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Sunday, 25 May 2014

पंडित नेहरू के हमसफ़र महबूब- नंदलाल



इस वर्ष 27 और 28 मई को हिंदुस्तान के दो महान व्यक्तित्वों क्रमशः पंडित जवाहर लाल नेहरू और महबूब खान की 50वीं पुण्यतिथि है| उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए याद कर हैं- नंदलाल 


यह बात उस दौड़ की है जब फिल्म मदर इंडिया दुनिया भर में मक़बूल और मशहूर हो चुकी थी और भारतीय सिनेमा का गौरव बढा रहा थी| ऑस्कर की दौड़ में शामिल होनेवाली यह  पहली भारतीय सिनेमा थी| महबूब खान ने नारी जीवन पर केंद्रित यह फिल्म अपनी ही बहुत पुरानी सिनेमा औरत (1940) के रीमेक के तौर पर बनायी थी| वे इस फिल्म के बाल कलाकार बिरजू (साज़िद खान) से काफी मुतास्सिर हुए और उसे ही केंद्र में रख कर बनायी महत्वाकांक्षी फिल्म- सन ऑफ इंडिया|  वर्ष 1962 में प्रदर्शित यह फ़िल्म महबूब ख़ान के सिने करियर की अंतिम फ़िल्म साबित हुई। बड़े बजट से बनी यह फ़िल्म टिकट खिड़की की पर बुरी तरह नकार दी गई| हलाकि इसका एक गीत... नन्हा मुन्ना राही हूँ... हमेशा के लिए बच्चों के फौलादी जज़्बों की बयानगी बन गया| अब वे हब्बा खातून पर मबनी अपनी बेहद महत्वाकांक्षी फिल्म पर काम कर रहे थे| मर्मस्पर्शी गीत तथा पदावलियों की रचयिता हब्बा खातून 16वीं सदी की सुप्रसिद्ध लेखिका और कवयित्री थीं| वह कश्मीर  के शासक युसूफशाह की पत्नी थीं। अकबर  ने उन्हें बन्दी बनाकर अपने दरबार में स्थान दिया था।

27 मई 1964 की शाम महबूब अपने कमरे की टेबल पर इस सिनेमा की पट कथा लिख रहे थे| हमेशा की तरह उस दिन भी उनके टेबल पर रेडियो बज रहा था और वे अपना काम भी कर रहे थे| तभी आकाशवाणी से पंडित नेहरु के इंतकाल की खबर प्रसारित हुई| जैसे ही महबूब के कानों तक यह आवाज पहुँची कि उनके हाथ से कलम छूट गयी| आँखें नम हो गयी और दिल रो पड़ा| वे अपनी तनहाई में देर रात तक रोते रहे|  रोते-रोते उनका दिल बैठ गया| सुबह दिल का दौरा पड़ा और वे भी महज़ 57 की उम्र में इस फानी दुनिया से कूच कर गये|

 इस मतलबी दुनिया में इस तरह के वाकयों के नजीर बहुत कम मिले हैं जब एक शख्स ने दूसरे के जाने पर अपनी जान निसार कर दी हो और तब जब उसका खुद के चाहने वालों की तादाद का अंदाजा लगाना मुश्किल हो और उस इंसान से उसका कोई खूनी वास्ता भी न हो| जहाँ पंडित नेहरु विदेश से शिक्षा प्राप्त विद्वान एवं कुशल राजनीतिज्ञ थे वहीं महबूब प्रेम और अनुभव के कबीरी ज्ञान के पंडित थे| दोनों में एक समानता यह थी की वे दोनों ही लिखते थे| हलाकि दोनों का लेखन क्षेत्र अलग अलग जरूर था| एक ओर पंडित जी का लेखन सामाजिक एवं राजनीतिक परिदृश्यों पर केन्द्रित है वहीं महबूब का लेखन रचनात्मक सिनेमा के लिए था| तथापि दोनों ने अपनी अपनी जगह पर भारत की कथा व्यथा कही है जिसमें यथार्थ की जीवंतता भी है और आदर्शवादी व्यवस्था की आकांक्षा भी| वे दोनों ही प्रेम के पुजारी थे| नेहरू जी का तो बच्चों से प्रेम जगज़ाहिर है| एक बार एक सज्जन ने उनसे पूछा- "पंडित जी, आप सत्तर साल के हो गये हैं, लेकिन फिर भी हमेशा बच्चों की तरह तरोताज़ा दिखते हैं, इसका राज क्या है| उनका जवाब था- “पहली बात की मैं प्रकृति प्रेमी हूँ| दूसरी, मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूँ। उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूँ, इससे मैं अपने आपको उनको जैसा ही महसूस करता हूँ। और अधिकांश लोग सदैव छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं किंतु मुझ पर छोटी-छोटी बातों का कोई असर नहीं होता। यह कहकर नेहरू जी बच्चों की तरह खिलखिलाकर हंस पड़े। बकौल महान संगीतकार नौशाद, महबूब खान भी बिलकुल इसी मिजाज़ के आदमी थे| मन के सच्चे और दिल से बच्चे| मानवीय भावनाओं के प्रति अत्यंत संवेदनशील दोनों महापुरुष अपने अपने कार्यों के प्रति लगनशील, कर्मनिष्ठ एवं मेहनती थे| आज इन महान व्यक्तित्वों की स्मृतियों को नमन करते हुए हृदय मेँ एक खामोश प्रतिध्वनि गूंज रही है- ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना|


  



साभार‍जीवन मैग फ़रवरी मार्च २०१४ अंक
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