भावना के नए आयाम के साथ इस कहानी को वरिष्ठ ब्लॉगर अर्चना चावजी की आवाज़ में यहाँ सुनिए।
सुबह सुबह जब मैं निद्राधीन था तब मेरी बहन के एक वाक्य ने मुझे निद्रा विहीन कर दिया– “बड़े काका अब नहीं रहे !”....
इतना सुनते ही मैं परिवार के अन्य सदस्यों के पास गया जो यह
विचार कर रहे थे की आगे क्या करना है. एक घंटे में हम सभी गाँव के लिए रवाना हो गए.
आदतन मेरे कान में इयरफोन पड़ा था. मैंने गाड़ी की खिड़की से अपना सिर बाहर निकाला. उसी
क्षण मेरी आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी. कारण स्पष्ट न था. क्या यह काका
के जाने का दुःख था? या पिछले दिनों मेरे जीवन में आया तूफ़ान ? या फिर इयरफोन से
सुनाई दे रहा दुःख भरा गीत ? हो सकता है बाहर से आने वाली हवा के थपेड़ों की वजह से
ही मेरी आँखों में पानी आया हो. अब गाँव में दस दिन और बिताने की मजबूरी थी जिसकी
वजह से मैं कॉलेज सही वक़्त पर नहीं पहुँच पाता.
गाँव में पांव देते ही हमारा स्वागत स्त्रियों के क्रंदन से
हुआ जो काका के पार्थिव शरीर को घेरे हुए थीं. मेरी समझ में नहीं आ रहा था- कहाँ
जाऊं ? घर में हरेक आँख नम थी. कुछ समय पश्चात गाँव के बड़े-बुज़ुर्ग विधिपूर्वक
दाह-संस्कार करने की तैयारी में लग गए. उनकी अर्थी को कंधा देने का समय आया. पीछे
मैं और मेरे भैया (काका के छोटे पुत्र) और आगे मेरे पिता और चाचा थे. वे शायद जीवन
में कभी एक दूसरे के साथ न रहे हों. ऊपर से काका यह देख कर स्वयं को खुशनसीब समझ
रहे होंगे कि उनके दोनों अनुज जिनमें दीर्घकाल से मनमुटाव चल रहा था आज साथ खड़े
थे. शायद इसी कामना से काका ने ऐसे समय पर देह का त्याग किया हो. क्या यह मेरे
पिता एवं चाचा के दीर्घकालिक मनमुटाव का दाह-संस्कार था ?
कमला नदी (इसे कमलेश्वरी के नाम से भी जाना जाता है) के घाट
पर काका का अंतिम संस्कार होना था. वहां पहुँचकर उनके शव को स्नान करवाकर, नई धोती
धारण करवाई गयी. तत्पश्चात, उनके शरीर को चिता पर रख कर उसपर घी और तेल का लेप
किया गया जिसका कारण मेरी समझ में नहीं आया- क्योंकि घी वो खाते नहीं थे और तेल वो लगाते नहीं थे. तभी ख़याल आया कि यह सब तो अग्निदेव को समर्पित करने के लिए हो रहा है। ख़ैर, उनकी चिता को उनके ज्येष्ठ पुत्र ने अग्नि दी जिनकी चार दिन
पहले शादी हुई थी और एक दिन पहले चतुर्थी. और तीन दिनों के बाद दुल्हन का गौना था.
प्रकृति का ऐसा विरोधाभास मैंने अपने जीवन काल में पहली बार देखा था. क्या ये उस
पुत्र की इच्छाओं का दाह संस्कार था या उसकी दुल्हन की चाहतों का. जो अपने गौने पर
पति के साथ ससुर का आशीर्वाद लेने को व्याकुल थी.
शवदाह के पश्चात सभी 33 लोग जो वहां उपस्थित थे नदी में स्नान
करने गए. नदी में प्रवेश करते समय सभी के पैर मिट्टी से सन गए. मुझे लगा यह मिट्टी
हमारे दुर्गुणों का प्रतीक है जो नदी में डुबकी लगाने के बाद धुल जायेंगे. परन्तु नदी से बाहर
आते ही हमारे पैर पहले से अधिक मिट्टी में सन गए थे. लोग दूसरे रास्ते से एक कतार
में “राम नाम सत्य... हरी ॐ...” कहते हुए घर पहुँचे जहाँ आँगन में लौह, जल, अग्नि और
पत्थर के स्पर्श के पश्चात ही “कुछ और” किया गया. मैंने एक बुजुर्ग से पूछा- “ऐसा
क्यों ?” जवाब मिला- “पंचतत्व का स्पर्श.” पांचवा तत्त्व – वायु. पर मेरी समझ में नहीं आया कि पंचतत्व में लौह और पत्थर
कब से सम्मिलित हो गए ?
मैंने पंडित जी से आगे का क्रम पूछा तो उत्तर मिला, “तीन दिनों तक घर में चूल्हा नहीं जलेगा, घर में
पूजा नहीं होगी, दसवें दिन सभी पुरुष केश और दाढ़ी-मूंछ का मुंडन करवाएंगे आदि आदि...”. तत्काल, इन सब का कारण पूछने की मेरी हिम्मत नहीं
हुई. मैं सोचता ही रह गया कि क्या मेरे काका की आत्मा को अपने परिवार को आधा भूखा
देखकर शांति मिलेगी ? हमें उदास देख कर क्या वह खुश होंगे ? सवाल तो अनेक थे परन्तु
पूछने की हिम्मत नहीं थी.
उपस्थित लोगों को इसका तनिक भी आभास न था की परिस्थितियां
विवाह से श्राद्ध में परिवर्तित हो जाएँगी. यह अनुभव दर्शाता है की जीवन में किसी
भी क्षण कुछ भी हो सकता है. फिर यह सब आडंबर किस हेतु ? मृत्यु अपने स्वयंवर में
खूबसूरत से खूबसूरत नौजवान को भी नहीं छोडती. इसपर किसी का वश नहीं है क्योंकि
यहाँ न कोई सावित्री है न कोई रावण. अगले ही क्षण ख्याल आया- जब तक जिंदा हैं जी
लेते हैं, मौत को मरणोपरांत ही देखेंगे.
आगे क्या होगा ? यही सोचते हुए दिन बीत गया. क्या पिताजी और
चाचा के मनमुटाव का दाहसंस्कार होगा ? या हमारे दुर्गुणों का ? क्या होगा उस पुत्र
का जिसकी अभी अभी शादी हुई है ? कैसी होगी घरवालों की ज़िन्दगी ? तभी आनंद फिल्म का
एक डायलोग याद आया, “ज़िन्दगी लम्बी नहीं बड़ी होनी चाहिए.” और मैं अश्रुयुक्त मुस्कान सहित पुनः निद्राधीन हो गया...
अक्षय आकाश जीवन मग की संपादन समिति के सदस्य हैं. आप दिल्ली विश्वविद्यालय
के क्लस्टर इनोवेशन सेन्टर में बीटेक मानविकी के छात्र हैं.
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मर्मभेदी!
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