इस अनजाने अपनेपन की प्रिय, मैं नहीं चाहता कोई वर्णन कोई परिभाषा हो ||
मेरे जीवन की सुप्त चेतना ,
तेरे नयनो में होती विम्बित |
मेरा पथ आलोकित करती ,
तेरे संग की मीठी स्मृति ||
इससे ज्यादा इस सुप्त ह्रदय में मैं नहीं चाहता बाकी कोई भी अभिलाषा हो ||
बस मेरे मानस अम्बर पर,
काले मेघों सी छा जाना ||
जीवन के मेरे मरू-थल में ,
इक बार प्रिये तुम आ जाना ||
ये दग्ध ह्रदय अपना, मैं नहीं चाहता, प्रिय,चिर विरही चातक प्यासा हो ||
मेरे मानस आले में तुम हो,
प्राणों में प्रिय तुम्ही शेष ||
है अंतिम बार यही इच्छा ,
देखू जी भर कर तुम्हे निमेष||
हो ध्येय पूर्ण यह जीवन का,मई नहीं चाहता बाकि कोई भी इच्छा,आशा हो ||
मौन अधर के प्रश्न सुन सको,
मूक नयन से प्रत्युत्तर दो प्रिय||
इस पथरीले पथ पर जीवन के ,
आकर मुझको सम्बल दो प्रिय ||
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में बी.टेक/ बी.एस इन इनोवेशन विद मैथ्स एन्ड आइटी के छात्र हैं.)
Excerpted from- Jeevan Mag Feb.- march 2014 issue
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