्वता से कम नहीं है। यही तो वह मौसम है जिसमे व्रत उपवास, त्यौहार, तीर्थ, पूजा, समाहित है। यह ख़ुशी उल्लास और उमंग का मौसम है। जहाँ इस मौसम में ख़रीफ़ की कटाई होती है वही दूसरी ओर दिन रात काम करने वाला देश का अन्नदाता किसान रबी की फ़सल बोने की तैयारी करता है। वाणिज्य और व्यापार के लिए सबसे अनुकूल मौसम, अधिकतर विवाह भी इसी मौसम में होते हैं इस प्रकार से शुभ आयोजन, स्वच्छता आदि से इस मौसम का गहरा संबंध है। इस तरह शरद ऋतु अपने सौंदर्य के साथ श्रृंगार करने में सक्षम है। इसके आगमन से प्रकृति का मिजाज़ तो बदलता ही है , हमारे अपने रीति - रिवाज, संस्कार, पहनावा रहन - सहन में भी कई महत्वपूर्ण बदलाव आ जाते हैं।

-अबुज़ैद अंसारी

अबुज़ैद अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया (नई दिल्ली) जनसंचार मीडिया / पत्रकारिता के छात्र हैं। आप जीवनमैग के सह -संपादक हैं, और नवाबों के शहर लखनऊ से ताल्लुक़ रखते हैं। 




Thursday, 30 July 2015

डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम : हमारे सच्चे मार्गदर्शक को श्रद्धांजलि -अबुज़ैद अंसारी


बहुत देर से कई घंटों तक क़लम हाथ में लिए बैठा रहा, सोचता रहा क्या लिखूं, हज़ारों लाखों शब्द दिमाग़ से हृदय - हृदय से दिमाग़ की ओर दौड़ते रहे। मैने आज अपने जीवन में ऐसी ख़ामोशी का एहसास किया जिसकी मैने कभी कल्पना भी नहीं की थी। ऐसी ख़ामोशी जिसमे अपने हृदय के चीख़ - चीख़ कर रो देने की आवाज़ प्रतीत की की, एक पल के लिए रगों में दौड़ता हुआ ख़ून ठंडा सा होता प्रतीत हुआ, इस पल में लगा जैसे धरती पैरों से खिसकी नहीं खिसका दी गई हो। ये वो पल था जब मेरी छोटी बहन ने दौड़ते हुए आकर मुझे समाचार दिया

"भारत के पूर्व राष्ट्रपति काका कलाम नहीं रहे"

ये मेरे लिए बहुत मुश्किल समय था कि मैं खुद को इस बात पर विश्वास दिला सकूँ, बार बार हृदय से यही प्रशन उठते 'क्या ये सच है? या महज़ एक सपना? 26 जुलाई की रात मैं पिताश्री से उनकी ही चर्चा कर रहा था और 27 जुलाई को ये सब हो गया। आज का दिन तो और दिनों की ही तरह था, देखने पर कोई बदलाव तो प्रतीत नहीं हो रहा था, मगर सोचनें पर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे सब कुछ बदल गया हो, मैं उलझन में पड़ गया था कोई शब्द ही नहीं थे कि किसी से कुछ कहूँ या खुद से कुछ कह सकूँ, मैने घर से बाहर निकल कर सड़कों पर दौड़ लगा दी, जिधर गया जिधर से निकला मातम सा छाया हुआ था। लोगों के चेहरों पर एक अजीब थी, कोई किसी से कुछ नहीं कह रहा था। हर तरफ़ बस एक ख़ामोशी थी। इन उदास और ख़ामोश चेहरों के पीछे मैं रोते हुए चेहरों को साफ़ - साफ़ देख सकता था। ये हाल सिर्फ़ मेरे शहरवासियों का ही नहीं बल्कि हर उस भारतवासी का था।

कलाम जिनके लिए एक मार्गदर्शक थे। उनको प्यार करने वाला ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं होगा जिसकी आँखें आज नम ना हुई हों, मैं स्वयं रोया था , मगर ये सोच कर आँसू छुपा लिए कि कहीं कोई देख ना ले, सारा देश आज शोकाकुल है। आज भारत माँ ने अपना सच्चा सपूत खोया है। आज हम सब ने ऐसे व्यक्ति को खो दिया जो कभी अपने लिए नहीं जिया, बल्कि लोगों के लिए जिया। उनके चले जाने से हम सब के बीच एक ख़ालीपन सा महसूस हो रहा है, जिसकी भरपाई शायद ही हम कभी कर सकें।



Photo Credit: indianexpress.com


कलाम साहब बहुत साधारण से व्यक्ति थे , मगर उनका व्यक्तित्व असाधारण था। विशेषरूप से युवा पीढ़ी और बच्चों के वो सच्चे मार्गदर्शक थे। उनका जीवन एक मिशन था, उन्होने अपने जीवन को कई अलग -अलग भूमिकाओं में एक साथ जिया, एक लेखक के रूप में, एक कवि, वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ, दार्शनिक, विचारक और वे इन सभी भूमिकाओं में खरे थे। एक आम ग़रीब छोटे से परिवार होने के बावजूद भी उन्होंने कामयाबी के कई बड़े आयामों को तय किया और स्वयं को सिद्ध कर आसमान से भी ऊँची बुलंदियों को छुआ। वे एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जो अपनी प्रतिभा के बल पर भारत के राष्ट्रपति बने। अपनी दूरदृष्टि से उन्होने अपने सपनों का नहीं भविष्य का भारत देखा था। "मिशन 2020" इसका सबसे उपयुक्त उदहारण है। हम सब देशवासियों को इस भविष्य के भारत को भविष्य में नज़र आने जैसा बनाने के लिए "मिशन 2020" से जुड़ जाना चाहिए और इसे सच करने के लिए कलाम साहब के बताए सिद्धांतों पर चलना चाहिए। मेरी दृष्टि से यही डॉ कलाम को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
वो चमकता हुआ हीरा थे। जिसकी चमक भारत ही नहीं बल्कि सारे विश्व में फ़ैली, जो आज भी क़ायम है। वो हीरा हमने ज़रूर खो दिया मगर उसकी दी हुई चमक हमारे आस - पास आज भी बाक़ी है। क्यों ना हम सब इस चमक से लबरेज़ हो जाएं। 

-अबुज़ैद अंसारी 

अबुज़ैद अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया (नई दिल्ली) जनसंचार मीडिया / पत्रकारिता के छात्र हैं। आप जीवनमैग के सह -संपादक हैं, और नवाबों के शहर लखनऊ से ताल्लुक़ रखते हैं। 




Wednesday, 29 July 2015

जीवन मग टीम की ओर से डॉ कलाम को भावभीनी श्रद्धांजलि

पूर्व राष्ट्रपति भारत-रत्न वैज्ञानिक डॉ एपीजे अब्दुल क़लाम का आई.आई.एम शिलांग में  छात्रों को सम्बोधित करते वक़्त दिल का दौरा पड़ने से बीते सोमवार 27 जुलाई को निधन हो गया. अचानक हुई इस अपूरणीय क्षति से भारतीय जनमानस सन्न रह गया. जीवन मग की टीम ने भी क़लाम साहब को अपने शब्दों में श्रद्धा-सुमन अर्पित किये:-

Sketch by: Mr. Anil Bhargava, Graphics Designer, JeevanMag.com

Words would never suffice to explain the irreparable damage caused to the nation by Dr. APJ Abdul Kalam's demise! Dr....
Posted by Akash Kumar on Monday, 27 July 2015
President, Scientist, Poet, Author, Statesman and the ultimate Role-model for the Indian youth.The man who taught the...
Posted by Akash Kumar on Monday, 27 July 2015
कलाम साहब नहीं रहे... वर्षों बाद समूचा देश रो रहा है... इस महान शिक्षक, वैज्ञानिक और पब्लिक प्रेजिडेंट को हमारा शत शत नमन... ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना.... !!
Posted by Nandlal Sumit on Monday, 27 July 2015
बहुत देर से कई घंटों तक क़लम हाथ में लिए बैठा रहा, सोचता रहा क्या लिखूं, हज़ारों लाखों शब्द दिमाग़ से हृदय - हृदय से दिमाग़ ...
Posted by Abuzaid Ansari on Thursday, 30 July 2015
कुछ कहने का मन नहीं है और आवश्यकता भी नहीं है। जिन्होंने 'गांधी' को मरते देखा होगा वो शायद इस दुर्घटना की तुलना कर सकते ...
Posted by Raghavendra Tripathi on Monday, 27 July 2015
वो महलों में नही मरे..नाही वो बिस्तर पर आराम कर रहे थे...उम्र का तकाजा तो थालेकिन वो सार्वजनिक जीवन से दुर होकर नही मरे...
Posted by Aminesh Maurya on Monday, 27 July 2015
आज मैं सुबह जगा तो उदास था। मौसम उदास था। सुबह उदास थी। इसलिए मैं कॉलेज नहीं जाने को सोच रहा था। पर घर पर कुछ ज्यादा ही ...
Posted by Kuldeep Kumar on Tuesday, July 28, 2015

Sunday, 28 June 2015

बदलते बर्मा में राह तलाशता चीन

हाल ही में बर्मा की लोकतंत्र समर्थक नेता और नोबेल (शांति) विजेता आंग सान सू की ने चीन की राजनीतिक यात्रा की है. चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी के आमंत्रण पर यह उनकी पहली चीनी यात्रा थी. इस पाँच दिवसीय (दस से चौदह जून) यात्रा ने वैश्विक मीडिया में खूब सुर्खियाँ बटोरी.

गौरतलब है कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने सू की से मुलाक़ात करने के लिए प्रोटोकॉल तोड़कर उनका स्वागत किया. कुछ वर्षों पूर्व तक यही चीन बर्मा में लोकतंत्र के लिए संघर्ष करने वाली सू की की नज़रबंदी का हिमायती था. वहीं दूसरी ओर चीन में लोकतंत्र के लिए संघर्ष करने वाले नोबेल (शांति) विजेता लेखक लू श्याबाओ आज भी एक कैदी का जीवन जीने को बाध्य हैं. उन्हें रिहा करने की पश्चिमी देशों की अपील को चीन बार-बार ठुकराता रहा है. सू की का बर्मा में वही स्थान रहा है जो चीन में लू का है. जाहिर है चीन अपने राजनीतिक और सामरिक हितों को साधने के लिए किसी भी वैश्विक विचारधारा और राजनीतिक हस्ती (सत्ताधारी या गैर-सत्ताधारी) से हाथ मिला सकता है. चीनी अख़बार ग्लोबल टाइम्स ने अपने संपादकीय में लिखा- “दुनिया इस भ्रम में न रहे कि बर्मा में लोकतंत्र की स्थापना की पहल से दोनों देशों के रिश्तों में कमी आई है. दोनों देश पारस्परिक साझेदारी से क्षेत्रीय विकास के लिए प्रतिबद्ध हैं.” दूसरे नज़रिए से देखें तो पहले से ठीक विपरीत आज चीन औचित्यपूर्ण उदारवादी सोच की ओर अग्रसर हो रहा है. लेकिन इस पर भरोसा करना असहज है और खासकर भारत के लिए तो मुश्किल भी.

चीन बर्मा में सैन्य शासन का पुरज़ोर समर्थक रहा है. लेकिन फिलहाल बर्मा की सेमी-सिविलियन सरकार के काल में दोनों देशों के संबंध कमजोर हुए हैं. जनता के भारी विरोध के बाद थेन सेन सरकार ने चीन की तीन महत्वाकांक्षी मूलभूत ढांचा विकास परियोजनाओं- लेप्टाडाँग तांबा खदान, मित्सोने पनबिजली बाँध और रक्खिने (बर्मा)- कुनमिंग (चीन) रेलमार्ग विकास परियोजना को रद्द कर दिया था. जिससे बर्मा में चीनी निवेश पिछले 4 वर्षों में 8 अरब डॉलर (2011 में) से घट कर महज 50 करोड़ डॉलर (2015 में) रहा गया है. इससे बर्मा में चीन के बढ़ते प्रभाव को जबरदस्त झटका लगा है. वहीं चीन बीते चार महीनों से बर्मा सीमा पर कोकांग क्षेत्र में हो रहे जातीय विद्रोह और पनपते उग्रवाद से भी परेशान है.
सू की से मुलाक़ात में चीनी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने उन्हें अपने पक्ष में करने की भरसक कोशिश की है. म्यांमार में इस साल के अंत तक आम चुनाव होने हैं. संभव है, इसमें सू की के नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी को बहुमत प्राप्त हो. चीन इस संभावित जीत में अभी से ही अपनी संभावनाओं की तलाश कर रहा है. वह बर्मा के लोगों का विश्वास फिर से हासिल करने के लिए सू की की लोकप्रियता का सहारा लेना चाहता है.

दूसरी तरफ बर्मा में सैन्य शासन की स्थापना (1962-63) से ही भारत और बर्मा के रिश्तों में ठहराव आ गया. 1993 के बाद पीवी नरसिंहाराव और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के प्रयासों से म्यांमार की चीन पर निर्भरता घटी और बाकी दुनिया से अलगाव भी कम हुआ. वहीं विश्व के सबसे विशाल लोकतंत्र भारत ने कभी सू की और उनकी पार्टी के लोकतांत्रिक संघर्ष का भी मुखर रूप से समर्थन भी नहीं किया. सू की का भारत से बस इतना रिश्ता है कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ी हैं. क्या इस रिश्ते को कूटनीतिक मोड़ नहीं दिया जा सकता

बीते सप्ताह भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और विदेश सचिव एस जयशंकर ने म्यांमार की यात्रा की. यह दौरा भारत के पक्ष में नहीं रहा. बर्मा ने दो टूक शब्दों में भविष्य में एनएससीएन (नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालैंड) के खिलाफ़ किसी भी सैन्य अभियान में भारत का सहयोग देने से इनकार कर दिया है. क्या यह इसी महीने हुए भारतीय सैन्य अभियान पर सरकार द्वारा ढिंढोरा पीटने का परिणाम है? या इसके पीछे बर्मा सरकार की कुछ और मजबूरियां हैं? बर्मा सरकार का कहना है कि चरमपंथियों के खिलाफ अभियान से उनके देश के भीतरी इलाकों में घुस आने का डर है. क्या यह सच और वाजिब है?

चीन अभी से ही भावी लोकतांत्रिक म्यांमार में अपनी संभावनाएं तलाश रहा है. वह बर्मा से हिन्द महासागर में सीधे प्रवेश का रास्ता ढूंढ रहा है. चीन धीरे-धीरे भारत को पश्चिम में पाकिस्तान, दक्षिण में श्रीलंका और पूर्व में म्यांमार की मदद से घेरने की कोशिश में सफल भी हो रहा है. ऐसे में हमें भी शीघ्र ही अपना रास्ता ढूंढ लेना चाहिए.   
नन्दलाल मिश्र जीवन मैग के प्रबंध संपादक हैं। सम्प्रति आप दिल्ली विश्वविद्यालय के संकुल नवप्रवर्तन केन्द्र में मानविकी स्नातक के छात्र तथा दिल्ली विश्वविद्यालय सामुदायिक रेडियो के कार्यक्रम समन्वयक है। आप बिहार के समस्तीपुर से ताल्लुक रखते हैं।

Tuesday, 26 May 2015

ई हs विज्ञापन के दुनिया, तू देख बबुआ

सुप्रीम कोर्ट ने जनता के पैसे से मीडिया में नेताओं के फोटो वाले विज्ञापन प्रसारित व प्रकाशित करने पर रोक लगा दी है. हालाँकि मोदी जी को इसकी छूट होगी. वह देश के प्रधानमंत्री हैं. प्रतियोगिता-परीक्षा के लिए सामान्य ज्ञान में वृद्धि हेतु जानना लाभप्रद रहेगा कि यह छूट राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को भी प्राप्त होगी.

कुछ मुख्यमंत्रियों को इस नियम से आपत्ति है. अरविंद इनमें नहीं हैं. उनके विज्ञापन एफ़एम पर आते हैं. रेडियो में तस्वीर की झंझट होती ही कहाँ है. विज्ञापन जितना लम्बा चाहो बजवा लो. वैसे, आजकल के चौबीस गुना सात एफएम चैनलों से केवल विज्ञापनों के ही तो कार्यक्रम आते हैं. हाँ, बीच-बीच में ब्रेक के तौर पर कुछ गाने बजा दिए जाते हैं. शेष समय मुर्गा-गधा-उल्लू इत्यादि बनाने में व्यतीत होता है. खैर, एफएम चैनलों पर असंतुष्ट नेताओं के लिए अपार संभावनाएं हैं.



अपने इलाके में एक पहुंचा हुआ रीमिक्सिया कलाकार है. पुराने गीतों में नए शब्द भरकर नित नव गीत रचते-गाते रहता है. लेकिन है वह समय के साथ चलने वाला. आज सुबह से ही तान छेड़ रखा है, “ई हs विज्ञापन के दुनिया, तू देख बबुआ.”

ऑटो- मेट्रो, अख़बार-टीवी, सिनेमा-खेल, कप-प्लेट, घर-दीवार, टी-शर्ट वगैरह... सर्वत्र विज्ञापन का ही राज है. जहाँ देखो वहीं विज्ञापन. थोड़ी सी स्पेस दिखी नहीं कि विज्ञापन ठूंस दिया. उसका सुझाव था, आप में योगेन्द्र- प्रशांत आदि के ब्रेक-अप से उत्पन्न रिक्त स्थान को भी विज्ञापनों से ही भर दिया जाए. संभव है, इससे पार्टी का अंतः कलह और क्लेश मिट जाए. विज्ञापन ‘नाशै रोग हरे सब पीरा’ है.

विज्ञापन के लिए ब्रेक चाहिए. ब्रेक का जीवन में बड़ा महत्व है. तथाकथित छोटे से ब्रेक के बाद ही तो बड़ी खबर आती है. बिना ब्रेक गिरने का डर रहता है, बाज़ार में गिरने का. ब्रेक के लिए ब्रेकर चाहिए, रोकड़ चाहिए. और इन सब के लिए कोई प्रायोजक चाहिए यानी स्पोंसर.

इस दौर में हर व्यक्ति, घटना, वस्तु, स्थान इत्यादि प्रायोजित हैं. सबका अपना-अपना स्पोंसर है. सब की स्पोंसरशिप होती है. पार्टी, नेता, जनता, वोटर सब स्पोंसर्ड हैं. स्पोंसरशिप ख़त्म, पार्टी चेंज. आम चुनाव एक लोकप्रिय विज्ञापन-प्रचार स्पर्धा है. जो विज्ञापन कला में निपुण होगा उसकी जीत होगी.

आज हर घटना प्रायोजित है. कॉलेज फंक्शन से लेकर विश्व भ्रमण तक के स्पोंसर हैं. हमारा आपका जीवन भी प्रायोजित है. जन्म, मृत्यु, विवाह इत्यादि सभी के प्रायोजक हैं. दहेज़ भी एक तरह की स्पोंसरशिप ही है. आज प्रेम भी स्पोंसर्ड परिघटना है. बिना प्रायोजक प्रेम असंभव है. प्रेम के लिए बज़ट चाहिए. पैसा खत्म, प्यार ख़त्म. जेब खाली कि बाय-बाय. यहाँ प्रेम की पराजय है. नगद नारायण की जय है.

एक तरफ दहेज़, हत्या, आतंकवाद, दंगा तो दूसरी ओर पद, प्रतिष्ठा, पुरस्कार सब प्रायोजित हैं. सब सौदा है. सबके स्पोंसर हैं. बीते दिनों नीतीश की सभा में दस-बारह साल के लड़के का प्रतिभाशाली भाषण हुआ. लोग शक कर रहे हैं, कहीं वह भी स्पोंसर्ड तो नहीं? क्या करियेगा, कुछ तो लोग करेंगे, लोगों का काम है शक करना- गायक गा रहा है.

और खेल? खेल तो पूर्णतः विज्ञापन का ही एक उपक्रम है. मसलन क्रिकेट की प्रत्येक गेंद, रन, ओवर, विकेट, टीम इत्यादि के स्पोंसर होते हैं. अब तो हार-जीत भी स्पोंसर्ड आने लगी है.

विद्वत जनों के अनुसार विज्ञापन ने मीडिया को खोखला कर दिया है. रेडियो, टीवी और अख़बार के बाद अब सोशल मीडिया भी इसकी गिरफ़्त में है. यहाँ अभी तक तो सब अपना ही विज्ञापन करने में व्यस्त हैं. लेकिन वह रात दूर नहीं जब अधिक फैन फोलोविंग वाले लोग अपनी-अपनी वाल पर मल्टी-नेशनल कंपनियों के विज्ञापन का पोस्ट डालना शुरू कर दें. कवि-कलाकार आदि अपने शो की टिकट बिक्री हेतु इस युक्ति का सदुपयोग कर ही रहे हैं. वहीं फेसबुक पोस्ट के मध्य में ब्रेक डालने पर विचार-मंथन जारी है. इन ब्रेक को विज्ञापन से भरा जा सकता है. परंपरानुसार किसी राजनेता से ही इस परियोजना के उद्घाटन की प्रतीक्षा है.


विज्ञापन एक कला है. फेंकने की कला. समेटने की कला. इसमें जीत है, पैसा है. इसमें सभी अलंकार हैं, रस हैं. छंद, लय, तुक, गति-यति, सौन्दर्य सब है. इसमें साहित्य है. समाज है. किन्तु विज्ञापन है तो मेकअप ही. बिना छपे- बिना दिखे मेकअप का क्या फ़ायदा? रीमिक्सिया बाबू गा रहा है- ई हs विज्ञापन के दुनिया तू देख बबुआ... एकाएक लय-सुर पलटता है और वह संजीदगी से गाता आगे निकल जाता है- ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है...  

नन्दलाल मिश्र जीवन मैग के प्रबंध संपादक हैं। सम्प्रति आप दिल्ली विश्वविद्यालय के संकुल नवप्रवर्तन केन्द्र में मानविकी स्नातक के छात्र तथा दिल्ली विश्वविद्यालय सामुदायिक रेडियो के कार्यक्रम समन्वयक है। आप बिहार के समस्तीपुर से ताल्लुक रखते हैं। 

Wednesday, 20 May 2015

अक्ल बड़ी या भैंस

सर्दी का महीना था और शाम का समय. दादा जी चादर ओढ़े आग के पास कुर्सी पर बैठे थे. आकाशवाणी से समाचार ख़त्म होते ही चारों तरफ से बच्चों की मंडली आ धमकी. सोनू, मोनू, मिठ्ठू, लालबाबू, टिंकू, रिंकी और अंजलि. सभी ने उन्हें घेर लिया और रोज की तरह कहानी सुनाने की जिद करने लगे.

आज भी पहले उन्होंने सबसे दिन भर की पढ़ाई-लिखाई का हाल पूछा और फिर कुछ देर तक चुप रहने के बाद कहानी सुनाने लगे. “सुनो बच्चों, आज मैं तुम्हें एक बहुत पुरानी कहानी सुनाता हूँ- बहुत पहले की बात है. मगध प्रान्त में पटसा नाम का एक गाँव हुआ करता था. गांव के बीचोबीच एक बड़ा कुआँ था. समय के साथ अब वह गांव का अकेला ऐसा कुआँ था जिसका पानी साफ़ और उपयोगी रह गया था. इसलिए उसी कुएँ के पानी से पूरे गाँव का खाना-पानी, नहाना-धोना सब चलता था. दिनभर वहां पानी भरनेवालों की भीड़ लगी रहती थी. लेकिन उस कुएँ का अहाता बहुत कम ऊँचा था इसलिए लोगों को गिरने का डर भी लगा रहता था.

“फिर क्या हुआ दादा जी”, अंजलि को बीच-बीच में यह प्रश्न दोहराते रहने की आदत थी. कहानी शुरू नहीं होती कि वह अंत जानने को आतुर हो उठती थी. बाकी बच्चे चुपचाप सुन रहे थे.

“फिर एक अमावस की अँधेरी रात जब पूरा गाँव गहरी नींद सो रहा था एक बूढ़ा भैंसा उस कुएँ में जा गिरा.”

“क्यों वह अंधा था ?” मिट्ठू हँसते हुए बोला. बाकी बच्चे भी खिलखिला कर हंस पड़े. लेकिन अंजलि उदास होकर बोली- “फिर क्या हुआ ?”

“हाँ वह अंधा था” दादाजी ने कहानी आगे बढ़ाई- “फिर सुबह होते ही जैसे ही लोग पानी भरने आये कुएँ में भैंसा को देख उनमें खलबली मच गयी. यह बात समूचे गांव में आग की तरह फैल गयी. सभी को यह चिंता सताने लगी कि अब वे पानी कहाँ से लायेंगे. हाँ, इससे पहले कि तुम लोग गंभीर चिंतन करने लगो, मैं बता दूँ कि उस समय चापाकल का आविष्कार नहीं हुआ था और पानी का प्रमुख स्रोत तालाब या कुआं ही होता था.”

“गाँव के लगभग सभी बड़े बूढ़े कुएँ के पास आ जमा हुए और भैंसा को बाहर निकालने की तरकीब ढूंढ़ने लगे. बड़ी और मोटी रस्सियाँ, मजबूत बांस के खंभे और विशाल लकड़ी के लट्ठे इकट्ठे किए गए. दूर दूर से नामी-गिरामी पहलवान बुलाये गए. सभी ने मिलकर भैंसा को रस्सी से बाँधकर बाहर निकालने की भरसक कोशिश की लेकिन उनकी एक न चली. सारे यत्न विफल हो गए.”

लालबाबू से नहीं रहा गया. वह हँसते हुए बोला, “भला उसे किसी मोटे भैंसा से ही क्यों नहीं खिंचवा दिया गया.” “नहीं-नहीं” अंजलि बोली, “उसे हाथी से खिंचवाना चाहिए था.” उसके भोलेपन पर बाकी बच्चे हंस पड़े. तभी मिट्ठू गंभीर होते हुए बोला, “तो आगे क्या हुआ दादा जी !”

“हाँ, लेकिन उस समय लोग तुम्हारी तरह होशियार नहीं थे.” दादा जी मुस्कराते हुए बोले और फिर शुरू हो गए- “सभी पहलवानों के छक्के छूट गए लेकिन भैंसा अपनी जगह से एक इंच भी नहीं हिला. बेचारा बहुत कष्ट में था. उसका गर्दन मुड़ा हुआ था, पीठ में छाले पर गए थे और उसके अगले पैर जस के तस टेढ़े पड़े थे जिसे वह चाह कर भी सीधा नहीं कर पा रहा था. गर्मी के दिन थे. दोपहर का समय हो रहा था. पहलवानों के पसीने छूटने लगे और वे थक हार कर पास के बरगद के विशाल पेड़ की छाँव में लेट गए.”

“तभी हँसते खेलते बच्चों का एक झुंड वहां से गुजरा. वे भी कुएँ में झांक रही भीड़ देख उधर की ओर बढ़े. अन्दर भैंसा को देख सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे. कुछ बच्चे भैंसे से बंधी रस्सी और बांस पर अपनी ताकत आज़माते हुए चिल्लाये- जोर लगा कर... हईसा ! जोर लगा कर... हईसा !”

हाहाहा... अंजलि और उसके दोस्त हंसने लगे. मिट्ठू बोला- जब उतने सारे पहलवान नहीं निकाल पाए तो ये बच्चे तो... हहहाहा....

अंजलि गंभीर होती हुई बोली, “हमारी ही तरह भोले होंगे.”

“इस बीच कुछ पहलवान फिर से जोर आज़माइश करने आ पहुंचे. उन्होंने बच्चों को डाँटते हुए भगा दिया.” दादा जी फिर शुरू हो गए- “अपनी मंडली का यह अपमान देख मंडली के सरदार रामलाल से नहीं रहा गया. उसने नेता की तरह ऐलान करते हुए कहा- यह काम तो हम चुटकी बजाते कर लेंगे. उसकी यह बात सुन पहलवानों ने जोर के ठहाके लगाये. रामलाल ने अपनी मंडली के सभी साथियों को बुला कर कुछ मंत्रणा की और फिर दो-दो के खेमों में बंटकर गाँव के अलग-अलग मुहल्लों की ओर निकल पड़े. जब वे लौटे तो प्रत्येक दल में दस-बारह बच्चे थे. वे अपने साथ एक-एक घड़ा भी ले आये थे.” 

“फिर क्या हुआ दादा जी”- अंजलि बोली.

“वे घला लेकल किया कलते ?”- छोटी रिंकी तुतलाती हुई बोली.

“बताता हूँ बाबा... बताता हूँ”, दादाजी ने कहानी आगे बढ़ाई- “गाँव के पास से ही एक नदी बहती थी. रामलाल ने अपने सभी साथियों को बीस बीस गज के फ़ासले पर नदी से लेकर कुआँ तक एक कतार में खड़ा कर दिया. और वह खुद सभी घड़े लेकर नदी किनारे पहुँच गया. वह नदी से पानी भरकर घड़ा दूसरे को बढ़ा देता, दूसरा तीसरे को, तीसरा चौथे को...और यही क्रम कतार के अंत में कुआँ के पास खड़े चंदन तक चलता रहता जो घड़ा का पानी कुआँ में उलटते जा रहा था. हर कोई अपना भरा घड़ा अगले को थमा देता और खली घड़ा पिछले को. इस तरह अगले कुछ घंटों में पानी से भरे सैकड़ों घड़े कुआँ में पलटे चुके थे. कुआँ का पानी धीरे धीरे ऊपर उठने लगा. पानी के साथ भैंसा भी ऊपर आने लगा. रामलाल और उसकी मंडली की इस करामात को देख गांववाले हैरान थे. शाम ढलते ढलते कुआं का पानी काफ़ी ऊपर तक आ गया था. तब सारे पहलवानों ने एक बार और जोर लगाया... जोर लगा कर... हईसा ! और देखते ही देखते भैंसा कुआँ के बाहर था.”

“गांववालों ने मिलकर झट से कुआं और उसके आसपास की सफ़ाई भी कर दी. अब कुआँ फिर से चालू हो गया. गाँव वाले बहुत खुश थे और रामलाल तथा उसकी मंडली की जमकर प्रशंसा कर रहे थे.”  

“दादा जी !” अंजलि गंभीरता पूर्वक बोली, “आज की कहानी से भी कोई शिक्षा मिलती है न ?

“हाँ बच्चों ! आज की कहानी से यही शिक्षा मिलती है कि जिसके पास बुद्धि है उसी के पास बल है.”


“हम भी होते तो यही कलते” रिंकी खुशी में उछलते हुए नानी की तरफ भागी जो अभी-अभी सबके लिए मिठाई लिए आ रही थी. बाकी बच्चे भी शोर मचाते हुए उसके पीछे भाग चले. 

नन्दलाल मिश्र जीवन मैग के प्रबंध संपादक हैं। सम्प्रति आप दिल्ली विश्वविद्यालय के संकुल नवप्रवर्तन केन्द्र में मानविकी स्नातक के छात्र तथा दिल्ली विश्वविद्यालय सामुदायिक रेडियो के कार्यक्रम समन्वयक है। आप बिहार के समस्तीपुर से ताल्लुक रखते हैं। 



Saturday, 16 May 2015

मुक्ति



आत्मा और परमात्मा का एकीकरण ही मुक्ति है. मुक्ति दो प्रकार से संभव है. या आत्मा परमात्मा में लीन हो जाए या आत्मा में परमात्मा ही समाहित हो जाए. पहली प्रक्रिया ‘प्रेम’ है. प्रेम से ममत्व भाव और अधिकार बोध उत्पन्न होता है. आत्मा का अहं विराट रूप ग्रहण कर अपने ममत्व में परमात्मा को समेट लेती है. दूसरी भक्ति है. भक्ति में आत्मा स्वयं के अहं का क्षय कर परमात्मा में विलीन हो जाती है. प्रेम में विशालता है, उदारता है. भक्ति में समर्पण और त्याग है. सेवा दोनों का ही मूल भाव है. एकाकार होने तक की प्रक्रिया जीवन है. प्रेम और भक्ति ‘सत्य’ रुपी मार्ग के दो पगडंडी हैं.

‘विकार’ मुक्ति-प्रक्रिया में विघ्न डालता है. वह सत्य के मार्ग से भटका देता है. सत्य का मार्ग मुक्ति का सबसे लघु मार्ग है. भटकने से विलंब की विशालता बढ़ती है. मनुष्य मुक्ति के लक्ष्य से निरंतर दूर होता जाता है. किन्तु विकार है क्या? घृणा, असहिष्णुता, स्वार्थ, वासना, लोभ, हिंसा, क्रोध इत्यादि विकार के अनेक रूप हैं. विकारों का कार्य-परिणाम ‘पाप’ है तो विकार मुक्त कर्मों का परिणाम ‘पुण्य’. पुण्य हेतु किया गया कार्य ‘धर्म’ और पाप फलदायी कर्म ‘अधर्म’ है.  


विकार मनुष्य को असत्य के मार्ग पर ले जाता है. असत्य के असंख्य मार्ग हो सकते हैं. सत्य का केवल एक ही मार्ग संभव है. किसी सत्य का वैकल्पिक प्रकटीकरण असंभव है. विकारों के संसर्ग से मनुष्य में दुर्बलता उत्पन्न होती है. किन्तु दुर्बलता की पकड़ दुर्बल नहीं होती है. जो एक बार इस डोर से बंध जाए लाख यत्न कर नहीं निकल पाता. ‘योग’ इन विकारों से मुक्ति की युक्ति है. और सबल, जो विकारों से मुक्त मनुष्य है वही सबल है. और सबल को ही मुक्ति अर्थात अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है.  


नन्दलाल मिश्र जीवन मैग के प्रबंध संपादक हैं। सम्प्रति आप दिल्ली विश्वविद्यालय के संकुल नवप्रवर्तन केन्द्र में मानविकी स्नातक के छात्र तथा दिल्ली विश्वविद्यालय सामुदायिक रेडियो के कार्यक्रम समन्वयक है। आप बिहार के समस्तीपुर से ताल्लुक रखते हैं।

A series of skype group conversations beetween students from India & Pakistan

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