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Sunday, 30 November 2014

Secularism: The very spirit of India

I am Akash Kumar from India currently in the United States on KL-YES (Kennedy Lugar Youth Exchange and Study) program sponsored by the Department of State. In context to the International Education Week (November 17-21, 2014), we would be discussing the religions and the secular nature of India.

Coming from India- a country so rich and diverse in terms of culture instills in me a sense of sheer joy and pride. India boasts of a history several millennia old which helped shape its diverse culture. Four world religions- Hinduism, Buddhism, Jainism and Sikhism, have their roots in India. Buddhism and Jainism originated in the medieval period as modified forms of Hinduism. Sikhism came with the concept of universal brotherhood. Islam, Christianity and Zoroastrianism came to India in the first millennium CE. Secularism is at the heart of India. The Rigveda, a sacred text for Hindus and probably the oldest book in the history of mankind says: "Truth is one. God is one. But the sages refer to it in many ways. Our paths might be different, the destination is the same." Similar is the essence of Qur'an: "To you your religion and to me mine". India is an example to behold for the people who believe that religion comes with extremism. Despite the fact that people are highly religious, India not only by law but by its very nature is a secular nation.The banks of Holy River Ganga and Yamuna are testimony to our Indo-Islamic culture which is a perfect blend of the goodness of Hinduism and Islam. Taj Mahal, one of the Seven Wonders of the World is a perfect example of the Indo-Islamic architecture which blossomed with the intermingling of the cultures. Hindus join Muslims in Eid celebration and Muslims are ahead in savoring the joy of Diwali- that's the very Indian spirit. Christians make around 2% of the total population but Christmas is a public holiday. My town has just around 200 Christians out of its total population of 200,000. But, you'll have trouble finding empty space in the Churches on Christmas with people from all religions coming to light candles and celebrate the very joy.

A common identity for all- INDIAN
Religious diversity, co-existence and religious tolerance are both established in the country by the law and custom. And yes, it's not just tolerance, we are a step ahead with acceptance of each others' religious practices.  


(Akash Kumar is the Editor-in-chief of JeevanMag.com)
 
Useful Links (Click on the images)- 

http://www.afsusa.org

http://iew.state.gov
http://www.yesprograms.org



जो जहाँ से उठता है...(गुंजन श्री)

जो जहाँ से उठता है, वहीँ से टूट सकता है,
ज़रा बचके रहिये साहब, कोई भी लुट सकता है। 


बड़ा परेशां इन्सां है, अपने दिल की दुनिया से,
जो माने, मना लीजे, कोई भी छुट सकता है।

शिकस्त पाकर भी ख़ुश है, अजीब दुनियादारी है,
हार-जीत, हंसी-ख़ुशी, इनसे कोई भी रूठ सकता है...???



गुंजन श्री
युवा साहित्यकार
पटना (बिहार)

Thursday, 27 November 2014

देवताओं के एजेंडे (व्यंग्य)- संतोष



इवनिंग वाकिंग का भी अपना ही मज़ा है| साथ में अगर गप्पें मारने वाले मित्रगण हों तो समय से पहले ही चारों चाँद निकल आते हैं| होस्टल से कुछ ही आगे निकला की मेट्रो स्टेशन के पीछे “कृष्णभक्तों” की टोली दिखाई पड़ी| भक्तों की श्रध्दा देखिये आस-पास मुरली मनोहर की कोई प्रतिमा भी नहीं है ,पर हर किसी ने दिल में ही प्रभु को बसा लिया लगता है| ऐसा प्रतीत हो रहा था की वृन्दावन ही पहुँच गया हूँ| हर कोना कृष्णमय हो गया था| कृष्ण पेड़ की डाल पर बैठा करते थे ,पर कांटेदार पेड़ होने के कारण चबूतरों व सीढियों को ही यह सौभाग्य प्राप्त हो रहा था| दूसरों की ख़ुशी से इंसान खुश होता है और दूसरों के दुःख से दुखी पर आज, अभी तक भगवन की भक्ति न मिलने के कारण दूसरे भक्तों से ईर्ष्या हो रही थी| आगे बढ़ते ही कक्कड़ की दुकान पर शिवभक्तों की मंडली नजर आई | डमरू और त्रिशूल के अलावे सब कुछ था भक्तों के पास| भक्तों की भीड़ व भक्ति इतनी की सब एक साथ अगर कैलाश पर्वत पहुँच जाय तो कैलाश का बर्फ भी पिघल जाय| मन ही मन सोचा की कैसे लोग अपने इष्टदेव का चयन करते होंगे? स्वत: ही संभावित उत्तर सूझा , शायद नेताओं की तरह भगवानों के भी अपने –अपने एजेंडे होते होंगे| जिसे जिनका एजेंडा पसंद आए उन्हें अपना लो| अगर ऐसा ही हो तो किनका एजेंडा सर्वाधिक लोकप्रिय होगा? जब वहां से आगे निकला तो दृश्य देख कर दंग रह गया| दिल्ली की इस कड़कड़ाती सर्दी में सड़क के किनारे कोई कपड़ों का एक चादर ओढ़े तो कोई अपनी खाल की चादर ओढ़े सोये थे| शायद इंद्रदेव अपना एजेंडा तय नहीं कर पाए थे| एक भी भक्त अपने पक्ष में न आते देख क्रोधवश हारे हुए नेता की तरह रात को वर्षा करा दी| तनिक भी न सोचा की ये बेचारे कहाँ जायेंगे| छप्पन करोड़ देवी-देवताओं में से किसी का भी एजेंडा अगर इन सड़क पर रात गुजारने के लिए नहीं है तो इन नेताओं से भला क्या आशा की जाये|
संतोष कुमार जीवन मैग की संपादन समिति के सदस्य हैं। आप दिल्ली विश्वविद्यालय के क्लस्टर इनोवेशन सेंटर में बीए स्नातक (मानविकी और समाजशास्त्र) के छात्र तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के सामुदायिक रेडियो में ओबी प्रभारी हैं.

Sunday, 23 November 2014

ये ज़िन्दगी- राधेश

क्या लिखूं और किसके बारे में लिखूं?
कभी सोचा नहीं था अपना ढोल अपने ही हाथों से पीटना पड़ेगा अर्थात् अपना परिचय स्वयं ही दूसरों को देना पड़ेगा।

"मिट्टी का तन,मस्ती का मन
क्षण भर जीवन, मेरा परिचय"


पर मैं वो बात किसी को कैसे बताऊं,जो मैं खुद नहीं जानता। हाँ चाहे कितनी भी बातें लिख लूं, पर सच यहीं है कि मैं नहीं जानता मैं कौन हूँ। कई बार सोचा, सवाल-ज़वाब का सिलसिला बंधा-टूटा, कई जवाब मिले, कई नये सवाल उठे, पर यह सवाल वहीं का वहीं है। मेरे मित्र ज़वाब देते हैं, तुम राधेश हो। पर ये तो मेरा नाम है। लोग कहते हैं,तुम मनुष्य हो पर, ये तो मेरी जाति है। कुछ ने कहा, तुम छात्र हो पर, ये तो मेरा व्यवसाय है। ये मेरा नाम, मेरी जाति, मेरा व्यवसाय मुझसे ही तो आस्तित्व में हैं, फ़िर ये मेरा परिचय कैसे हो सकते हैं। जिससे मेरा अस्तित्व हो, वहीं मेरा परिचय हो सकता है। तो फ़िर, मैं कौन हूँ और अगर मैं राधेश नहीं हूँ तो राधेश कौन है...मैं भूल रहा हूँ कि मेरा एक शरीर भी है, शायद उसी का नाम राधेश है, शायद वही मनुष्य भी है, क्योकि उसी के दो हाथ,दो पैर,हॄदय और मष्तिष्क भी हैं।

आईना जब गिरकर चूर हो जाता है,अपना स्वरूप खो देता है,तो फ़िर उसका नाम आईना नहीं रहता,उसे बस काँच का टुकड़ा कहा जा सकता है.आईना अपने स्वरूप के साथ नाम भी खो देता है। तो फिर ये शरीर,जिसका नाम राधेश है, ये भी तो एक दिन अपना स्वरूप खो देगा, उस दिन इसका नाम क्या होगा। …शायद राधेश ही। 

हे प्रभु! ये कैसा विरोधाभास है? स्वरूप खोने के बाद भी ये शरीर अपना नाम नहीं खो रहा है.... कहीं ऐसा तो नहीं, राधेश नाम इस शरीर का नहीं है.......तो फ़िर किसका है....... कुछ भी समझना मुश्किल है,कल भी मुश्किल था,आज भी। सवाल अभी भी वहीं खड़ा हैं, हँस रहा है मेरी बेबसी पर, अपने अविजित होने पर। हाँ,इसके अलावा मुझे थोड़ा बहुत पता है अपने बारे में। 

मेरी सहित्य में गहरी रुचि है. यहीं मेरे जीवन का आधार है, जीने का जज़्बा है, लक्ष्य है...अभी बहुत सफ़र तय करना है, कई मंज़िलों ,बाधाओं को पार करना है और अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचना है। मेरा अन्तिम लक्ष्य उस सत्य को अनावृत्त करना है, जो अब तक सब की आँखों से ओझल है, क्योकि सत्य का अर्थ है,सतत् अर्थात सदा बना रहने वाला। मालूम नहीं ऐसा सत्य कहाँ मिलेगा, शायद भगवान के पास। और अन्त में, गाइड फ़िल्म के ये शब्द जो मेरी ज़िन्दगी का आधार बन गये हैं,
" सवाल अब ये नहीं कि पानी बरसेगा या नहीं, सवाल ये नहीं कि मैं जिऊँगा या मरूंगा. सवाल ये है कि इस दुनिया को बनाने वाला,चलाने वाला कोई है या नहीं. अगर नहीं है तो परवाह नहीं ज़िन्दगी रहे या मौत आये. एक अंधी दुनिया में अन्धे की तरह जीने में कोई मज़ा नहीं. और अगर है तो देखना ये है कि वो अपने मज़बूर बन्दों की सुनता है या नहीं "


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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ... 
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
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राधेश कुमार  जीवन मैग के जनसम्पर्क अधिकारी हैं।

Tuesday, 18 November 2014

दूरदर्शन की सौतन- संतोष

एक समय था की जब दूरदर्शन ‘’सरकार’’ की छवि को लेकर उतनी ही चिंतित रहती थी जितनी की एक पत्नी अपने पति के लंचबॉक्स को लेकर | पूरे दिन निजी क्षेत्र की मीडिया द्वारा जब सरकार को पत्थर मारा जाता तब शाम को यह उस पर मरहम पट्टी का काम करती थी और धीरे से गुनगुनाती रहती ......
''बहुत रंजूर है ये, ग़मों से चूर है ये
खुदा का खौफ़ उठाओ, बहुत मजबूर है ये
क्यों चले आये हो बेबस पे सितम ढाने को
कोई पत्थर से ना मारे .........''


पहले सौतन का नाम ही पत्नी को जलाकर राख कर देती थी | उत्तर आधुनिक युग में अब सौतन की परिभाषा भी बदलने लगी है | अब की सौतने ख़ुशी- ख़ुशी साथ रहना पसंद करने लगी हैं | दूरदर्शन की सौतन भी अब सहेली बन गई है| दूरदर्शन की तो फिर भी कुछ सीमाएं हैं जैसे सुबह रंगोली, शाम को क्षेत्रीय प्रसारण, रात को अन्य विशेष कार्यक्रम इन सब की वजह से इसे उतना स्नेह नहीं मिल पता जितना की ये सौतनें इठला-इठलाकर लुटती रहती है | कभी प्रेमी के कुरते की तारीफ़ से तो कभी दाढ़ी के कलर पर बहस करा कर तो कभी ''सासु माँ'' का साक्षात्कार दिखा कर|

एक अलग नजरिये से देखें तो इन सब ने मिलकर दूरदर्शन का काम आसान ही कर दिया है , बेचारी अब कहाँ इन नवयुवतियों से रेस लगाती फिरे| और कलमुंही ये सौतनें........ये तो बस साबित कर देना चाहती हैं की वाकई ''हर सफल पुरुष के पीछे एक प्रेमिका का हाथ होता है"| ये जता देना चाहती हैं की ये जो तख्तो-ताज तुम्हे मयस्सर हुई है वह मेरे ही प्रेम, त्याग, और समर्पण का परिणाम है| दूरदर्शन बेफ़िक्र हो कर तमाशा देख रही है | इसे पता है की दो चार हसीन शाम गुजर जाने के बाद वापस तो इसे मेरे ही आँचल तले आना है| मगर वो कहते हैं न की प्यार अगर एकतरफा भी हो तो यादों को कौन मिटा सकता है ? फिर भी क्या खूब जिया है इस वक़्त को इन सौतनो ने! नये-नये सीरियल पुरे दिन दिखाएँ हैं कुछ का नाम इस प्रकार रखा जा सकता है ''कभी नरेन्द्र कभी मोदी'', ''ससुराल मोदी का ''. ''मोदी का घर प्यारा लगे'', मोदी बधू'', ''सपने सुहाने मोदी के'', ''नरेन्द्र मोदी का उल्टा चश्मा'' तथा ''क्योंकि मोदी भी कभी C.M था''!
125 करोड़ की आबादी में दुर्भाग्यवश औसतन 125 चेहरे को मीडिया तरज़ीह देती है| दस-पंद्रह फ़िल्मी कलाकारों, दस-पंद्रह उद्योगपति औसतन सत्तर-पचहत्तर नेताओं को फिर ब्रेक में जाने के बाद अगर समय बच जाए तो उन बदनसीबों को भी दिखा देते हैं जिनकी अकाल मृत्यु हो जाती है या जो किसी दुर्घटना का शिकार हो जाते हैं और दुर्भाग्यवश अगर रैली का दिन ठहरा तो करमजले को वो भी नसीब नहीं होता| 


संतोष कुमार जीवन मैग की संपादन समिति के सदस्य हैं। आप दिल्ली विश्वविद्यालय के क्लस्टर इनोवेशन सेंटर में बीए स्नातक (मानविकी और समाजशास्त्र) के छात्र तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के सामुदायिक रेडियो में ओबी प्रभारी हैं.

Friday, 14 November 2014

ग़ज़ल: एक दिन- राघव

ज़मीन-ओ-आसमां, और अपनी नज़रों का जहाँ

कर चलेंगे ये सभी तेरे हवाले एक दिन |

वो जो बाक़ी रह गया था रहज़नों से सफ़र में,

राह्बरों ने छीन लिए उनसे निवाले एक दिन |

इन परिंदों से कहो ये सच की धुन को ना कहें

कर के बदनां शज्र इनके लोग जलाएंगे एक दिन |

तुम ये चेहरा क्या दिखाते धूप में झुलसा हुआ?

तुमको दिखलाएंगे हम पैरों के छाले एक दिन |

डर नहीं ये मेरे दुश्मन क़त्ल को बेताब हैं

ग़म है मुझको मेरे अपने मिटाएंगे एक दिन |

आइनों को देख कर चेहरों को चमका लिया

आइनों पे दाग़ को अब मिटाएंगे एक दिन

अब भी खतरे में है सच, सुकरात अब भी मरते हैं

बदले में ये नादां, ज़हर पिलाएंगे एक दिन

ठोकरों से एक ना एक दिन हम संभलना सीख लेंगे,

कोई तो एक बार आकर , हमें संभाले एक दिन |

मैं हार तो गया हूँ पर जद्दोजहद पर अब भी हूँ

देखना दी जाएँगी 'राघव' की मिसालें एक दिन। 



राघवेन्द्र त्रिपाठी 'राघव'  
(लेखक जीवन मैग के संपादन समिति के सदस्य हैं। आप दिल्ली विश्वविद्यालय में बी.टेक/ बी.एस इन इनोवेशन विद मैथ्स एन्ड आइटी के छात्र हैं तथा ग़ज़ल में गहरी रूचि रखते हैं.)
(संपादन में अतिरिक्त प्रयत्न के लिए जीवनमैग के सह-संपादक अबूज़ैद अंसारी को धन्यवाद सहित)


 Roman Text: Ghazal- Ek Din

Zameen-o-asman aur apni nazron ka jahan
kar chalenge ye sabhi tere hawale ek din
wo jo baaki reh gaya tha rahjanon se safar me,
 rahbaron ne chheen liye unse niwale ek din
in parindon se kaho ye sach ki dhun ko naa kahen
kar ke badnan shazr inke log jalayenge ek din
tum ye chehra kya dikhate dhoop me jhulsa hua?
 tumko dikhayenge hum pairon ke chhale ek din
dar nahi ye mere dushman katl ko betaab hain
gham hai mujhko mere apne mitayenge ek din

aainon ko dekh kar chehron ko chamka liya
aainon pe daag ko ab mitayenge ek din
ab bhi khatre me hai sach, sukrat ab bhi marte hain
badle me ye naadan, zahar pilayenge ek din
thokron se ek naa ek din ham sambhalna seekh lenge
koyi to ek baar aakar, hamen sambhaale ek din
main haarf to gaya hoon par jaddojahad par ab bhi hoon
dekhna dee jayengi "raghav" ki misalen ek din

- Raghavendra Tripathi "Raghav"

दिल की आवाज़- आलोक चन्द्रा

तू चली गयी मैं सोचता हूँ अब भी तू आएगी,
तू रूठ गयी मैं सोचता हूँ अब भी तू मान जाएगी।
मेरे दिल में बसने वाली ऐ परी ,
ये दिल कहता है एक दिन तू
ज़रूर आएगी।

मेरे ग़म से ख़ुशी चुनकर,
मेरे आंसू से मोती चुनकर,
मेरे दर्द से राहत चुनकर,

दूर कहीं से उडती हुई मेरे दिल में समा जाएगी,
ये दिल कहता है एक दिन तू ज़रूर आएगी।
आलोक चन्द्रा शांतिनिकेतन जुबली स्कूल, मोतिहारी (बिहार) के बारहवीं कक्षा के छात्र हैं। जीवन मैग से शुरुआत के दिनों से ही जुड़े हैं। 


Roman Text

Tu chali gayi main sochta hoon ab bhi tu aayegi,
Tu rooth gayi main sochta hoon ab bhi tu maan jayegi.
Mere dil me basne wali aye pari,
ye dil kehta hai ek din tu zaroor aayegi.
Mere gham se khushi chunkar,
mere aansoo se moti chunkar,
mere dard se rahat chunkar
Door kahin se udti huyi mere dil me sama jayegi
ye dil kehta hai ek din tu zaroor aayegi.

Thursday, 13 November 2014

संघर्ष -अभिनव सिन्हा


लगता है मैं भटक रहा था,
वो फूल
वो पेड़
वो सुंदर सा बागीचा
खिंच रहे थे मुझे,
वो लोग
वो भेषभूषा
दिल बहला रहे थे,
वह रास्ता शहर को नहीं जाता,
मंज़िल की ओर जाना था
पर कदम उठने को तैयार नहीं,
उस मोह की दुनिया को छोड आया,
मंज़िल मीलों दूर है,
पिछड़ गया हूँ,
जीवन की गति धीमी प्रतीत हो रही है,
मगर मैं हारा नहीं हूँ,
ये मेरी आधी जीत है।

अभिनव सिन्हा कक्षा बारहवीं के छात्र हैं तथा मोतिहारी, बिहार से ताल्लुक रखते हैं। इनकी कवितायेँ अंतस से छनी हुई आवाज़ सी होती हैं, लेशमात्र भी कृत्रिमता नहीं। 


Roman Text

Sangharsh

Wo rasta shahar ko nahi jata,
lagta hai main bhatak raha tha,
wo phool
wo ped
wo sundar sa baageecha
kheench rahe the mujhe, 
wo log
wo vesh-bhoosha
dil bahla rahe the,
manzil ki or jana tha
par kadam uthne ko taiyaar nahi,

us moh ki duniya ko chhod aaya
manzil meelon door hai
pichhad  gaya hoon
jeevan ki gati dheemi prateet ho rahi hai,
magar main haara nahi hoon,
ye meri aadhi jeet hai.




Tuesday, 11 November 2014

ब्रॉडकास्टिंग से नैरोकास्टिंग की ओर

ब्रॉडकास्टिंग का मतलब अगर प्रसारण है तो नैरोकास्टिंग का मतलब क्या होगायही सवाल सौ टके का हैआखिर नैरोकास्टिंग का कांसेप्ट है क्याइसकी जरूरत क्यों पड़ीऔर इसका भविष्य क्या हैहम हिन्दुस्तानी सबसे पहला सवाल जो पूछते हैं वह भविष्य से ही जुड़ा होता हैइतिहास गवाह है टेलीविजनमोबाइलकंप्यूटर आदि के आगमन पर पहला सवाल यही पूछा गया था. 2005 में रेडियो प्रसारण में एक नई पहल अस्तित्व में आई जो “सामुदायिक रेडियो” के नाम से जाना जाता है. सामुदायिक रेडियो की अवधारणा बाकी के कॉमर्शिअल चैनलों और आकाशवाणी से बिल्कुल अलग है. इसका सिद्धांत “समुदाय के लिएसमुदाय कासमुदाय के साथ” होता है. यह एक मंच है उन लोगों का भी जिनकी प्रतिभा के साथ न्याय नहीं हो पायाजिनके गीत किसी ने नहीं सुनेतथा जिनका ज्ञान किसी ने नहीं बाँटा. यह माध्यम केवल संचार का ही नहीं बल्कि व्यवहार तथा अस्मिता का भी है. समुदाय ही इसकी पूंजी है और समुदाय का कौशल विकास करना इसका निवेश.  




तो आखिर समुदाय क्या हैभूगोल की माने तो किसी स्थान विशेष या क्षेत्र विशेष में रहने वाले लोग एक समुदाय का निर्माण करते हैं. लेकिन हर जगह यह भी मान्य नहीं होता है. समुदाय जातीजनजाति का भी हो सकता है. समुदाय एक भाषा बोलने वाले का भी हो सकता है. एक तरह के रीति-रिवाज तथा मान्यताओं को माननेवालों का भी समुदाय हो सकता है. कम्युनिटी रेडियो की अवधारणा के अनुसार जितने दूर के लोग उस रेडियो की आवाज को स्पष्ट सुन सकते हैंउसका समुदाय बन जाते हैं. यहाँ समुदाय का निर्माण श्रोता तक पहुँच से तय होता है. लेकिन आज डिजिटल युग में जहाँ रेडियो इंटरनेट के माध्यम से पूरी दुनिया में सुना जा सकता है तो इस परिभाषा पर पुनः सोचने की जरूरत जा पड़ती है.
 
कम्युनिटी रेडियो वर्तमान संचार के तरीकों में विश्वास नहीं रखता. इस अवधारणा में एजेंडा समुदाय के द्वारा तय किया जाता है. कार्यक्रम समुदाय के लोगों के अनुसार होता है. भाषा लोगों के बोलचाल की होती है और बोलने वाला समुदाय का ही सदस्य होता है. सही मायने में कहा जाये तो यह अपनी पहचान होती है अपनी आवाज होती है. कम्युनिटी रेडियो क्षेत्रीय संस्कृति की झांकी प्रस्तुत करता है. क्षेत्रीय खान-पानपहनावा-ओढ़ावाभाषा-बोलीरहन-सहन तथा आचार-विचार को मंच प्रदान करने वाला यह अपने आप में एक अनोखा माध्यम है. देश में कई बोली लुप्त हो गई और कई लुप्त होने के कगार पर है. ऐसे में सामुदायिक रेडियो एक संजीवनी बन कर सामने आया है.

दुनिया के कई देशों में सामुदायिक रेडियो अपना परचम लहरा रही है. अफ्रीकानेपालऑस्ट्रेलियातथा श्रीलंका में तो यह अपनी सफलता की कहानी लिख कर स्थापित हो चुका है. हर जगह इसका स्वागत किया जा रहा है. यूनेस्को जैसी संस्था इसे अपना पूरा समर्थन दे रही है तथा इसके विकास को प्रतिबद्ध है. तो अब सवाल यह आता है की इस अपेक्षाकृत कम पहुँच वाले रेडियो की आवश्यकता क्यों पड़ीजिस देश में आकाशवाणी की पहुँच 92% से अधिक क्षेत्रों तक तथा 99% लोगों तक है वहां इसकी जरूरत क्या है?निःसंदेह ऑल इंडिया रेडियो देश की सबसे बड़ी पहुँच वाला संचार तंत्र है. उसके पास विशाल कंटेंट और कंटेंट बनाने वाले हैं. देश के जाने-माने वाचकउद्घोषक और कलाकार आकाशवाणी से जुड़े हैं. इन तमाम उपलब्धियों के बावजूद आकाशवाणी वह बात नहीं कह पाती जो हम सुनना चाहते हैं. इस विशाल जन समाज को आकृष्ट करने के कारण वह उन चीजों तक नहीं पहुँच पाता जो हम जानना चाहते हैं. नामचीन हस्तियों कि भीड़ के कारण वहां हमारे लिए जगह ही नहीं बन पाता. वह कोई नहीं सुन पाता जो हम सदियों से सुनाना चाह रहे हैं. इन सभी व्याधियों का उपचार लेकर आया कम्युनिटी रेडियो. उसके पास हमारे लिए जगह भी है और समय भी क्योंकि वह हमारे लिए ही बना है.



संतोष कुमार 

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के क्लस्टर इनोवेशन सेंटर में बीए स्नातक (मानविकी और समाजशास्त्र) के छात्र हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के सामुदायिक रेडियो में ओबी प्रभारी हैं.  

Monday, 10 November 2014

Diary of an inquisitive teen 2- Life in America


November 11, 2014
Mesa, Arizona (United States of America)

Santa Monica, California
Read the first installment of DIARY OF AN INQUISITIVE TEEN here>>>  http://www.jeevanmag.com/2014/10/diary-of-inquisitive-teen-delhi-to-dc.html

3 Months in the United States! Life is beautiful, and busy! My experience so far has given me memories to cherish and lessons to remember. When I return to India, next June, I’ll be a changed individual; changed for better and changed to confront each and every situation life has to offer.
Indian Food with host mom
I met my host family on August 15 (India’s Independence Day, metaphorically). To my utter delight, I now think that I couldn’t have got a more cooperative and supportive family. The disorganized person fled out of the chaos and started to plan everything ahead of time. It’s just incredible!

Bruin MUN at UCLA
So, I had got the passport to the Toro Nation (Toro-or bull is my school’s mascot) and was ready to be a skinny Toro (I admit I am skinny). I started at Mountain View High School on August 18. On the very first day, I learned the fact that American High Schools are way different from their Indian counterparts. In India, students sit in the classroom and teachers walk in and out while here it’s just the opposite. Schools in India require the students to be dressed up in school uniforms- from tie to shoes. Students aren’t permitted to carry electronic devices like cellphones and yes, we don’t use calculators in our Math class (Maths in British English but Math in American English…a small but significant difference). The public display of affection between opposite sexes is nearly forbidden.
My first days at the school were difficult! I had to adapt to a range of situations. Socializing was tough as every hour here has different classmates. Some of the classes were way too easy. So, I changed my schedule in a week. American History easily became my favorite core class. Among the other classes I have are AP Chemistry, Pre-Calculus, American Literature, Yearbook and Model United Nations. Model UN is super fun! Oh…I forgot to mention that I am just coming from Bruin MUN at UCLA (November 8-9) where I won Honorable mention award representing the Singaporean delegation. 
 
Fun with friends
So, now was the time for clubs. I joined Mosaic writing club given my passion for writing. You won’t believe it but I was elected the president of my school’s European culture club despite of not knowing any European language (Don’t be silly by considering English one).
Let me tell you about some ridiculous questions I was asked.
A random guy at school: Do you guys travel on horses and elephants in India?
Me: Hmm…yes, and our traffic police moves on camels!
Guy: Really?
Me (laughing): Get yourself out of the bubble, dude! US is not the only place in the worlds with cars.
 
Kurta with Swastika
I was also asked why I was a vegetarian and if “Facebook” was there in India or not. Some people also misunderstood Swastika (A Hindu religious symbol meaning peace) on my shirt for the Nazi sign which looks similar. I am having a great time capturing these awesome reactions in the hard drive of my memories. 

Halloween Jail breaker "Elvis Presley"
I felt homesick at just one occasion- India was celebrating Diwali- the festival of lights and I had to content myself by skyping with my family. But, Halloween was fantastic! Dressed as a jail breaker with a mouthful of candies, I enjoyed carving pumpkin and creating an artificial graveyard.

At Phoenix Zoo
Everything is awesome! In the words of Thoreau, I am sucking out all the marrow of life.
Feel free to ask me anything about India or make a suggestion. Waiting for your mail, akashmanofsky@gmail.com


(Akash Kumar is the Editor-in-chief of JeevanMag.com 
A Senior grader at Mountain View High School in Mesa, Arizona (USA), he is India's youth ambassador to US on a Department of State program. He hails from Motihari, Bihar, India.)


International calls @ rates never before!

http://www.kukkuru.com

 


A series of skype group conversations beetween students from India & Pakistan

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