ब्रॉडकास्टिंग
का मतलब अगर प्रसारण है तो नैरोकास्टिंग का मतलब क्या होगा, यही सवाल सौ टके का है. आखिर नैरोकास्टिंग का कांसेप्ट है क्या? इसकी जरूरत क्यों पड़ी? और इसका भविष्य क्या है? हम हिन्दुस्तानी सबसे पहला सवाल जो पूछते हैं वह भविष्य से
ही जुड़ा होता है. इतिहास गवाह है टेलीविजन, मोबाइल, कंप्यूटर आदि के आगमन पर पहला सवाल यही पूछा गया था. 2005 में रेडियो प्रसारण में एक नई पहल अस्तित्व में आई जो
“सामुदायिक रेडियो” के नाम से जाना जाता है. सामुदायिक रेडियो की अवधारणा बाकी के कॉमर्शिअल चैनलों और
आकाशवाणी से बिल्कुल अलग है. इसका सिद्धांत “समुदाय के
लिए, समुदाय का, समुदाय के साथ” होता है. यह एक मंच है उन लोगों का भी जिनकी प्रतिभा के साथ न्याय नहीं हो पाया, जिनके गीत किसी ने नहीं सुने, तथा जिनका ज्ञान किसी ने नहीं बाँटा. यह माध्यम केवल संचार का ही नहीं बल्कि
व्यवहार तथा अस्मिता का भी है. समुदाय ही इसकी पूंजी है
और समुदाय का कौशल विकास करना इसका निवेश.
तो आखिर समुदाय क्या है? भूगोल की माने तो किसी स्थान विशेष या क्षेत्र विशेष में रहने वाले लोग एक समुदाय का निर्माण करते हैं. लेकिन हर जगह यह भी मान्य नहीं होता है. समुदाय जाती, जनजाति का भी हो सकता है. समुदाय एक भाषा बोलने वाले का भी हो सकता है. एक तरह के रीति-रिवाज तथा मान्यताओं को माननेवालों का भी समुदाय हो सकता है. कम्युनिटी रेडियो की अवधारणा के अनुसार जितने दूर के लोग उस रेडियो की आवाज को स्पष्ट सुन सकते हैं, उसका समुदाय बन जाते हैं. यहाँ समुदाय का निर्माण श्रोता तक पहुँच से तय होता है. लेकिन आज डिजिटल युग में जहाँ रेडियो इंटरनेट के माध्यम से पूरी दुनिया में सुना जा सकता है तो इस परिभाषा पर पुनः सोचने की जरूरत जा पड़ती है.
कम्युनिटी रेडियो वर्तमान संचार के तरीकों में विश्वास नहीं रखता. इस अवधारणा में एजेंडा समुदाय के द्वारा तय किया जाता है. कार्यक्रम समुदाय के लोगों के अनुसार होता है. भाषा लोगों के बोलचाल की होती है और बोलने वाला समुदाय का ही सदस्य होता है. सही मायने में कहा जाये तो यह अपनी पहचान होती है अपनी आवाज होती है. कम्युनिटी रेडियो क्षेत्रीय संस्कृति की झांकी प्रस्तुत करता है. क्षेत्रीय खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा, भाषा-बोली, रहन-सहन तथा आचार-विचार को मंच प्रदान करने वाला यह अपने आप में एक अनोखा माध्यम है. देश में कई बोली लुप्त हो गई और कई लुप्त होने के कगार पर है. ऐसे में सामुदायिक रेडियो एक संजीवनी बन कर सामने आया है.
दुनिया के कई देशों में सामुदायिक रेडियो अपना परचम लहरा रही है. अफ्रीका, नेपाल, ऑस्ट्रेलिया, तथा श्रीलंका में तो यह अपनी सफलता की कहानी लिख कर स्थापित हो चुका है. हर जगह इसका स्वागत किया जा रहा है. यूनेस्को जैसी संस्था इसे अपना पूरा समर्थन दे रही है तथा इसके विकास को प्रतिबद्ध है. तो अब सवाल यह आता है की इस अपेक्षाकृत कम पहुँच वाले रेडियो की आवश्यकता क्यों पड़ी? जिस देश में आकाशवाणी की पहुँच 92% से अधिक क्षेत्रों तक तथा 99% लोगों तक है वहां इसकी जरूरत क्या है?निःसंदेह ऑल इंडिया रेडियो देश की सबसे बड़ी पहुँच वाला संचार तंत्र है. उसके पास विशाल कंटेंट और कंटेंट बनाने वाले हैं. देश के जाने-माने वाचक, उद्घोषक और कलाकार आकाशवाणी से जुड़े हैं. इन तमाम उपलब्धियों के बावजूद आकाशवाणी वह बात नहीं कह पाती जो हम सुनना चाहते हैं. इस विशाल जन समाज को आकृष्ट करने के कारण वह उन चीजों तक नहीं पहुँच पाता जो हम जानना चाहते हैं. नामचीन हस्तियों कि भीड़ के कारण वहां हमारे लिए जगह ही नहीं बन पाता. वह कोई नहीं सुन पाता जो हम सदियों से सुनाना चाह रहे हैं. इन सभी व्याधियों का उपचार लेकर आया कम्युनिटी रेडियो. उसके पास हमारे लिए जगह भी है और समय भी क्योंकि वह हमारे लिए ही बना है.
संतोष कुमार
लेखक दिल्ली
विश्वविद्यालय के क्लस्टर इनोवेशन सेंटर में बीए स्नातक (मानविकी और समाजशास्त्र)
के छात्र हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के सामुदायिक रेडियो में ओबी प्रभारी हैं.
Post a Comment
Please Share your views about JeevanMag.com