ग़म-ओ-दर्द की दवा की जाए
फिर से एक ग़ज़ल लिखी जाए
आंसुओ में क़लम डुबो कर
जिसने मरने की हमको बददुआ दी
उसके हक़ में अब दुआ की जाए
बस मेरी आख़री दुआ है खुदा
मेरी उम्र सारी उसको लग जाए
उसके लब से दुआ ना बददुआ सही
आमीन ! बददुआ क़बूल की जाए
या खुदा ज़िंदगी को अब मुकम्मल कर
मेरी रूह तन से अब जुदा की जाए
मेरे दो चेहरे उसका ऐसा कहना था
मैं बहुत ज़ेर उसका ऐसा कहना था
वो नहीं समझा ग़र समझ जाता
छोड़ो इस बात को क्यों हवा दी जाए?
अबूज़ैद अंसारी
अबूज़ैद अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नयी दिल्ली में
बारहवीं कक्षा के छात्र हैं. आप जीवन मैग के सह-संपादक हैं और नवाबों के शहर लखनऊ
से ताल्लुक़ रखते हैं.
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