मुझे इस बार गर्मी की छुट्टियों में कोलकाता जाने का मौका मिला। वहां मेरे ठहरने की व्यवस्था आर्मी कैंप में थी। अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस कैंप बहुत मनभावन लगा। ये अलग बात है की तपिश के कारण परेशानियों का सामना तो करना ही पड़ा। फिर भी अपने घुमक्कड़ स्वभाव के अनुरूप लगभग सभी मशहूर जगहों यथा, बेलूर मठ, विक्टोरिया मेमोरियल, दक्षिणेश्वर काली मंदिर, कोलकाता और हावड़ा ब्रिज, साइंस सिटी, कोलकाता विश्वविद्यालय और प्रेसीडेंसी कॉलेज आदि घूमने का मौका निकाल ही लिया। महलों का ये शहर अतीत को समेटे आधुनिकता की ओर अग्रसर है। मेट्रो और ट्राम तो कोलकाता की शान हैं।
मेरे अंदर जानने की जिज्ञासा जगी कि थलसेना यहाँ कौन-कौन से कार्यों के लिए तैनात है। मुझे बताया गया कि बगल में हुगली नदी में खड़े जहाजों की देखभाल थलसेना के ही ज़िम्मे है। जाकर देखा तो बहुत पुरानी लोहे की माध्यम आकार की चार जहाजें खड़ी थीं। चार जहाजों की देखभाल के लिए लगभग ३०० सेना के जवान और प्रति साल करोड़ों का खर्च। उत्सुकता और बढ़ी तो ये भी जानना चाहा की आख़िर जहाज का यहाँ क्या काम है। पता चला कि यदि बांग्लादेश से युद्ध छिड़ा तो इसका इस्तेमाल यातायात के लिए किया जा सकता है। मुझे यह भी बताया गया की शायद ही इसकी ज़रुरत पड़े।
सेना के लगभग सभी जवान तीन या छह साल कश्मीर में गुज़ार चुके थे। मसला जब कश्मीर का चला तब लगभग सभी जवानों की याद कड़वी ही थी। कश्मीर में सेना का ये हाल सुनकर मुझे भी सोचने पर विवश होना पड़ा। सद्भावना मिशन के तहत कश्मीरी लड़कों की पढाई की समुचित व्यवस्था आर्मी स्कूल में- वो भी मुफ्त। मरीज़ों के लिए सेना अस्पताल बिलकुल फ्री। छह महीने राशन फ्री छह महीने नाम मात्र के पैसे पर। आर्मी वालों के लिए भी कश्मीर में अलग नियम-कानून। सेना के जवानों की बन्दूक की नाल नीचे से ऊपर नहीं उठनी चाहिए। भीड़ में ग़र कोई आतंकवादी दिख जाये तो मारना नहीं है हाँ, अकेले में दिखे तो सिंगल शॉट में मारना है और वो गोली भी आतंकवादी को ही लगनी चाहिए। किसी आम आदमी को लग गयी तो सेना के उस जवान को अपनी छुट्टियों में सिविल कोर्ट जा कर मुकदमा लड़ना पड़ेगा। फ़ौज़ की कोई ज़िम्मेदारी नहीं। मतलब साडी छुट्टियां बर्बाद, विद्रोह का सामना अलग से। प्रायः सेना में गलती करने वाले का कोर्ट मार्शल अंदर ही होता है पर कश्मीर के मसलों में नहीं। जवानों को अलगाववादियों के पत्थरों की मार सहनी पड़ती है और उस स्थिति में भी छिपकर जान बचने के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं होता। पेट्रोलिंग रात १ से ४ के बीच होती है ताकि अलगाववादियों के प्रकोप का सामना न करना पड़े। एक जवान ने तो यहाँ तक कहा कि कुछेक लोग आतंकवादियों को दामाद की तरह घर में रखते हैं। सेना ये सारी बातें जानते हुए भी कुछ नहीं कर पाती। आतंकवादियों के लाश तक की स्थानीय लोग मांग कर देते हैं। एक सैनिक ने कहा कि वरिष्ठ अधिकारी कहा करते हैं कि बेटा कश्मीर आये हो तो मौत से खेलना तो है ही किसी तरह गाड़ी में छिपकर तीन साल का समय निकल लो, फायदे में रहोगे।
कश्मीर में सेना द्वारा इतनी सुविधाएँ उपलब्ध करने के बावजूद ऐसी दुर्भावना बहुत ठेस पहुंचती है। सीमा पार से प्रायोजित आतंकवाद को अलगाववादियों का प्रश्रय मिला हुआ है। एसी में रहने वाले और कारों पर चलने वाले सिविल सोसाइटी के भद्रजन मानवाधिकारों पर होहल्ला तो बहुत मचाते हैं पर हकीकत में वे यथार्थ से बहुत दूर हैं। क्या मानवाधिकारों के घेरे में बस वे अलगाववादी आते हैं जिन्होंने हिंसा से घाटी को नर्क बना रखा है? क्या उन सैनिकों का कोई मानवाधिकार नहीं जो अपनी जान की बाज़ी लगा माँ भारती के अखंडता की रक्षा कर रहे हैं? कश्मीर की समस्या का समाधान नितांत आवश्यक है।
मेरे अंदर जानने की जिज्ञासा जगी कि थलसेना यहाँ कौन-कौन से कार्यों के लिए तैनात है। मुझे बताया गया कि बगल में हुगली नदी में खड़े जहाजों की देखभाल थलसेना के ही ज़िम्मे है। जाकर देखा तो बहुत पुरानी लोहे की माध्यम आकार की चार जहाजें खड़ी थीं। चार जहाजों की देखभाल के लिए लगभग ३०० सेना के जवान और प्रति साल करोड़ों का खर्च। उत्सुकता और बढ़ी तो ये भी जानना चाहा की आख़िर जहाज का यहाँ क्या काम है। पता चला कि यदि बांग्लादेश से युद्ध छिड़ा तो इसका इस्तेमाल यातायात के लिए किया जा सकता है। मुझे यह भी बताया गया की शायद ही इसकी ज़रुरत पड़े।
सेना के लगभग सभी जवान तीन या छह साल कश्मीर में गुज़ार चुके थे। मसला जब कश्मीर का चला तब लगभग सभी जवानों की याद कड़वी ही थी। कश्मीर में सेना का ये हाल सुनकर मुझे भी सोचने पर विवश होना पड़ा। सद्भावना मिशन के तहत कश्मीरी लड़कों की पढाई की समुचित व्यवस्था आर्मी स्कूल में- वो भी मुफ्त। मरीज़ों के लिए सेना अस्पताल बिलकुल फ्री। छह महीने राशन फ्री छह महीने नाम मात्र के पैसे पर। आर्मी वालों के लिए भी कश्मीर में अलग नियम-कानून। सेना के जवानों की बन्दूक की नाल नीचे से ऊपर नहीं उठनी चाहिए। भीड़ में ग़र कोई आतंकवादी दिख जाये तो मारना नहीं है हाँ, अकेले में दिखे तो सिंगल शॉट में मारना है और वो गोली भी आतंकवादी को ही लगनी चाहिए। किसी आम आदमी को लग गयी तो सेना के उस जवान को अपनी छुट्टियों में सिविल कोर्ट जा कर मुकदमा लड़ना पड़ेगा। फ़ौज़ की कोई ज़िम्मेदारी नहीं। मतलब साडी छुट्टियां बर्बाद, विद्रोह का सामना अलग से। प्रायः सेना में गलती करने वाले का कोर्ट मार्शल अंदर ही होता है पर कश्मीर के मसलों में नहीं। जवानों को अलगाववादियों के पत्थरों की मार सहनी पड़ती है और उस स्थिति में भी छिपकर जान बचने के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं होता। पेट्रोलिंग रात १ से ४ के बीच होती है ताकि अलगाववादियों के प्रकोप का सामना न करना पड़े। एक जवान ने तो यहाँ तक कहा कि कुछेक लोग आतंकवादियों को दामाद की तरह घर में रखते हैं। सेना ये सारी बातें जानते हुए भी कुछ नहीं कर पाती। आतंकवादियों के लाश तक की स्थानीय लोग मांग कर देते हैं। एक सैनिक ने कहा कि वरिष्ठ अधिकारी कहा करते हैं कि बेटा कश्मीर आये हो तो मौत से खेलना तो है ही किसी तरह गाड़ी में छिपकर तीन साल का समय निकल लो, फायदे में रहोगे।
कश्मीर में सेना द्वारा इतनी सुविधाएँ उपलब्ध करने के बावजूद ऐसी दुर्भावना बहुत ठेस पहुंचती है। सीमा पार से प्रायोजित आतंकवाद को अलगाववादियों का प्रश्रय मिला हुआ है। एसी में रहने वाले और कारों पर चलने वाले सिविल सोसाइटी के भद्रजन मानवाधिकारों पर होहल्ला तो बहुत मचाते हैं पर हकीकत में वे यथार्थ से बहुत दूर हैं। क्या मानवाधिकारों के घेरे में बस वे अलगाववादी आते हैं जिन्होंने हिंसा से घाटी को नर्क बना रखा है? क्या उन सैनिकों का कोई मानवाधिकार नहीं जो अपनी जान की बाज़ी लगा माँ भारती के अखंडता की रक्षा कर रहे हैं? कश्मीर की समस्या का समाधान नितांत आवश्यक है।
कुलदीप कुमार जीवन मैग की संपादन समिति के सदस्य हैं। आप जामिया मिल्लिया इस्लामिया में विज्ञान संकाय से कक्षा बारहवीं के छात्र हैं तथा मोतिहारी, बिहार से ताल्लुक रखते हैं। |
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