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Tuesday, 15 July 2014

दिल बनारसिया (रिपोर्ताज)- अमिनेष

अस्सी घाट की सीढ़ियों पर जब बनारस की शाम ढलती है तो हरेक कदम अपनी ज़िंदगी की उलझनों को समेटे गंगा की ओर बढ़ता है- इस उम्मीद में कि शायद गंगा उन्हें अपनी लहरों पर बिठाकर मायावी दुनिया की छलावा-लबरेज़ जिंदगी से किसी सुकून और शांति के सुन्दर महासागर में ले चले जहाँ ना ये भागदौड़ हो ना ही हों वे अनसुलझे सवाल जिनके जवाब हम दिन रात बेचैनी से ढूंढते फिरते हैं.


शाम किस ओर ढली पता भी ना चला. चारों तरफ लालिमा छाई है, मानो आसमां ने श्रृँगार किया हो. गंगा कि लहरों में बलखाती दीपों की कतार और रोशनी की परछाइयों में झिलमिलाती गंगा अप्रतिम सुंदर लग रही है. बिल्कुल किसी ज़िम्मेदार जिंदगी की तरह बही जा रही है वह. आखिर हो भी तो क्यों नहीं, सारे मानव जाति को पापमुक्त करने का बीड़ा जो उठा रखा है.  दूर खामोश अँधेरे में, गंगा के उस पार एक झिलमिलाती रोशनी काशी नरेश की ऐतिहासिक भव्यता का दीदार करा रही है, रामनगर किले कि अटारियों से झाँकती यह प्रकाशावली इस बात का संकेत थी कि बनारस परिपूर्ण है- इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, धार्मिक संस्कारों एवं पवित्रता से और उस उमंग और नए जोश से भी जो सीढ़ियों पर गिटार की धड़कती तार पर थिरकती गुनगुनाती युवाओं की टोली में नजर आ रहा था... 
Give me some sunshine
Give me some rain
Give me another chance
I wanna grow up once again.
पता तक नहीं चला कि दिल को कब बनारस से मुहब्बत हुई और गंगा की लहरें कब एक दिव्य और अलौकिक आँचल से तन्हा शाम की सुरीली छांव बन गयी, बस निगाहें उस शाम उस हसीन सपने के आगोश में जागती रही- जहाँ सिर्फ सुकून था और अनहद आनंद भी. दिनभर के काम से थके नर नारी किसी अलौकिक सुकून और शांति की खोज में गंगा आरती की धुन पर अपना तन-मन रमाए बैठे हैं. उन सीढ़ियों पर जहाँ अँधेरा पसरा था प्यार के राही बैठे थे तो कहीं कोई तन्हा दिल गंगा कि धारा में पैर लटकाए बैठा था.
दूर नदी में रुक-रुक कर एक लहर सी उठती है और अपने साथ लाती है वह प्रतिध्वनियाँ जो दिव्य आभास कराती है- कभी कबीर के खंजरी की ताल गूंजती मर्मस्पर्शी दोहावली की तो कभी गंगा जमुनी तहजीब का पैगाम लिए बिस्मिल्लाह खान की मधुर शहनाई की. जैसे गीता की छाँव में कुरान की आयतें, मैं खामोश बैठा सुनता रहा और कभी-कभी पास के पान की दुकान पर रेडियो से बज रहा गीत- खइके पान बनारसवाला...

लेकिन गंगा के शांत प्रवाह में एक आह भरी कसक सी है... लाखों संतान हो जिसके, ना जाने क्यों वह माँ असहाय निर्बल सी कराह रही है...
अमिनेष आर्यन 

लेखक ने इसी वर्ष 12वीं उत्तीर्ण की है. बीते दिनों आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की दाखिला प्रक्रिया के सन्दर्भ में बनारस आते जाते रहे हैं. यह रिपोर्ताज आपने वहां से अपनी पहली यात्रा से लौटकर लिखा है. आपने बी.एच.यू के एंट्रेंस (अंडरग्रेजुएट, बीए, सोशल साइंस) में 135वाँ रैंक हासिल किया है. आपको समस्त जीवन मग परिवार की ओर से हार्दिक बधाई. 

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