यह लेख जनसत्ता के "समांतर" में जीवन मग के वेब पता के साथ छपा है... |
‘’मर्द के सीने में दर्द नहीं होता’’ इस जुमले को सुना कर न जाने कितने रोते बच्चों को चुप करा दिया गया तो कितनों ने चुपचाप बेवफ़ाई का विष पी लिया|
क्लस्टर इनोवेशन सेंटर में चल रहे प्रोजेक्ट ‘’डीकंस्ट्रक्टिंग मैस्कुलैनिटी’’ के तहत सर्वे के दौरान छात्रों ने पाया की 70 पुरुषों फीसदी का मानना है की मर्द वही जो दूसरों को दर्द दे, जो रोये नहीं रुलाये, जो ताकतवर हो, , जो रूपये कमा कर लाये आदि| यह अत्यंत ही चिंता का विषय है की आधी मानव जाति को अपने होने का मतलब ही स्पष्ट नहीं है| उसके कर्तव्य तथा उसके दायित्य ओझल हो गए हैं|
अगर अपने अतीत में झांके तो आप पाएंगे कि किस तरह परिवार में ही मर्द बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है| छोटे लड़कों को खिलौने के रूप में मोटरसाईंकल, पिस्टल कार, घोडा आदि दिए जाते हैं| वहीँ लड़कियों को गुड़िया-गुड्डे का ब्याह रचाने का खेल सिखाया जाता है| लड़कों को बाहर खेलने जाने की अनुमति होती है परन्तु लड़की तो खेल ही नहीं सकती| गाँवों की स्थिति तो और भी बदतर है| एक ओर जहाँ पुरुष कम वस्त्र पहन कर पूरे गाँव का चक्कर लगा आते हैं वहीँ महिलाओं के सिर पर पल्लू न होना अल्हड़ता का पर्याय माना जाता है| एक छोटे लड़के को अगर पेशाब आता है तो वह सब के सामने वहीँ खड़े हो कर शुरू हो जाता है वहीँ एक छोटी लड़की भी ऐसा नहीं कर पाती है| आखिर 4-5 साल के लड़के-लड़कियों में यह फर्क कैसे आ जाता है? क्योंकि 5 साल की एक लड़की को यह 5 हजार से अधिक बार कहा जा चुका होता है कि तुम एक लड़की हो तुम्हे ‘यह’ नहीं करना चाहिए, तुम्हे ‘वह’ नहीं करना चाहिए| तुम पैर फैला कर मत बैठो, तुम तुम इतनी आवाज में मत बोलो, इतनी जोर की हँसी एक लड़की को शोभा नहीं देती आदि आदि|
"सीमोन द बउआर’’ लिखती हैं "लड़की पैदा नहीं होती, बना दी जाती है|’’ माँ-बाप को जब अपने बेटियों पर अधिक लाड आता है तो प्यार से उसे ‘’बेटा जी’’ कह कर पुकारते हैं | उस वक्त नन्ही लड़की के कोमल मन पर क्या गुजरता है वो तो एक लड़की ही समझ सकती है| ये हालात केवल हिन्दुस्तान में ही नहीं है दुनियां के रसूख देशों में भी मिले-जुले हालात हैं| अमेरिका में लड़की व लड़कों के लिए अलग स्टोर होते हैं| लड़कियों का कलर पिंक तथा लड़कों का ब्लू होता है| “मर्दानगी’’ एक असामाजिक तमगा है जो अधिक हिंसक, खूंखार व शासक होने पर दिया जाता है|
एक पुरुष सब कुछ बनना पसंद कर सकता है परन्तु ‘नामर्द’ बनना नहीं| उसके लिए नामर्द सबसे बड़ी गाली होती है| अमेरिका द्वारा बनाया गया इराकी बंधक अल-श्वेरी लिखते हैं - वो हमें बेईज्जत करने की कोशिश कर रहे थे, हमारी इज्जत हमसे छीनने की| हम आदमी हैं, वो चाहें तो हमें पीट ले| पीटने पर हम नहीं टूटते ....वो तो बस एक वार है .....लेकिन कोई भी आदमी अपनी मर्दानगी खोना पसंद नहीं कर सकता|
दुःख तो तब होता है जब मीडिया मर्दानगी को परिभाषित करने लगती है| उत्पाद को बेचने के लिए विज्ञापन के द्वारा दर्शकों को भ्रमित करती है| सेंट, शैम्पू और क्रीम के चमत्कारिक असर दिखाए जाते हैं| आज युवाओं को आत्ममंथन की जरुरत है| पार्टियों में दो पैग अधिक शराब पीना, सिगरेट पीना, ज्यादा से ज्यादा गर्लफ्रेंड बनाना मर्दानगी का सबब बनता जा रहा है|
क्या महात्मा गाँधी मर्द नहीं थे? स्वामी विवेकानन्द मर्द नहीं थे? अगर मर्द बनना है तो इनकी राह पर चलना चाहिए| हर साल झगड़ा, बलात्कार तथा घरेलु हिंसा के हजारों मामले सामने आते हैं| इसका कारण कहीं न कहीं मर्दानगी से जुड़ा होता है जो हमें गलत तरीके से दिया गया है| हमें मर्दानगी के रुढ एवं गलत अवधारणाओं को मिटाना होगा तथा समाज को जागरूक करना होगा|अतः अब हमें 'मर्दानगी' को पुनः परिभाषित करना होगा|
---संतोष कुमार
'क्लस्टर इनोवेशन सेंटर’
दिल्ली विश्वविद्यालय |
(ये लेखक के अपने विचार हैं|)
क्या महात्मा गाँधी मर्द नहीं थे? स्वामी विवेकानन्द मर्द नहीं थे?...waah
ReplyDeleteयह लेख जनसत्ता के "समांतर" में जीवन मग के वेब पता के साथ छपा है....http://epaper.jansatta.com/280038/Jansatta.com/Jansatta-Hindi-29052014#page/6/2
ReplyDeleteBehtarin :)
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