इंतेहा हो गयी इंतज़ार की! स्टेशन पर खड़े लोग भारतीय रेल को 'शुद्ध भोजपुरी' में गलियाते हुए लेट ट्रेन की राह देख रहे थे। प्रतीक्षा के बाद जब ट्रेन आई तो धक्का-मुक्की का दौर शुरू हो गया। हमने किसी तरह अपने 'वेटिंग 5' के टिकट पर खीस निपोरते हुए सीट ली। पर डर यह कि हमें ज़ल्द ही बेदखल न कर दिया जाये।
कई छोटे-बड़े स्टेशन होते हुए ट्रेन एक अदने से स्टेशन पर आ रुकी। परन्तु वह स्टेशन ऐसे पुलकित न हुआ जैसे कोई ग़रीब मेज़बान किसी बड़े, अभिजात्य मेहमान को पाकर होता है। कारण कदाचित यहीं रहा होगा कि इस बड़ी ट्रेन को अक्सर क्रासिंग के कारणवश उस छोटे स्टेशन का आतिथ्य स्वीकारना पड़ता होगा।
ख़ैर, सामने ही दूसरी ट्रेन लगी है। मैंने सर उठकर देखा तो दिखाई पड़ा 'केवल महिलाएं' लिखा हुआ डब्बा जिसमे न के बराबर भीड़ थी। उसमें बैठी एक हमउम्र तरुणी से नज़रें मिल गयीं और स्वाभाविक रूप से झेंप कर उसने अपना सर झुका लिया। उसके बगल में बैठा एक छोटा बच्चा, जो शायद उसका भाई रहा होगा, भुट्टे खा रहा था। बालसुलभ मुस्कान के साथ उसने मेरी ओर देखा और मैंने भी उसका ज़वाब भीनी मुस्कान के साथ दिया।
"भईया, भईया… जूता पॉलिश करवाएंगे?"- नीचे से आ रही इस आवाज़ ने मेरी तन्द्रा को भंग कर दिया। देखा तो एक ग़रीब, फटेहाल, कमउम्र लड़का हाथ में पॉलिश व ब्रश लिए ट्रेन की फर्श पर बैठा था। बदहाली के बावज़ूद आँखों में आशा तथा चेहरे पर चमक ने उसकी क्षीणकाय काया को अलग रूप दे रखा था।
"ये तो पढ़ने की उम्र है!"- अनजाने में मेरे भाव शब्दों का रूप ले प्रस्फुटित हो उठे।
"पढता हूँ भईया! चौथी में हूँ। जोड़, घटा, गुना, भाग- यहाँ तक कि पढ़ना भी आता है। मैडमजी मुझे बहुत मानती हैं। "- कहते हुए उसका चेहरा गर्व से खिल उठा। मेरे हाथ से अख़बार ले पढ़ कर उसने इस बात की तस्दीक़ कर डाली।
"तो फिर ये काम?"- हर्ष मिश्रित आश्चर्य से मैंने पूछा।
उसका खिला चेहरा ऐसे बुझ गया जैसे बिजली टूट कर गिरी हो।
"बापू बीमार हैं। घर में पैसा नहीं है। अब तो स्कूल भी छूट गया है। "
"ऐसे ऐसे बहुत देखे हैं!"- एक सहयात्री ने निहायत ही बेहूदाना अंदाज़ में तंज कसा।
मेरा गुस्सा जाग उठा और उम्र का अंतर विस्मृत करते हुए मैंने उन्हें डांट पिला दी। - " आपको टांग अड़ाने का निमंत्रण किसी ने नहीं दिया। लड़का भीख नहीं मांग रहा, मेहनत की रोटी तोड़ रहा है।" शालीनता के दायरे में रह मैंने साहब को खूब खरी-खोटी सुनाई।
लड़के से जूते पॉलिश करा एक पचास का नोट दिया जिस पर वह बाकी रुपये लौटाने लगा पर मेरे मनाने के बाद उसने पैसे रख लिए। उसकी आँखों में मैंने एक नया भारत देखा था… साधनों की तंगी के बावज़ूद आगे बढ़ने की उत्कट अभिलाषा।
ट्रेन ने सीटी दी और गतिमान हो गयी। दूर खड़ा एक पागल ट्रेन पर पत्थर फेंके जा रहा था पर ट्रेन तो जैसे उसे मुंह चिढ़ाती, सरसराती, बलखाती, तेज़ी से काफी दूर तलक निकल आई थी। रुके हुए, ठिठके पड़े हिंदुस्तान ने शायद अब रफ़्तार पकड़ ली थी। मैंने खिड़की से झांककर देखा तो खेतों में फैली हरियाली के दर्शन हुए। अभी-अभी अंतःकरण की सरज़मीं पर बारिश हुई थी- बारिश खुशियों की!
कई छोटे-बड़े स्टेशन होते हुए ट्रेन एक अदने से स्टेशन पर आ रुकी। परन्तु वह स्टेशन ऐसे पुलकित न हुआ जैसे कोई ग़रीब मेज़बान किसी बड़े, अभिजात्य मेहमान को पाकर होता है। कारण कदाचित यहीं रहा होगा कि इस बड़ी ट्रेन को अक्सर क्रासिंग के कारणवश उस छोटे स्टेशन का आतिथ्य स्वीकारना पड़ता होगा।
ख़ैर, सामने ही दूसरी ट्रेन लगी है। मैंने सर उठकर देखा तो दिखाई पड़ा 'केवल महिलाएं' लिखा हुआ डब्बा जिसमे न के बराबर भीड़ थी। उसमें बैठी एक हमउम्र तरुणी से नज़रें मिल गयीं और स्वाभाविक रूप से झेंप कर उसने अपना सर झुका लिया। उसके बगल में बैठा एक छोटा बच्चा, जो शायद उसका भाई रहा होगा, भुट्टे खा रहा था। बालसुलभ मुस्कान के साथ उसने मेरी ओर देखा और मैंने भी उसका ज़वाब भीनी मुस्कान के साथ दिया।
"भईया, भईया… जूता पॉलिश करवाएंगे?"- नीचे से आ रही इस आवाज़ ने मेरी तन्द्रा को भंग कर दिया। देखा तो एक ग़रीब, फटेहाल, कमउम्र लड़का हाथ में पॉलिश व ब्रश लिए ट्रेन की फर्श पर बैठा था। बदहाली के बावज़ूद आँखों में आशा तथा चेहरे पर चमक ने उसकी क्षीणकाय काया को अलग रूप दे रखा था।
"ये तो पढ़ने की उम्र है!"- अनजाने में मेरे भाव शब्दों का रूप ले प्रस्फुटित हो उठे।
"पढता हूँ भईया! चौथी में हूँ। जोड़, घटा, गुना, भाग- यहाँ तक कि पढ़ना भी आता है। मैडमजी मुझे बहुत मानती हैं। "- कहते हुए उसका चेहरा गर्व से खिल उठा। मेरे हाथ से अख़बार ले पढ़ कर उसने इस बात की तस्दीक़ कर डाली।
"तो फिर ये काम?"- हर्ष मिश्रित आश्चर्य से मैंने पूछा।
उसका खिला चेहरा ऐसे बुझ गया जैसे बिजली टूट कर गिरी हो।
"बापू बीमार हैं। घर में पैसा नहीं है। अब तो स्कूल भी छूट गया है। "
"ऐसे ऐसे बहुत देखे हैं!"- एक सहयात्री ने निहायत ही बेहूदाना अंदाज़ में तंज कसा।
मेरा गुस्सा जाग उठा और उम्र का अंतर विस्मृत करते हुए मैंने उन्हें डांट पिला दी। - " आपको टांग अड़ाने का निमंत्रण किसी ने नहीं दिया। लड़का भीख नहीं मांग रहा, मेहनत की रोटी तोड़ रहा है।" शालीनता के दायरे में रह मैंने साहब को खूब खरी-खोटी सुनाई।
लड़के से जूते पॉलिश करा एक पचास का नोट दिया जिस पर वह बाकी रुपये लौटाने लगा पर मेरे मनाने के बाद उसने पैसे रख लिए। उसकी आँखों में मैंने एक नया भारत देखा था… साधनों की तंगी के बावज़ूद आगे बढ़ने की उत्कट अभिलाषा।
ट्रेन ने सीटी दी और गतिमान हो गयी। दूर खड़ा एक पागल ट्रेन पर पत्थर फेंके जा रहा था पर ट्रेन तो जैसे उसे मुंह चिढ़ाती, सरसराती, बलखाती, तेज़ी से काफी दूर तलक निकल आई थी। रुके हुए, ठिठके पड़े हिंदुस्तान ने शायद अब रफ़्तार पकड़ ली थी। मैंने खिड़की से झांककर देखा तो खेतों में फैली हरियाली के दर्शन हुए। अभी-अभी अंतःकरण की सरज़मीं पर बारिश हुई थी- बारिश खुशियों की!
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सुंदर एवं कोमल भावनाओं से ओतप्रोत लघु संस्मरण .
ReplyDeleteDhanyawaad Rakesh Ji :)
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