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अनमोल वचन

Wednesday, 23 July 2014

"विप्लव"- उनकी यादोँ मेँ- अमिनेष

यह आँसु पलकों पे आने दो ज़रा
इन्हेँ ना रोको बहने दो ज़रा।


यह आँखो मे बसा प्यार हैँ
रिश्तो का एहसास हैँ।
कुछ वायदे हैँ,
कुछ कसमेँ हैँ,
वो पल हैं जब पल-पल हम साथ थे
वो बीते कल हैं जब हाथोँ- हाथ मेँ हाथ थे।
इन्हे अब बहने दो
ज़रा

इन्हेँ ना रोको,
इन्हेँ ना पोँछो,
उनके साथ चले जाने दो
ज़रा।

जो लौटने कि बात कह
अनंत के राही हो गए।
क्या है अनंत में
जो उन्हेँ भा गया?
अपनी हाथोँ जो दुनिया बसाई
उन्हे बह जाने दो
ज़रा। 


ना रोको यह दर्द
जो खुशी, जो प्यार दिल मेँ हैँ
पलकों  पे आने दो
ज़रा।

यह जिनकी अमानत हैँ
उनके साथ जाने दो
ज़रा। 

यह आँसू पलको पे आने दो ज़रा। 


अमिनेष आर्यन  काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र स्नातक के प्रथम वर्ष के छात्र हैं और हाजीपुर, बिहार से ताल्लुक रखते हैं।

Monday, 21 July 2014

चंद शेर- अबूज़ैद अंसारी

बयां करता हूँ क़िस्सा जब मुहब्बत का मैं लिखता हूँ 
क़लम भी ख़ूब रोता है ,वरक़ को दर्द होता है



बहोत ख़ामोश रहता है मगर नादां नहीं है "ज़ैद" 
उसे आवाज़ बनना है जिसे सदियों सुना जाए



अब ढूँढे तो कहाँ ढूँढे पाकीज़ा मुहब्बत "ज़ैद" 
हर दिल में बसी हुई है मुहब्बत के नाम पर हवस



मुझसे नफरत का सबब क्या है मुझे बतलाओ तो "ज़ैद"
मुझे दुश्मन को भी दोस्त बनाने का हुनर आता है



यूँ हँसकर मिलने से मुझसे तेरी फ़ितरत छुप नहीं सकती 
मुझे पढ़ना ख़ूब आते हैं मुस्कुराहटों के सबक़ सारे



मेरी ग़ज़लों में असर पहले सा बाक़ी ना रहा "ज़ैद"
मुझे ये चाह है फ़िर से कोई दिल तोड़ दे मेरा



अपनी मशाल दी थी उसे उजालों के वास्ते 
तेज़ रोशनी की चाह में मेरा घर जला दिया



मुझे दुश्मन नहीं मिटा सके लाख कोशिशों के बावजूद 
"ज़ैद" उसकी एक ना पे मैं मिट रहा हूँ अब



जो आँसू पोंछने वास्ते किसी दहलीज़ पर बैठे 
वहां भी रुस्वा करने में मुझे बख़्शा ना लोगों ने




अबूज़ैद अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामियानयी दिल्ली में बारहवीं कक्षा के छात्र हैं. आप जीवन मैग के सह-संपादक हैं और नवाबों के शहर लखनऊ से ताल्लुक़ रखते हैं.


नया भारत- आकाश

इंतेहा हो गयी इंतज़ार की! स्टेशन पर खड़े लोग भारतीय रेल को 'शुद्ध भोजपुरी' में गलियाते हुए लेट ट्रेन की राह देख रहे थे। प्रतीक्षा के बाद जब ट्रेन आई तो धक्का-मुक्की का दौर शुरू हो गया। हमने किसी तरह अपने 'वेटिंग 5' के टिकट पर खीस निपोरते हुए सीट ली। पर डर यह कि हमें ज़ल्द ही बेदखल न कर दिया जाये। 


कई छोटे-बड़े स्टेशन होते हुए ट्रेन एक अदने से स्टेशन पर आ रुकी। परन्तु वह स्टेशन ऐसे पुलकित न हुआ जैसे कोई ग़रीब मेज़बान किसी बड़े, अभिजात्य मेहमान को पाकर होता है। कारण कदाचित यहीं रहा होगा कि इस बड़ी ट्रेन को अक्सर क्रासिंग के कारणवश उस छोटे स्टेशन का आतिथ्य स्वीकारना पड़ता होगा। 

ख़ैर, सामने ही दूसरी ट्रेन लगी है। मैंने सर उठकर देखा तो दिखाई पड़ा 'केवल महिलाएं' लिखा हुआ डब्बा जिसमे न के बराबर भीड़ थी। उसमें बैठी एक हमउम्र तरुणी से नज़रें मिल गयीं और स्वाभाविक रूप से झेंप कर उसने अपना सर झुका लिया। उसके बगल में बैठा एक छोटा बच्चा, जो शायद उसका भाई रहा होगा, भुट्टे खा रहा था। बालसुलभ मुस्कान के साथ उसने मेरी ओर देखा और मैंने भी उसका ज़वाब भीनी मुस्कान के साथ दिया। 

"भईया, भईया… जूता पॉलिश करवाएंगे?"- नीचे से आ रही इस आवाज़ ने मेरी तन्द्रा को भंग कर दिया। देखा तो एक ग़रीब, फटेहाल, कमउम्र लड़का हाथ में पॉलिश व ब्रश लिए ट्रेन की फर्श पर बैठा था। बदहाली के बावज़ूद आँखों में आशा तथा चेहरे पर चमक ने उसकी क्षीणकाय काया को अलग रूप दे रखा था। 

"ये तो पढ़ने की उम्र है!"- अनजाने में मेरे भाव शब्दों का रूप ले प्रस्फुटित हो उठे।  

"पढता हूँ भईया! चौथी में हूँ। जोड़, घटा, गुना, भाग- यहाँ तक कि पढ़ना भी आता है। मैडमजी मुझे बहुत मानती हैं। "- कहते हुए उसका चेहरा गर्व से खिल उठा। मेरे हाथ से अख़बार ले पढ़ कर उसने इस बात की तस्दीक़  कर डाली। 

"तो फिर ये काम?"- हर्ष मिश्रित आश्चर्य से मैंने पूछा। 
उसका खिला चेहरा ऐसे बुझ गया जैसे बिजली टूट कर गिरी हो। 

"बापू बीमार हैं। घर में पैसा नहीं है। अब तो स्कूल भी छूट गया है। "

"ऐसे ऐसे बहुत देखे हैं!"- एक सहयात्री ने निहायत ही बेहूदाना अंदाज़ में तंज कसा। 

मेरा गुस्सा जाग उठा और उम्र का अंतर विस्मृत करते हुए मैंने उन्हें डांट पिला दी। - " आपको टांग अड़ाने का निमंत्रण किसी ने नहीं दिया। लड़का भीख नहीं मांग रहा, मेहनत की रोटी तोड़ रहा है।" शालीनता के दायरे में रह मैंने साहब को खूब खरी-खोटी सुनाई। 

लड़के से जूते पॉलिश करा एक पचास का नोट दिया जिस पर वह बाकी रुपये लौटाने लगा पर मेरे मनाने के बाद उसने पैसे रख लिए। उसकी आँखों में मैंने एक नया भारत देखा था… साधनों की तंगी के बावज़ूद आगे बढ़ने की उत्कट अभिलाषा। 

ट्रेन ने सीटी दी और गतिमान हो गयी। दूर खड़ा एक पागल ट्रेन पर पत्थर फेंके जा रहा था पर ट्रेन तो जैसे उसे मुंह चिढ़ाती, सरसराती, बलखाती, तेज़ी से काफी दूर तलक निकल आई थी। रुके हुए, ठिठके पड़े हिंदुस्तान ने शायद अब रफ़्तार पकड़ ली थी। मैंने खिड़की से झांककर देखा तो खेतों में फैली हरियाली के दर्शन हुए। अभी-अभी अंतःकरण की सरज़मीं पर बारिश  हुई थी- बारिश खुशियों की!

   आकाश कुमार जीवन मैग के प्रमुख संपादक हैं तथा सम्प्रति जामिया मिल्लिया इस्लामिया में बारहवीं विज्ञान के छात्र हैं। आप बिहार के मोतिहारी शहर से ताल्लुक रखते हैं। 

Sunday, 20 July 2014

फ़ीका जोश- नंदलाल




प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शपथग्रहण समारोह में सार्क राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित कर अपनी विदेश नीति का शानदार आगाज़ किया था. लेकिन दो महीने बाद वह जोश फीका पड़ता नज़र आ रहा है. उनका हालिया ब्राजील दौरा मिलाजुला रहा. यह भारत के लिए अंतर्राष्ट्रीय मंच पर कूटनीतिक धाक ज़माने का पहला मौका था.

ब्राजील जाते वक्त वे बर्लिन में जर्मनी के चांसलर एंगेला मर्केल के साथ डिनर करने उतर गए लेकिन मर्केल उस समय ब्राजील में फीफा विश्वकप का फ़ाइनल मैच देख रही थी. जिससे भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर थोड़ी बहुत शर्मिंदगी तो झेलनी ही पड़ी है. दूसरी ओर प्रधानमंत्री के इस कदम से जापान के नाराज होने का डर है जिससे उन्होंने सबसे पहले द्विपक्षीय समझौते करने का वादा किया है.

वहीँ फोर्टलेजा में मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग की मुलाकात के बाद मोदी-पुतिन बैठक होनी थी. प्रधानमंत्री दो घंटे तक पुतिन की प्रतीक्षा करते रहे लेकिन वे नहीं आये. फिर उनकी मुलाकात अगले दिन संभव हो सकी. इस तरह रूस ने दबी जबान भारत को कुछ सन्देश दिया है. गौरतलब है की बीते दिनों रूस के साथ पाकिस्तान के संबंधों में निकटता आयी है. रूस ने पाकिस्तान के हाथों हथियार बेचने का अपना प्रतिबंध वापस ले लिया है. उधर चीन ब्रिक्स बैंक का मुख्यालय अपने यहाँ ले जाने में कामयाब रहा है हालाकि इसका पहला सीईओ भारतीय होगा जो हमारे लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि तो है लेकिन पहले के अपेक्षाकृत कम.

कुल मिलाकर प्रधानमंत्री मोदी की यह महत्वपूर्ण यात्रा मिलेजुले परिणामों वाली रही. हाँ, उनलोगों को निराशा जरूर हुई है जो मोदी को मनमोहन सिंह की तुलना में अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अधिक प्रभावी देखने को इच्छुक थे. 
 हिन्दुस्तान के दिल्ली अंक में प्रकाशित 

प्रभात खबर पटना का प्रकाशित पत्र  


 जनसत्ता के चौपाल में प्रकाशित 


नन्दलाल मिश्रा 
 
प्रबंध संपादक - जीवन मैग www.jeevanmag.com

कार्यक्रम समन्वयक, डीयू कम्युनिटी रेडियो 

बी.टेक मानविकी (द्वितीय वर्ष),


दिल्ली विश्वविद्यालय


कश्मीर में सेना- कुलदीप कुमार

मुझे इस बार गर्मी की छुट्टियों में कोलकाता जाने का मौका मिला। वहां मेरे ठहरने की व्यवस्था आर्मी कैंप में थी। अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस कैंप बहुत मनभावन लगा। ये अलग बात है की तपिश के कारण परेशानियों का सामना तो करना ही पड़ा। फिर भी अपने घुमक्कड़ स्वभाव के अनुरूप लगभग सभी मशहूर जगहों यथा, बेलूर मठ, विक्टोरिया मेमोरियल, दक्षिणेश्वर काली मंदिर, कोलकाता और हावड़ा ब्रिज, साइंस सिटी, कोलकाता विश्वविद्यालय और प्रेसीडेंसी कॉलेज आदि घूमने का मौका निकाल ही लिया। महलों का ये शहर अतीत को समेटे आधुनिकता की ओर अग्रसर है। मेट्रो और ट्राम तो कोलकाता की शान हैं। 

मेरे अंदर जानने की जिज्ञासा जगी कि थलसेना यहाँ कौन-कौन से कार्यों के लिए तैनात है। मुझे बताया गया कि बगल में हुगली नदी में खड़े जहाजों की देखभाल थलसेना के ही ज़िम्मे है। जाकर देखा तो बहुत पुरानी लोहे की माध्यम आकार की चार जहाजें खड़ी थीं। चार जहाजों की देखभाल के लिए लगभग ३०० सेना के जवान और प्रति साल करोड़ों का खर्च। उत्सुकता और बढ़ी तो ये भी जानना चाहा की आख़िर जहाज का यहाँ क्या काम है। पता चला कि यदि बांग्लादेश से युद्ध छिड़ा तो इसका इस्तेमाल यातायात के लिए किया जा सकता है। मुझे यह भी बताया गया की शायद ही इसकी ज़रुरत पड़े। 

सेना के लगभग सभी जवान तीन या छह साल कश्मीर में गुज़ार चुके थे। मसला जब कश्मीर का चला तब लगभग सभी जवानों की याद कड़वी ही थी। कश्मीर में सेना का ये हाल सुनकर मुझे भी सोचने पर विवश होना पड़ा। सद्भावना मिशन के तहत कश्मीरी लड़कों की पढाई की समुचित व्यवस्था आर्मी स्कूल में- वो भी मुफ्त। मरीज़ों के लिए सेना अस्पताल बिलकुल फ्री। छह महीने राशन फ्री  छह महीने नाम मात्र के पैसे पर। आर्मी वालों के लिए भी कश्मीर में अलग नियम-कानून। सेना के जवानों की बन्दूक की नाल नीचे से ऊपर नहीं उठनी चाहिए। भीड़ में ग़र कोई आतंकवादी दिख जाये तो मारना नहीं है हाँ, अकेले में दिखे तो सिंगल शॉट में मारना है और वो गोली भी आतंकवादी को ही लगनी चाहिए। किसी आम आदमी को लग गयी तो सेना के उस जवान को अपनी छुट्टियों में सिविल कोर्ट जा कर मुकदमा लड़ना पड़ेगा। फ़ौज़ की कोई ज़िम्मेदारी नहीं। मतलब साडी छुट्टियां बर्बाद, विद्रोह का सामना अलग से। प्रायः सेना में गलती करने वाले का कोर्ट मार्शल अंदर ही होता है पर कश्मीर के मसलों में नहीं। जवानों को अलगाववादियों के पत्थरों की मार सहनी पड़ती है और उस स्थिति में भी छिपकर जान बचने के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं होता। पेट्रोलिंग रात १ से ४ के बीच होती है ताकि अलगाववादियों के प्रकोप का सामना न करना पड़े। एक जवान ने तो यहाँ तक कहा कि कुछेक लोग आतंकवादियों को दामाद की तरह घर में रखते हैं। सेना ये सारी बातें जानते हुए भी कुछ नहीं कर पाती। आतंकवादियों के लाश तक की स्थानीय लोग मांग कर देते हैं। एक सैनिक ने कहा कि वरिष्ठ अधिकारी कहा करते हैं कि बेटा कश्मीर आये हो तो मौत से खेलना तो है ही किसी तरह गाड़ी में छिपकर तीन साल का समय निकल लो, फायदे में रहोगे। 

कश्मीर में सेना द्वारा इतनी सुविधाएँ उपलब्ध करने के बावजूद ऐसी दुर्भावना बहुत ठेस पहुंचती है। सीमा पार से प्रायोजित आतंकवाद को अलगाववादियों का प्रश्रय मिला हुआ है। एसी में रहने वाले और कारों पर चलने वाले सिविल सोसाइटी के भद्रजन मानवाधिकारों पर होहल्ला तो बहुत मचाते हैं पर हकीकत में वे यथार्थ से बहुत दूर हैं। क्या मानवाधिकारों के घेरे में बस वे अलगाववादी आते हैं जिन्होंने हिंसा से घाटी को नर्क  बना रखा है? क्या उन सैनिकों का कोई मानवाधिकार नहीं जो अपनी जान की बाज़ी लगा माँ भारती के अखंडता की रक्षा कर रहे हैं? कश्मीर की समस्या का समाधान नितांत आवश्यक है। 

कुलदीप कुमार जीवन मैग की संपादन समिति के सदस्य हैं। आप जामिया मिल्लिया इस्लामिया में विज्ञान संकाय से कक्षा बारहवीं के छात्र हैं तथा मोतिहारी, बिहार से ताल्लुक रखते हैं। 

जुदाई (ग़ज़ल)- शबाब अंजुम

आज मैं जो कुछ भी हूँ अपनी तक़दीर के सहारे,
और जी रहा हूँ ज़िन्दगी उसकी तस्वीर के सहारे।



अब लगता ही नहीं दिल कहीं इस उजड़े चमन में,
चुरा लिया है दिल उसने किसी मुख़बिर के सहारे।

कोशिश कर रहा हूँ दिल बहलाने की इस उजड़े चमन में,
उसके हाथों से लिखे ख़त की तहरीर के सहारे।

लोग इश्क करके जीते हैं ज़िन्दगी मुफ़लिसी में,
क्या तू नहीं जी सकती ज़िन्दगी इस फ़क़ीर के सहारे।

अब मौत भी आती नहीं मांगने पर ख़ुदा से,
बाँधा हुआ है उसने रूह को किसी ज़ंजीर के सहारे।



शबाब अंजुम जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नयी दिल्ली में ग्यारहवीं विज्ञान के छात्र हैं। आप किशनगंज, बिहार से ताल्लुक रखते हैं।

Friday, 18 July 2014

इंटरव्यू का इंटरव्यू- विकास आनंद झा



दो-तीन दिनों से मेरे कान पक गये कि वैदिक जी एक आतंकवादी से मिले और ये काम तो बिना ISI या सरकार की सहायता के किसी पत्रकार के लिए संभव नहीं है.

हर टीवी चैनल पे, हर अख़बार में यहीं चर्चा है. विपक्ष सरकार को घेर रही है और सरकार अपने आप को पाक-साफ़ बता रही है जैसे उनका इस पूरे मामले से कोई नाता ही ना हो. सदन मे हंगामेबाज़ी ,सोशियल साइट्स पे कमेंटबाज़ी और टीवी पे बहसबाज़ी हो रही है. सड़कों पे पुतले फूंके जा रहे हैं.

सबको लगता है की शायद इससे पहले कोई आदमी मिला ही नही टेररिस्ट से. अक्सर ये चर्चा हमें फिल्म स्टार्स और अंडरवर्ल्ड के संबंधों के बारे में सुनने को मिलती है. (संजय दत्त, अनिल कपूर, सलमान ख़ान -दाऊद इब्राहिम). राहुल गाँधी वैदिक जी को RSS का आदमी बता रहे हैं तो कुछ भाजपा नेता कह रहे हैं कि राहुल पहले ख़ुद की पार्टी के बारे में पड़ताल कर लें.

इन सब बातों को छोड़ दें तो एक पत्रकार को पूरा हक़ है कि अपने काम को गोपनीय तरीके से अंज़ाम दे पर जब बात राष्ट्रीय सुरक्षा की हो और यह एक गंभीर मुद्दा बन गया हो तो ये वैदिक जी के लिए परेशानी का सबब बन सकती है. हम सभी ये जानते है की मीडिया हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होती है और मीडीया से जुड़े किसी भी संगीन मामले पे सरकार को सजग हो असरकार कारवाई करनी चाहिए. बाकी इन सभी घटनाओं ने पत्रकारिता को किस पैमाने पे लाकर खड़ा कर दिया है ये हम सभी अपनी आँखों से देख रहे हैं.

मुझे याद है मैंने कुछ साल पहले BBC के एक पत्रकार की नक्सलियों से बातचीत रेडियो पर सुनी थी. कई पश्चिम के पत्रकारों द्वारा लिए गये आतंवादियों के इंटरव्यू हमने पत्रिकाओं में पढ़ीं भी हैं. ये वो पत्रकार होते हैं जो निर्भीक और निष्पक्ष होकर पत्रकारिता किया करते हैं. पर यहाँ माज़रा कुछ और ही है- एक ओर जहाँ पाकिस्तान के एक चैनल को दिए गये इंटरव्यू मे वैदिक कश्मीर को अलग होने देने पर अपनी सम्मति जाहिर करते है तो दूसरी तरफ़ हिन्दुस्तान में कहते हैं कि ऐसा अगर होगा तो मेरे सर को धड़ से अलग करने के बाद होगा.

ये सारी बातें भारतीय मीडिया की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह खड़े करती है. वैदिक जी के इस कथित इंटरव्यू पर सवाल भी उठता है जो कि किसी भी जर्नल मे प्रकाशित नहीं हुआ. ये कैसा इंटरव्यू है??? साथ ही कश्मीर मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया देकर उन्होने अपने लिए एक और मुसीबत खड़ी कर दी. वैदिक जी के साथ ना तो हिन्दुस्तान के पत्रकार आ रहे हैं और पाकिस्तान के पत्रकार भी इस मुद्दे पर उनके साथ खड़े नही दिख रहे हैं.

अब तो बस इनके इंटरव्यू का इंटरव्यू हो रहा है.

विकास आनंद झा जीवन मैग के जनसंपर्क अधिकारी हैं तथा शैक्षिक सोशल नेटवर्किंग साईट कुंज के संस्थापक CEO हैं. आप फिलहाल  महर्षि अरविन्द इंजीनियरिंग कॉलेज, जयपुर से बी.टेक कर रहे हैं तथा पूर्वी चम्पारण, बिहार से ताल्लुक रखते हैं. 









 अद्भुत शैक्षिक नेटवर्क कुंज से यहाँ जुड़ें-

मोबाइल से यहाँ क्लिक करें- 


Tuesday, 15 July 2014

दिल बनारसिया (रिपोर्ताज)- अमिनेष

अस्सी घाट की सीढ़ियों पर जब बनारस की शाम ढलती है तो हरेक कदम अपनी ज़िंदगी की उलझनों को समेटे गंगा की ओर बढ़ता है- इस उम्मीद में कि शायद गंगा उन्हें अपनी लहरों पर बिठाकर मायावी दुनिया की छलावा-लबरेज़ जिंदगी से किसी सुकून और शांति के सुन्दर महासागर में ले चले जहाँ ना ये भागदौड़ हो ना ही हों वे अनसुलझे सवाल जिनके जवाब हम दिन रात बेचैनी से ढूंढते फिरते हैं.


शाम किस ओर ढली पता भी ना चला. चारों तरफ लालिमा छाई है, मानो आसमां ने श्रृँगार किया हो. गंगा कि लहरों में बलखाती दीपों की कतार और रोशनी की परछाइयों में झिलमिलाती गंगा अप्रतिम सुंदर लग रही है. बिल्कुल किसी ज़िम्मेदार जिंदगी की तरह बही जा रही है वह. आखिर हो भी तो क्यों नहीं, सारे मानव जाति को पापमुक्त करने का बीड़ा जो उठा रखा है.  दूर खामोश अँधेरे में, गंगा के उस पार एक झिलमिलाती रोशनी काशी नरेश की ऐतिहासिक भव्यता का दीदार करा रही है, रामनगर किले कि अटारियों से झाँकती यह प्रकाशावली इस बात का संकेत थी कि बनारस परिपूर्ण है- इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, धार्मिक संस्कारों एवं पवित्रता से और उस उमंग और नए जोश से भी जो सीढ़ियों पर गिटार की धड़कती तार पर थिरकती गुनगुनाती युवाओं की टोली में नजर आ रहा था... 
Give me some sunshine
Give me some rain
Give me another chance
I wanna grow up once again.
पता तक नहीं चला कि दिल को कब बनारस से मुहब्बत हुई और गंगा की लहरें कब एक दिव्य और अलौकिक आँचल से तन्हा शाम की सुरीली छांव बन गयी, बस निगाहें उस शाम उस हसीन सपने के आगोश में जागती रही- जहाँ सिर्फ सुकून था और अनहद आनंद भी. दिनभर के काम से थके नर नारी किसी अलौकिक सुकून और शांति की खोज में गंगा आरती की धुन पर अपना तन-मन रमाए बैठे हैं. उन सीढ़ियों पर जहाँ अँधेरा पसरा था प्यार के राही बैठे थे तो कहीं कोई तन्हा दिल गंगा कि धारा में पैर लटकाए बैठा था.
दूर नदी में रुक-रुक कर एक लहर सी उठती है और अपने साथ लाती है वह प्रतिध्वनियाँ जो दिव्य आभास कराती है- कभी कबीर के खंजरी की ताल गूंजती मर्मस्पर्शी दोहावली की तो कभी गंगा जमुनी तहजीब का पैगाम लिए बिस्मिल्लाह खान की मधुर शहनाई की. जैसे गीता की छाँव में कुरान की आयतें, मैं खामोश बैठा सुनता रहा और कभी-कभी पास के पान की दुकान पर रेडियो से बज रहा गीत- खइके पान बनारसवाला...

लेकिन गंगा के शांत प्रवाह में एक आह भरी कसक सी है... लाखों संतान हो जिसके, ना जाने क्यों वह माँ असहाय निर्बल सी कराह रही है...
अमिनेष आर्यन 

लेखक ने इसी वर्ष 12वीं उत्तीर्ण की है. बीते दिनों आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की दाखिला प्रक्रिया के सन्दर्भ में बनारस आते जाते रहे हैं. यह रिपोर्ताज आपने वहां से अपनी पहली यात्रा से लौटकर लिखा है. आपने बी.एच.यू के एंट्रेंस (अंडरग्रेजुएट, बीए, सोशल साइंस) में 135वाँ रैंक हासिल किया है. आपको समस्त जीवन मग परिवार की ओर से हार्दिक बधाई. 

आरज़ू (ग़ज़ल)- अबूज़ैद अंसारी

ग़म-ओ-दर्द की दवा की जाए
फिर से एक ग़ज़ल लिखी जाए

आंसुओ में क़लम डुबो कर
हर बात अब बयां की जाए





जिसने मरने की हमको बददुआ दी
उसके हक़ में अब दुआ की जाए

बस मेरी आख़री दुआ है खुदा
मेरी उम्र सारी उसको लग जाए

उसके लब से दुआ ना बददुआ सही
आमीन ! बददुआ क़बूल की जाए

या खुदा ज़िंदगी को अब मुकम्मल कर
मेरी रूह तन से अब जुदा की जाए

मेरे दो चेहरे उसका ऐसा कहना था
मैं बहुत ज़ेर उसका ऐसा कहना था

वो नहीं समझा ग़र समझ जाता
छोड़ो इस बात को क्यों हवा दी जाए?

अबूज़ैद अंसारी





अबूज़ैद अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नयी दिल्ली में बारहवीं कक्षा के छात्र हैं. आप जीवन मैग के सह-संपादक हैं और नवाबों के शहर लखनऊ से ताल्लुक़ रखते हैं.

क्या किया ये आपने (ग़ज़ल)- अबूज़ैद अंसारी

आपसे उम्मीद-ए-वफ़ा थी, क्या किया ये आपने
मेरे जज़्बातों पे खंजर चला दिया क्यों आपने

हम तो सजदों में खुदा से माँगते थे आपको
बदले में मर जाए हम, ये बददुआ दी आपने

आपने दिल ही ना तोड़ा ख़्वाब तक तोड़े मेरे
अब मरे या ना मरे, बर्बाद तो किया आपने

वो बददुआ के तीन लफ्ज़ भूला नहीं हूँ आज भी
ग़र मर गया तो लोग कहेंगे क्या किया ये आपने

है दुआ आप ख़ुश रहें कोई ग़म से रिश्ता ना रहे
हम तो जीते हैं उस ग़म में जो दिया है आपने

अबूज़ैद अंसारी




अबूज़ैद अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामियानयी दिल्ली में बारहवीं कक्षा के छात्र हैं. 
आप जीवन मैग के सह-संपादक हैं और नवाबों के शहर लखनऊ से ताल्लुक़ रखते हैं.

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