बाबा साहब अम्बेदकर के महापरिनिर्वाण दिवस पर आज कुछ बुद्धिजीवियों के विचार सुनने का मौका मिला। यद्यपि बाबा साहेब के बारे में बहुत ज्यादा पढ़ा नहीं है मैंने, लेकिन फिर भी आज सबकी बातें सुनकर मुझसे रहा नहीं गया। और, फलस्वरूप मैं यह लिखने बैठ गया।
मेरी समझ में एक बात ये आती है कि आपको अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए और लड़ाई में बने रहने के लिए, प्रतीकों की आवश्यकता पड़ती है। समाजवाद, पूंजीवाद, साम्यवाद, गांधीवाद, नारीवाद इत्यादि जितने भी वाद हैं, ये ऐसे ही प्रतिमान हैं जो समय समय पर गढ़े गये। किसी सामाजिक बदलाव के लिए, क्रांति के लिए नहीं ये सभी प्रतिमान गढ़े गये हैं स्वयं को स्थापित करने के लिए। व्यवस्था से असंतुष्ट, उससे रुष्ट कोई आक्रोशित व्यक्ति विद्रोह कर देता है, या कई बार वो सोचता है सिर्फ विचार करता है कि शायद ये होता तो अच्छा होता। ये समाज को साथ लाने के लिए, किसी स्थापित मूल्य की रक्षा के लिए भी हो सकता है और किसी स्थापित रूढी के खिलाफ भी। फिर...फिर वर्षों बाद, जब किसी को ये लगता है कि उसके पास न तो वैचारिक शक्ति है, न ही पर्याप्त साहस, लेकिन वो अपने आपको स्थापित करना चाहता है तो वह अपनी मौलिक विचारधारा नहीं रखता बल्कि पुरानी पड़ी किताबों में बंद कोई बढ़िया आइटम बाहर लाता है जो कि नया नहीं होता, मगर ठीक उसी तरह जैसे जीन्स और टी-शर्ट की पीढ़ी को एक बार कुर्ता कोई अति विशिष्ट और फैशनेबल परिधान लगने लगता है क्योंकि उसके साथ किसी नई कंपनी का ब्रांड होता है। उसी तरह ये पुरानी विचारधारा भी थोड़े से फैशन एलिमेंटस की वजह से मार्केटेबल बन जाती है और फिर गाँधी, आम्बेडकर, मार्क्स के साथ नाम जोड़कर मार्केटिंग का वो नुस्खा अपनाया जाता है जो मसलन दो सौ साल पुरानी चाय बेचने वाली दुकान इस्तेमाल करती है या फिर राजस्थान के शुद्ध वैष्णव ढाबे वाला। यानि कि विचारधारा को पुरानी बताने से वो प्रमाणिक लगने लगती है और उसके साथ नाम जोड़ने से आप किसी ख़ास समुदाय को टारगेट कर पाते हैं माने आपका कंज्यूमर सेगमेंट डिफाइन हो जाता है। फिर क्या है धडल्ले से बेच दीजिये माल। जबतक कोई नया आइटम नहीं आता है मार्किट में चाँदी है आपकी।
मेरी समझ में एक बात ये आती है कि आपको अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए और लड़ाई में बने रहने के लिए, प्रतीकों की आवश्यकता पड़ती है। समाजवाद, पूंजीवाद, साम्यवाद, गांधीवाद, नारीवाद इत्यादि जितने भी वाद हैं, ये ऐसे ही प्रतिमान हैं जो समय समय पर गढ़े गये। किसी सामाजिक बदलाव के लिए, क्रांति के लिए नहीं ये सभी प्रतिमान गढ़े गये हैं स्वयं को स्थापित करने के लिए। व्यवस्था से असंतुष्ट, उससे रुष्ट कोई आक्रोशित व्यक्ति विद्रोह कर देता है, या कई बार वो सोचता है सिर्फ विचार करता है कि शायद ये होता तो अच्छा होता। ये समाज को साथ लाने के लिए, किसी स्थापित मूल्य की रक्षा के लिए भी हो सकता है और किसी स्थापित रूढी के खिलाफ भी। फिर...फिर वर्षों बाद, जब किसी को ये लगता है कि उसके पास न तो वैचारिक शक्ति है, न ही पर्याप्त साहस, लेकिन वो अपने आपको स्थापित करना चाहता है तो वह अपनी मौलिक विचारधारा नहीं रखता बल्कि पुरानी पड़ी किताबों में बंद कोई बढ़िया आइटम बाहर लाता है जो कि नया नहीं होता, मगर ठीक उसी तरह जैसे जीन्स और टी-शर्ट की पीढ़ी को एक बार कुर्ता कोई अति विशिष्ट और फैशनेबल परिधान लगने लगता है क्योंकि उसके साथ किसी नई कंपनी का ब्रांड होता है। उसी तरह ये पुरानी विचारधारा भी थोड़े से फैशन एलिमेंटस की वजह से मार्केटेबल बन जाती है और फिर गाँधी, आम्बेडकर, मार्क्स के साथ नाम जोड़कर मार्केटिंग का वो नुस्खा अपनाया जाता है जो मसलन दो सौ साल पुरानी चाय बेचने वाली दुकान इस्तेमाल करती है या फिर राजस्थान के शुद्ध वैष्णव ढाबे वाला। यानि कि विचारधारा को पुरानी बताने से वो प्रमाणिक लगने लगती है और उसके साथ नाम जोड़ने से आप किसी ख़ास समुदाय को टारगेट कर पाते हैं माने आपका कंज्यूमर सेगमेंट डिफाइन हो जाता है। फिर क्या है धडल्ले से बेच दीजिये माल। जबतक कोई नया आइटम नहीं आता है मार्किट में चाँदी है आपकी।
आज अम्बेदकर पर जिन 'मौलिक बुद्धिजीवियों' को सुना, उससे यहीं लगा कि मार्किट में नया माल ला रहे हैं, अम्बेडकरवाद ओपन मार्किट में लांच नहीं हुआ है मगर xiaomi की तरह सेल शुरू हो गयी है, मार्किट में आएगा कुछ दिनों में। संभव है कि अबतक आपके मन में मेरे प्रति तमाम विशेषणों का पूरा का पूरा एक कोष तैयार हो गया हो। अगर ऐसा है तो कोई नहीं उगल दीजिये। और आपमें से कुछ बुद्धिजीवी मुझ पर दयाभाव दिखाते हुए ये समझने का प्रयास करेंगे कि मैं इतना अधम कैसे हो सकता हूँ। उनके लिए भी है उपचार, तो बात दरअसल ये है की मैं हूँ "ब्राह्मण"। ओह्ह!!! अब तो मुद्दा ही साफ़ है आपको भी समस्या की जड़ नजर आ गयी होगी। सब इस ब्राह्मणत्व का दोष है लेकिन क्या करें प्रकृतिजनित है, हमारा कोई वश तो है नहीं मेरे ब्राह्मण होने पर। अब आप भी मुक्त हैं, मुक्तकंठ से मेरे सम्मान में चालीसा पढकर, मेरे कुल-वंश, और 5000 वर्षों की परम्परा वाला अध्याय पढ दीजिये।
आगे का उनके लिए है जो लोग अबतक मेरे सम्मान हेतु कमेंट्स टाइप करना न शुरू कर चुके हों। बात दरअसल ये है कि आज के एक वक्ता बात-बात पर "विरोधी ये कर रहे हैं, वो कर रहे हैं" किये जा रहे थे। "हमको साथ आना होगा" इत्यादि इत्यादि। "ऐसा हो जाये तो सब ठीक हो जायेगा" आदि आदि। बस ये विरोधी कौन है और 'ऐसा' कैसे हो इसपर किसी का कोई मत नहीं। किसी को इस बात से समस्या है कि चुनाव के दिन कोई राजनैतिक दल का प्रमुख यदि अपने घर हवन करा रहा है तो वह सेक्युलर नहीं है। कुमार विश्वास इसलिए घृणा का पात्र है क्योकि उसने मंच पर कविता के बीच ये कहा कि वो मास्टर का बेटा है और ब्राह्मण है। हें.... ब्राह्मण कहा स्वयं को... घोर पाप, घृणित है ये तो। मैं तो कहता हूँ कि डूब मरे कुमार विश्वास- ब्राह्मण पुत्र होने का पाप लेकर जीना कोई जीना है भला। जबतक आप "दलित" न हों आपको अपना वंश बताना कानूनन अपराध है और अगर आप दलित हों तो ये आपका मूल अधिकार है। मगर ये सब बातें धारा 0 के अंतर्गत आती हैं और सारी की सारी किताबों में नहीं मिलेंगी। इसके अलावा कई उपबंध इस प्रकार हैं कि आप अपना पूरा परिचय देने में यदि 5 पंक्तियाँ बोलें तो कम से कम 3 बार यह बताएं कि आप दलित हैं और कोई भी दुसरा यदि आपको दलित वर्ग का कह दे तो इसे आप अपना अपमान समझें ।
ख़ैर!! आज तक जो कुछ थोडा बहुत मुझको मालूम था कि बाबा साहब बड़े कानूनविद थे, राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे इत्यादि इत्यादि। ये सारे भ्रम आज दूर हो गये और जब ज्ञान चक्षु खुले तो इतना बोध हो गया कि बाबा साहब महामानव थे जो ब्राह्मण शब्द से ही घृणा करते थे। दलित और सिर्फ दलित वर्ग के पुरोधा और नेता। बाबासाहब ने दलित उत्थान के अतिरिक्त अन्य कोई काम नहीं किया।
एक वक्ता ने तो अतिशय प्रभावित किया वो कहते हैं, "दोस्तों हमें संगठित होने के लिए पहले एक पैमाना बनाना पड़ेगा कि हमारे साथ आने वाले ये युवा किस मान्यता के हैं?ये उन्ही विचारों को मानते हों जिन्हें हम मानते हों, यद्यपि वाल्मीकि और रैदास को मानने वाले अलग हैं फिर भी वे दलित हैं वे साथ आ सकते हैं लेकिन कोई वेदाभ्यासी हो और गीता पढता हो, जनेउ धारण करता हो तो वो तो ब्राह्मणवादी और दलित विरोधी है।" बेहद सुन्दर, कितना सटीक पैमाना... अहा!!सारगर्भित। भई! बड़े सामाजिक परिवर्तन के लिए चयनित किये जाने वाले लोगों को कसने की कसौटी ऐसी तो होगी ही। हृदय प्रसन्न हो गया, महादेव की कसम। विष्णु ब्राह्मणवादी हो जाते, इसलिए नहीं किया उनका जिक्र।
अभिभूत, मंत्रमुग्ध कर देने वाले वक्ताओं को 2 घंटे सुनकर हृदय की समस्त शंकाओं का निवारण हो गया। एक वक्ता ने आरक्षण के मुद्दे की भी बात उठाई। और बड़ी गंभीर शैली में कहा की "साथियों, आरक्षण का विरोध करने वाले नहीं जानते कि आरक्षण का उद्देश्य क्या है और इसका इतिहास क्या है?" मैं तनिक अतिरिक्त उत्सुकता के साथ सुनने को तत्पर हुआ किन्तु इतने गूढ़ विषय को शायद बता पाना असम्भव था याकि फिर जिस प्रकार अन्य बुद्धिजीवियों के सिर हिले उससे लगा की शायद पहले ही श्लोक में सब छिपा हुआ है और अर्थग्रहण के लिए उसी का अन्वय करना पड़ेगा। अब इतनी योग्यता थी नहीं तो हम उसे वही छोड़कर आगे सुनने लगे जैसे कॉपी में आधे तिहे पन्ने खाली छोड़कर स्कूल में आगे का टॉपिक नोट करने लग जाते थे।
एक वक्ता ने तो अतिशय प्रभावित किया वो कहते हैं, "दोस्तों हमें संगठित होने के लिए पहले एक पैमाना बनाना पड़ेगा कि हमारे साथ आने वाले ये युवा किस मान्यता के हैं?ये उन्ही विचारों को मानते हों जिन्हें हम मानते हों, यद्यपि वाल्मीकि और रैदास को मानने वाले अलग हैं फिर भी वे दलित हैं वे साथ आ सकते हैं लेकिन कोई वेदाभ्यासी हो और गीता पढता हो, जनेउ धारण करता हो तो वो तो ब्राह्मणवादी और दलित विरोधी है।" बेहद सुन्दर, कितना सटीक पैमाना... अहा!!सारगर्भित। भई! बड़े सामाजिक परिवर्तन के लिए चयनित किये जाने वाले लोगों को कसने की कसौटी ऐसी तो होगी ही। हृदय प्रसन्न हो गया, महादेव की कसम। विष्णु ब्राह्मणवादी हो जाते, इसलिए नहीं किया उनका जिक्र।
अभिभूत, मंत्रमुग्ध कर देने वाले वक्ताओं को 2 घंटे सुनकर हृदय की समस्त शंकाओं का निवारण हो गया। एक वक्ता ने आरक्षण के मुद्दे की भी बात उठाई। और बड़ी गंभीर शैली में कहा की "साथियों, आरक्षण का विरोध करने वाले नहीं जानते कि आरक्षण का उद्देश्य क्या है और इसका इतिहास क्या है?" मैं तनिक अतिरिक्त उत्सुकता के साथ सुनने को तत्पर हुआ किन्तु इतने गूढ़ विषय को शायद बता पाना असम्भव था याकि फिर जिस प्रकार अन्य बुद्धिजीवियों के सिर हिले उससे लगा की शायद पहले ही श्लोक में सब छिपा हुआ है और अर्थग्रहण के लिए उसी का अन्वय करना पड़ेगा। अब इतनी योग्यता थी नहीं तो हम उसे वही छोड़कर आगे सुनने लगे जैसे कॉपी में आधे तिहे पन्ने खाली छोड़कर स्कूल में आगे का टॉपिक नोट करने लग जाते थे।
बातें इतनी प्रभावोत्पादक थी कि बस जी में ठान लिया कि अब तो बस लड़ना ही है बदल देना है? क्या बदलना है ये सब तो वैसे भी जरुरी नहीं है, बात ये है कि बदलना चाहिए। क्यों बदलना चाहिए? क्योंकि ये जो है वो जो पहले था उसको बदल के आया है। और चूँकि हम ये मान रहे हैं क़ि जो है वो उससे बढिया है जो कि था तो सिद्ध हुआ कि बदलने से भला होगा। बात में दम है और हम सही काम में देरी करते नहीं, और वो भी जब क्रांति वगैरह टाइप के भाव दिल में हों, बिलकुल देर नहीं करते। क्योंकि बड़ा अस्थायी भाव है, न जाने कब ख़त्म हो जाये इसलिए क्रांति की भावना है बस लग लो तुरंत।
अब बदलने के लिए कुछ खास था नहीं, वक्ता लोगों ने चाय वगैरह लिया... बदलना जरुरी था तो डिस्कशन का इशू बदल दिए। बात करने के लिए घर परिवार और तमाम चीजें हैं, बाबा साहब की फिलॉसफी वाला चोंगा तो पार्टी वियर है घंटे दो घंटे से ज्यादा पहनोगे तो फट जायेगा। हमको बंद पंखे के नीचे बैठकर ज्ञान हो गया, बुद्ध बनकर बाहर आये, कदम कैंटीन की और चल पड़े, एक तो चाय पहले भी एक कप ले चुके थे ऊपर से बदलने के लिए ढृढ़प्रतिज्ञ, ब्लैक कॉफ़ी बना के पी लिए। बदलाव हो चुका था और परिवर्तन के भाव भी तिरोहित हो चले थे। परिनिर्वाण दिवस के लिया इतना तो काफ़ी था। शांत, निर्विकार मन लिए बुद्ध की भाँति धीरे धीरे हम कमरे में चले आये।
बाबा साहब अमर रहें।
अगले महापरिनिर्वाण दिवस तक के लिए विदा।
राघवेन्द्र त्रिपाठी 'राघव' (लेखक जीवन मैग के संपादन समिति के सदस्य हैं। आप दिल्ली विश्वविद्यालय में बी.टेक/ बी.एस इन इनोवेशन विद मैथ्स एन्ड आइटी के छात्र हैं तथा ग़ज़ल में गहरी रूचि रखते हैं.) |
****लेख के विषय-वस्तु से संपादन मंडली का राज़ी होना ज़रूरी नहीं है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जीवन मग परिवार सम्मान करता है। ***
लेखक के विचार कुछ नेताओं के सन्दर्भ में हैं. इस लेखक ने आंबेडकर को नहीं पढ़ा है, जैसे कि उन दलित नेताओं ने नहीं पढ़ा है. आंबेडकर ब्राह्मण के बिलकुल भी विरोधी नहीं थे, उनके अनेक ब्राह्मण मित्र उनके आन्दोलन में भागीदार थे. श्यामाप्रसाद मुखर्जी उनके परम मित्रों में थे. वे ब्राह्मणवाद के विरोधी थे, साथ ही पूंजीवाद के भी.वे मूलत: समाजवादी थे. आज के दलित नेता उनके नाम की सिर्फ राजनीती कर रहे हैं, वो भी भ्रमित करने वाली.
ReplyDeleteसबसे पहले तो लेख पढने के लिए आपका साधुवाद| औ उत्तर देने में हुई देरी के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ|
Deleteमैंने आंबेडकर को बहुत ज्यादा नहीं पढ़ा है यह सत्य है और यह मैंने लेख के पहले अनुच्छेद में स्पष्ट कर दिया है| पुन: आपकी ये बात भी ठीक ही है कि यह लेख आंबेडकर के विषय में नहीं है अपिटी यह एक कटाक्ष है उन तथाकथित लोगों के बारे में जो दलित नेता और विचारक होने का दंभ भरते हैं और जो आंबेडकर कि दुकान चला रहे हैं|
आपका पुन: धन्यवाद |
very informative post for me as I am always looking for new content that can help me and my knowledge grow better.
ReplyDeletegreat collection..inspiring as previous collection!
ReplyDeletethanks ...........
this great post.
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